परिचय
वायुश्वासी मछलियों के हवा में सांस लेने वाली मछलियों के रूप में भी जाना जाता है । सामान्यत: मछलियों अपने गलफड़े द्वारा ही श्वसन क्रिया करती हैं लेकिन इन मछलियों में गलफड़े के अलावा भी कुछ विशेष प्रकार की संरचनाएं होती हैं जिनकी सहायता से ये वायुमण्डलीय आक्सीजन को भी सीधे तौर पर ग्रहण करने में सक्षम होती है । इसी कारण ये मछलियाँ उथले, दलदली तथा परित्यक्त जलक्षेत्रों में जहां आक्सीजन की मात्रा अत्यधिक कम होती है, में भी आसानी से रह सकती है। इन मछलियों में जहाँ प्रोटीन व लौह तत्वों की मात्रा अधिक होती है वहीँ वसा तत्व काफी कम होते हैं । यही वजह है कि इन मछलियों की मांग भी काफी है तथा इनके दाम भी अधिक मिलते हैं। यह सही है कि इनके पालन का कोई परम्परागत तरीका नहीं है लेकिन विभिन्न अनुसंधान कार्यों व् प्रयोगों से इसे संबंध में बहुत सी उपयोगी जानकारियां प्राप्त हुई हैं। केन्द्रीय अन्तर्स्थलीय मात्सियकी अनुसंधान संस्थान, बैरकपुर ने अपने अध्ययनों के आधार पर इन मछलियों के पालन व् इनका उत्पादन बढ़ाने हेतु कुछ संवर्धन विविधियाँ प्रस्तुत किया है।
भारत में अनके राज्यों जैसे, असम , मेघालय, बिहार , पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, आन्ध्र प्रदेश , कर्नाटक, मध्य प्रदेश , छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र तथा तमिलनाडु में वायु श्वासी मछलियों की मात्सियकी काफी महत्वूर्ण है । सिंघी व् मांगुर अपने गुण व् स्वाद के कारण सम्पूर्ण भारत विशेष पर उत्तरी भारत में अत्यधिक लोकप्रिय हैं ।
पालन योग्य प्रजातियाँ
वायुश्वासी मछलियों की अनके पजतियाँ हैं जिनमें मांगुर, सिंघी , कोई/कवई तथा मैरल (जाइंट मरेल,स्ट्रिप्ड मरेल, स्पाटेड मरेल) पालन योग्य महत्पवूर्ण प्रजातियाँ है। मछली पालन की दृष्टि से वयुश्वासी मछलियों में मांगुर सबसे उपयुक्त मछली है । आज भारत में ही नहीं थाईलैंड तथा दक्षिणी एशियाई देशों में भी यह बहुत ही लोकप्रिय है ।
पालन पद्धतियाँ
तालाब प्रबन्धन
वायुश्वासी मछलियों का पालन उन सभी जलक्षेत्रों में किया जा सकता है जो परम्परागत प्रजातियों के लिए अनुपयुक्त हैं । ऐसे तालाब जो कार्प पालन के लिए उपयुक्त नहीं हैं उसमें इनका पालन किया जा सकता है । उथले जलक्षेत्र (2-3 फीट) इनके पालन हेतु उपयुक्त वायुमंडलीय आक्सीजन प्राप्त करने में इन्हें कम उर्जा व्यय करनी पड़ती है । यह पालन प्रणाली अल्पकालिक है । अन्गुलिकाएं (6-10 ग्राम) तथ खाद्य पदार्थ दो ही प्रमुख आवश्यकताएं हैं । यदि संग्रहण बहतु अधिक है या एक से अधिक पैदावार लेना है तो जल पुनभर्रण भी जरूरी है । सफल प्रबन्धन के लिए यह आवश्यक है कि तालाब 0.1-0.2 हे. से बड़ा न हो । बारहमासी तालाबों से परभक्षी मछलियों को महुए की खल्ली (2500 किग्रा/हे./मीटर ) द्वारा हटाना चाहिए । यदि तालाब का ताल गादयुक्त एवं कठोर हो तो चूने का प्रयोग 300 किलोग्राम/ हे. की दर से फायेदेमंद होगा ।
बीज संग्रहण
मांगुर , सिंघी तथा मरेल मछलियों की सफल प्रेरित प्रजनन के पश्चात भी बीज हेतु प्राकृतिक संसाधनों पर ही निर्भर रहना पड़ता है । मरैल प्राय: टैंक, नदियों तथा दलदली बीलों में अप्रैल से जून के दौरान प्रजनन करती है । सिंघी व् मांगुर प्राय: दलदली बीलों तथा धान के खेतों में वर्षाकाल में प्रजनन करती हैं । सिंघी व् मांगुर के बीज संग्रहण का शिखर समय शीतकाल से पूर्व है । मरैल के बीज संग्रहण का समय भी मानसून है ।
आहार
वायुश्वासी मछलियों सामान्यत: माँसाहारी होती हैं । पालन प्रणाली में पूरक आहार हेतु इन्हें सूखी हुई छोटी समुद्री मछलियाँ, तेलहनों की खली, चावल का चोकर आदि दिया जाता है । मांगुर व् सिंघी सूक्ष्म केकड़ावंशी प्राणियों, कीड़े मकोड़े तथा अन्य प्रकार के लार्वा खाती हैं । कोई/कवई मछली अपनी प्रारंभिक अवस्था में सूक्ष्म प्लवक भक्षी होती है लेकिन बाद में यह कीट भक्षी हो जाती है ।
पालन अवधि व उत्पादन
औसतन मांगुर तथा सिंघी छ: माह के अन्दर क्रमश: 920 ग्रा. तथा 500 ग्रा. की हो जाती है । मरैल समूह में जाइंट मरेल – 400 ग्रा., स्ट्रिप्ड मरेल-275 तथा स्पाटेड मरेल -160 ग्रा. का शारीरिक भार 7 से 8 माह के अंदर ग्रहण कर लेती है । उत्पादन की दृष्टि से 6 से 8 माह में एक हेक्टेयर जलक्षेत्र से 3-5 टन की उपज प्राप्त होती है ।
स्त्रोत: मत्स्य निदेशालय, राँची, झारखण्ड सरकार
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