मोती का ऐतहासिक परिप्रेक्ष्य
रामायण काल में मोती का उपयोग काफी प्रचलित था। मोती की चर्चा बाइबल में भी की गई है। साढ़े तीन हजार वर्ष ईसा पूर्व अमरीका के मूल निवासी रेड इंडियन मोती को काफी महत्व देते थे। उनकी मान्यता थी कि मोती में जादुई शक्ति होती है। ईसा बाद छठी शताब्दी में प्रसिध्द भारतीय वैज्ञानिक वराह मिहिर ने बृहत्संहिता में मोतियों का विस्तृत विवरण दिया है। ईसा बाद पहली शताब्दी में प्रसिध्द यूरोपीय विद्वान प्लिनी ने बताया था कि उस काल के दौरान मूल्य के दृष्टिकोण से पहले स्थान पर हीरा था और दूसरे स्थान पर मोती। भारत में उत्तर प्रदेश के पिपरहवा नामक स्थान पर शाक्य मुनि के अवशेष मिले हैं जिनमें मोती भी शामिल हैं। ये अवशेष एक स्तूप में मिले हैं। अनुमान है कि ये अवशेष करीब 1500 वर्ष पुराने हैं।
मोती की कीमत
मोती अनेक रंग रूपों में मिलते हैं। इनकी कीमत भी इनके रूप-रंग तथा आकार पर आंकी जाती है। इनका मूल्य चंद रुपए से लेकर हजारों रुपए तक हो सकता है। प्राचीन अभिलेखों के अध्ययन से पता चलता है कि फारस की खाड़ी से प्राप्त एक मोती छ: हजार पाउंड में बेचा गया था। फिर इसी मोती को थोड़ा चमकाने के बाद 15000 पाउंड में बेचा गया। संसार में आज सबसे मूल्यवान मोती फारस की खाड़ी तथा मन्नार की खाड़ी में पाए जाते हैं। इन मोतियों को ओरियन्ट कहा जाता है।
बहुुउपयोगिता
मोतियों का उपयोग आभूषणों के अलावा औषधि-निर्माण में भी होता आया है। भारत के प्राचीन आयुर्वेदिक ग्रंथों में मोती-भस्म का उपयोग कई प्रकार की औषधियों के निर्माण में किए जाने का उल्लेख मिलता है- कब्ज नाशक के रूप में तथा वमन कराने हेतु। इससे स्वाथ्यवर्ध्दक तथा उद्दीपक दवाओं का निर्माण किया जाता है। जापान में मोतियों के चूर्ण से कैल्शियम कार्बोनेट की गोलियां बनाई जाती हैं। जापानियों की मान्यता है कि इन गोलियों के सेवन से दांतों में छेद होने का डर नहीं रहता। साथ ही इससे पेट में गैस नहीं बनती तथा एलर्जी की शिकायत नहीं होती।
संरचना और आकार
मोती वस्तुत: मोलस्क जाति के एक प्राणी द्वारा क्रिस्टलीकरण की प्रक्रिया द्वारा बनता है। यह उसी पदार्थ से बनता है जिस पदार्थ से मोलस्क का कवच या आवरण बनता है। यह पदार्थ कैल्शियम कार्बोनेट व एक अन्य पदार्थ का मिश्रण है। इसे नैकर कहा जाता है। हर वह मोलस्क, जिसमें यह आवरण मौजूद हो, में मोती उत्पन्न करने की क्षमता होती है। नैकर स्राव करने वाली कोशिकाएं इसके आवरण या एपिथोलियम में उपस्थित रहती हैं। मोती अनेक आकृतियों में पाए जाते हैं। इनकी सबसे सुंदर एवं मूल्यवान आकृति गोल होती है। परन्तु सबसे सामान्य आकृति अनियमित या बेडौल होती है। आभूषणों में प्राय: गोल मोती का ही उपयोग किया जाता है। अन्य आकर्षक आकृतियों में शामिल है: बटन, नाशपाती, अंडाकार तथा बूंद की आकृति।
मोती का रंग उसके जनक पदार्थ तथा पर्यावरण पर निर्भर करता है। मोती अनेक रंगों में पाए जाते हैं। परन्तु आकर्षक रंगों में शामिल हैं- मखनिया, गुलाबी, उजला, काला तथा सुनहरा। बंगाल की खाड़ी में पाया जाने वाला मोती हल्का गुलाबी या हल्का लाल होता है। मोती छोटे-बड़े सभी आकार के मिलते हैं। अब तक जो सबसे छोटा मोती पाया गया है उसका वजन 1.62 मिलीग्राम (अर्थात 0.25 ग्रेन) था। इस प्रकार के छोटे मोती को बीज मोती कहा जाता है। बड़े आकार के मोती को बरोक कहा जाता है। हेनरी टाम्स होप के पास एक बरोक था जिसका वजन लगभग 1860 ग्राम था।
