परिचय
अमरुद भारत का एक लोकप्रिय फल है। क्षेत्रफल और उत्पादन की दृष्टि से देश में उगाए जाने वालेफलों में अमरुद का चौथा स्थान है। यह अन्य फलों की अपेक्षा अधिक गर्मी व् सूखा सहन कर सकता है। इसके फल न केवल विटामिन और पौष्टिक तत्वों से भरपूर हैं बल्कि इसकी खेती काफी लाभदयक है। खाने के अलावा इसके फलों से जैम, जेली, नेक्टर,स चीज और टाफी आदि बनाई जाती है। परीक्षणों से स्पष्ट हो चुका है कि छोटानागपुर क्षेत्र में अमरुद कि खेती करना काफी लाभदायक है।
प्रमुख किस्में
अमरुद कि कई किस्में हैं लेकिन व्यावसायिक दृष्टि से इलाहाबाद सफेद तथा लखनऊ -४९ ही सर्वोत्तम पायी गयी है।
१. इलाहाबाद सफेदा : इस किस्म के पेड़ सीधे बढ़ने वाले, मध्यम ऊंचाई के बड़े गोलाकार, फल की सतह चिकनी, छिलका पीला, गुदा मुलायम, सफेद, सुवासित और मीठा होता है। बीज अधिक बड़े आकार के व् कड़े होते हैं। इस किस्म की भण्डारण क्षमता अच्छी है।
२. लखनऊ – ४९: इस किस्म को रसदार अमरुद भी कहते हैं। इस किस्म के पेड़ फैलने वाले, अधिक शाखा व् फल देने वाले होते हैं। फल मध्यम से बड़े, गोल अंडाकार, खुरदरी सतह वाले और पीले रंग के होते हैं। गुदा मुलायम, सफेद, आकार बड़ा व् बीज कड़े होते हैं। भंडारण क्षमता मध्यम होती है। उत्पादन अच्छा होता है।
भूमि
अमरुद को लगभग प्रत्येक प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है परन्तु अच्छे उत्पादन के लिये उपजाऊ भूमि अच्छी पाई गई है। अमरुद की बागवानी ४.५ से ९.०० पी.एच. मान वालह मिट्टी में की जा सकती है। परन्तु ७.५ पी.एच. मान से ऊपर वाली मिट्टियों में उकठा रोग के प्रकोप की संभवना बढ़ जाती है।
अमरुद के रोग
उकठा या म्लानी रोग
कारकी :प्युजेरियम आक्सिस्पोरम फा.सिस्प. सिदिअइए ।
लक्षण : रोगी पौधे मुरझाये हुए रहते हैं और उनकी पत्तियां भूरे रंग की होती है। कभी-कभी एक ही पेड़ के कुछ भाग और पत्तियां मरी होती हैं, जबकि शेष भाग स्वस्थ और हरा बना रहता है। डाल की सतह बदरंग हो जाती है।
नियंत्रण के उपाय :
१. जड़ों में चूने के प्रयोग से रोग कम हो जाता है।
२. रोगी पौधों को जड़ सहित खोद कर जला देना चाहिए तथा खोदाई से बने गड्डे में थैरम ३ ग्राम प्रति लीटर की दर से पानी में घोल कर डालना चाहिए।
३. उचित उर्वरकों के साथ-साथ पौधे की देख-रेख अच्छी तरह करनी चाहिए।
तना कैंकर (तना का कोढ़ )
कारकी : फेइसेलोस्पोरा सिदीअई
लक्षण : तने और शाखाओं की डाल के फट जाने से उनमें दरारें पड़ जाती हैं। पोषक तत्त्वों का बहाव बन्द हो जाता है। अधिक रोगी होने पर पूरा पौधा सूख जाता है।
नियन्त्रण के उपाय :
१. रोगी शाखाओं को काटकर जला देना चाहिए और कटे भाग पर किसी कवकनाशी रसायन जैसे बोड्रों पेस्ट का लेप लगा देना चाहिए।
२. प्रतियेक छंटाई के बाद इंडोफिल ऍम-४५ की २.५ ग्राम मात्रा को को १ लीटर पानी में घोल कर २ से ३ छिडकाव १५ दिनों के अंतर पर करना चाहिए।
कालासडन या श्यामवर्ण रोग
कारकी : कोलेतोत्रेइम सीडीआइ
लक्षण : रोगी फलों पर खुरदरे फफोले बन जाते हैं। इनके आकार एवं भाग संख्या में बढ़ने के कारण फलों का अधिक से अधिक भाग रोगी हो जाता है। रोगी फल सिकुड़कर भूरे हो जाते हैं। ये रोगी फल या पेड़ से लगे रहते हैं या फिर गिर पड़ते हैं। शाखाओं कलियों और फूल पर भी रोग के लक्षण दिखाई पड़ते हैं। शाखायें ऊपर से नीचे की ओर सूखती जाती हैं।
नियन्त्रण के उपाय
१. पेड़ पर लगे रोगी फलों और शाखाओं को काट कर जला देना चाहिए।
२. भण्डारण एवं रास्ते में सडन को रोकने के लिए स्वस्थ कड़े फलों का चुनाव उपचारित पेडों से करें।
३. रोग के लिए सहनशील हल्के लाल गूदे वाली किस्मों को उगाना चाहिए।
४. फैइतोलन या ब्लैताक्स – ५० की ३ ग्राम मात्रा की प्रतिलीटर पानी की दर से घोल कर १५ दिनों के अन्तर पर ३-४ छिडकाव करना चाहिए।
धूसर अंगमारी या फल चित्ती या स्काब रोग
कारकी : पेस्तालोशिया सिदिअई
लक्षण : पत्तियों पर भूरे धब्बे बनते हैं जिनके किनारे गहरे रंग के होते हैं। कच्चे फलों पर गहरे चित्ती या स्क्ब बनते हैं जो फलों को खराब करके उनका मूल्य कम कर देते हैं।
नियन्त्रण के उपाय
१. रोगी फलों एवं शाखाओं को काटकर जलाकर नष्ट कर दें।
२. ब्लैताक्स – ५० या फैटोलन की ३ ग्राम मात्रा को एक लीटर पानी में घोल कर आवश्यक मात्रा का घोल बनाकर रोगी पौधों पर छिड़काव करें।
स्त्रोत: हलचल, ज़ेवियर समाज सेवा संस्थान
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