खनिज संघटन
खनिज संघटन के दृष्टिकोण से मोती अरैगोनाइट नामक खनिज का बना होता है। इस खनिज के रवे विषम अक्षीय क्रिस्टल होते हैं। अरैगोनाइट वस्तुत: कैल्शियम कार्बोनेट है। मोती के रासायनिक विश्लेषण से पता चला है कि इसमें 90-92 प्रतिशत कैल्शियन कार्बोनेट, 4-6 प्रतिशत कार्बनिक पदार्थ तथा 2-4 प्रतिशत पानी होता है। मोती अम्ल में घुलनशील होते हैं। तनु खनिज अम्लों के संपर्क में आने पर मोती खदबदाहट के साथ प्रतिक्रिया कर कार्बन डाईआक्साइड मुक्त करता है। यह एक कोमल रत्न है। किसी भी धातु या कठोर वस्तु से इस पर खरोंच पैदा हो जाती है। इसका विशिष्ट घनत्व 2.40 से 2.78 तक पाया गया है। उत्पत्ति के दृष्टिकोण से मोतियों की तीन श्रेणियां होती है: 1. प्राकृतिक मोती, 2. कृत्रिम या संवर्ध्दित मोती, तथा 3. नकली (आर्टिफिशल) मोती।
मोती का उत्पादन
प्राकृतिक मोती की उत्पत्ति प्राकृतिक ढंग से होती है। वराह मिहिर की बृहत्संहिता में बताया गया है कि प्राकृतिक मोती की उत्पत्ति सीप, सर्प के मस्तक, मछली, सुअर तथा हाथी एवं बांस से होती है। परंतु अधिकांश प्राचीन भारतीय विद्वानों ने मोती की उत्पत्ति सीप से ही बताई है। प्राचीन भारतीय विद्वानों का मत था कि जब स्वाति नक्षत्र के दौरान वर्षा की बूंदें सीप में पड़ती हैं तो मोती का निर्माण होता है। यह कथन आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा भी कुछ हद तक सही पाया गया है। आधुनिक वैज्ञानिकों का भी मत है कि मोती निर्माण हेतु शरद ऋतु सर्वाधिक अनुकूल है। इसी ऋतु में स्वाति नक्षत्र का आगमन होता है। इस ऋतु के दौरान जब वर्षा की बूंद या बालू का कण किसी सीप के अंदर घुस जाता है तो सीप उस बाहरी पदार्थ के प्रतिकाल हेतु नैकर का स्राव करती है। यह नैकर उस कण के ऊपर परत दर परत चढ़ता जाता है और मोती का रूप लेता है।
वैश्विक स्तर पर मोती की खेती
कृत्रिम मोती को संवर्धित (कल्चर्ड) मोती भी कहा जाता है। इस मोती के उत्पादन की प्रक्रिया को मोती की खेती का नाम दिया गया है। उपलब्ध साक्ष्यों से पता चलता है कि मोती की खेती सर्वप्रथम चीन में शुरू की गई थी। ईसा बाद 13वीं शताब्दी में चीन के हू चाऊ नामक नगर के एक निवासी चिन यांग ने गौर किया कि मीठे पानी में रहने वाले सीपी में यदि कोई बाहरी कण प्रविष्ट करा दिया जाए तो मोती-निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। इस जानकारी ने उन्हें मोती की खेती शुरू करने हेतु प्रेरित किया। इस विधि में सर्वप्रथम एक सीपी ली जाती है तथा उसमें कोई बाहरी कण प्रविष्ट करा दिया जाता है। फिर उस सीपी को वापस उसके स्थान पर रख दिया जाता है। उसके बाद उस सीपी में मोती निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।
मोती की खेती-भारत के संदर्भ में
भारत में मन्नार की खाड़ी में मोती की खेती का काम सन् 1961 में शुरू किया गया था। इस दिशा में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के केन्द्रीय समुद्री मत्स्य अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों का प्रयास काफी प्रशंसनीय रहा। इन वैज्ञानिकों द्वारा विकसित तकनीक से मत्स्य पालन हेतु बनाए गए तालाबों में भी मोती पैदा किया जा सकता है। हमारे देश में अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह एवं लक्षद्वीप के क्षेत्र मोती उत्पादन हेतु काफी अनुकूल पाए गए हैं।
मोती की खेती-विभिन्न चरण
मोती की खेती एक कठिन काम है। इसमें विशेष हुनर की आवश्यकता पड़ती है। सर्वप्रथम उच्च कोटि की सीप ली जाती है। ऐसी सीपों में शामिल है। समुद्री ऑयस्टर पिंकटाडा मैक्सिमा तथा पिकटाडा मारगराटिफेटा इत्यादि। समुद्री ऑयटर काफी बड़े होते हैं तथा इनसे बड़े आकार के मोती तैयार किए जाते है। पिकटाडा मैक्सिमा से तैयार किए गए मोती दो सेंटीमीटर तक व्यास के होते हैं। पिकटाडा मारगराटिफेटा से तैयार किए गए मोती काले रंग के होते हैं जो सबसे महंगे बिकते हैं।
मोती की खेती हेतु सीपी का चुनाव कर लेने के बाद प्रत्येक सीपी में छोटी सी शल्य क्रिया करनी पड़ती है। इस शल्य क्रिया के बाद सीपी के भीतर एक छोटा सा नाभिक तथा मैटल ऊतक रखा जाता है। इसके बाद सीप को इस प्रकार बन्द कर दिया जाता है कि उसकी सभी जैविक क्रियाएं पूर्ववत चलती रहें। मैटल ऊतक से निकलने वाला पदार्थ नाभिक के चारों ओर जमने लगता है तथा अन्त में मोती का रूप लेता है। कुछ दिनों के बाद सीप को चीर कर मोती निकाल लिया जाता है। मोती निकाल लेने के बाद सीप प्राय: बेकार हो जाता है तथा उसे फेंक दिया जाता है। मोती की खेती के लिए सबसे अनुकूल मौसम है शरद ऋतु या जाड़े की ऋतु। इस दृष्टिकोण से अक्टूबर से दिसंबर तक का समय आदर्श माना जाता है।
लोकप्रिय होती मोती की खेती
आजकल नकली मोती भी बनाए जाते हैं। नकली मोती सीप से नहीं बनाए जाते। ये मोती शीषे या आलाबास्टर (जिप्सम का अर्ध्दपारदर्शक एवं रेशेदार रूप) के मनकों के ऊपर मत्स्य शल्क के चूरे की परतें चढ़ाकर बनाए जाते हैं। कभी-कभी इन मनकों को मत्स्य शल्क के सत या लैकर में बार-बार तब तक डुबाया निकाला जाता है जब तक वे मोती के समान न दिखाई पड़ने लगे।प्राकृतिक मोती की प्राप्ति संसार के कई देशों में उनके समुद्री क्षेत्रों में होती है। इराक के पास फारस की खाड़ी में स्थित बसरा नामक स्थान उत्तम मोती का प्राप्ति-स्थान है। श्रीलंका के समुद्री क्षेत्रों में पाया जाने वाला मोती काटिल कहा जाता है। यह भी एक अच्छे दर्जे का मोती है। परन्तु यह बसरा से प्राप्त मोती की टक्कर का नहीं है। भारत के निकट बंगाल की खाड़ी में हल्के गुलाबी रंग का मोती मिलता है। अमरीका में मैक्सिको की खाड़ी से प्राप्त होने वाला मोती काली आभा वाला होता है। वेनेजुएला से प्राप्त होने वाला मोती सफेद होता है। आस्ट्रेलिया के समुद्री क्षेत्र से प्राप्त मोती भी सफेद तथा कठोर होता है। कैलिफोर्निया तथा कैरेबियन द्वीप समूह के समुद्री क्षेत्रों तथा लाल सागर में भी मोती प्राप्त होते हैं। चीन तथा जापान में मीठे जल वाले मोती भी मिलते है।
आज मोती का प्रमुख बाजार पेरिस है। बाहरीन, कुवैत या ओमान के समुद्री क्षेत्र में काफी अच्छे मोती पाए जाते हैं। संयुक्त राज्य अमरीका प्रति वर्ष लगभग एक करोड़ डॉलर मूल्य के मोती का आयात करता है।
स्त्रोत
- डॉ. विनय कुमार,देशबंधु में प्रकाशित आलेख,5 अक्टूबर,2011
मोती उत्पादन पर एक सफ़ल किसान से मुलाक़ात करें …इस विडियो को देखकर