भूमिका
पूरे विश्व में मत्स्य पालन के दौरान मछलियों का रोगग्रस्त होना एक बड़ी समस्या है जिससे इस उद्योग पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जलकृषि के गहन पालन में जहां संग्रहण दर अधिक होती है, वहां मछलियों में बिमारी फ़ैलने की सम्भावना भी सबसे अधिक होती है। इन मछलियों में बिमारी कुछ रोगजनक कीटाणुओं जैसे विषाणु, जीवाणु, प्रोटोजोआ तथा मेटाजोआ जैसे परजीवियों के कारण फैलती है। इन संक्रमण एवं ग्रसन के अलावा कुछ ऐसे पर्यावरणीय कारक भी हैं जो मछलियों में बीमारी एवं उनकी मृत्यु के लिए जिम्मेदार हैं।
मत्स्य रोग के सामान्य लक्षण
मछलियों में बीमारीयों के सामान्य लक्षण हैं – बैचनी, असामान्य तरीके से विचरण, मछलियों का कूदना जल के ऊपरी सतह पर तैरना, हंफनी, किसी कठोर तल पर शरीर को घिसना, समूह में ना रहना, त्वचा का अति चिकना होना, त्वचा या पंख या गलफड़ पर कोई घाव, विकास में कमी तथा बड़े पैमाने पर मछलियों की मृत्यु ।
बीमारी के कारण
मछलियों में बीमारी के कारण एवं सम्बद्ध कारकों को दो बड़े वर्गों में बांटा जा सकता है –
- पर्यावरणीय कारक
- संक्रमण व ग्रसन संबंधी कारक
- पर्यावरणीय कारक : किसी भी जीव के विकास एवं उत्तरजीवीता के लिए उपयुक्त एवं स्वस्थ वातावरण की आवश्यकता होती है। इसकी कमी से होने वाली बीमारियाँ निम्नलिखित हैं –
आक्सीजन की कमी या हाइपोक्सिया
किसी भी जीव के लिए आक्सीजन अत्यंत ही महत्वूर्ण है। मछलियों को स्वस्थ रहने के लिए जल में घुली आक्सीजन की मात्रा 4-5 पी.पी.एम तक होना चाहिये, पर साधारणत: इसकी मात्रा कम ही पाई जाती है।पौधे, जैव पदार्थों की अधिकता, बहि:स्त्राव, अत्यधिक भोज्य पदार्थों का जमाव तथा संग्रहण घनत्व के अधिक होने से आक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है जो मछलियों की मृत्यु का कारण बनती है।यह समस्या ग्रीष्म एवं वर्षा ऋतु तथा सुबह के समय अधिक होती है।इसका उपचार जल में आक्सीजन की घुलनशीलता बढ़ाना है जैसे जल में बांस फिराना, जल को पंप करना आदि।इसमें मछलियों के संग्रहण दर को घटाना, अधिक भोजन न देना, बहि:स्त्राव को रोकना, जैव व् खाद न देना , स्वच्छ जल का प्रवाह करना तथा गाद के उपरी सतह को हटाना आदि उपाय किये जा सकते हैं |
- संक्रमण एवं परजीवियों के कारण होने वाले रोग
- सफेद धब्बेदार रोग – यह रोग इक्थियोपथिरियस प्रोटोजोन द्वारा होता है।इसमें मछली की त्वचा, पंखों व गलफड़ों पर छोटे-छोटे सफेद धब्बे आ जाते हैं।इस बीमारी से जीरा और अंगुलिकाओं में भारी हानि होती है।ये परजीवी मछली एक एपीथिलियम उत्तकों में रहकर इसे नष्ट कर देते हैं।
उपचार :
- पी.पी.एम मेलाकाईट ग्रीन + 50 पी.पी.एम फार्मीलिन में 1.2 मिनट डुबोएं।
- पोखर में 15-25 पी.पी.एम फार्मीलिन हर दुसरे दिन रोग पूरी तरह समाप्त होने तक डालते रहें।
- डेक्टाइलोगाईरोसिस व गाईरो डेक्टाइलोसिस : यह कार्प तथा हिसंक मछलियों के लिए एक घातक रोग है। डेक्टाइलोगाईरन मछली के गलफड़ों को संक्रमित करते हैं जिससे गलफड़े बदरंग, शरीर वृद्धि तथा भार में कमी आ जाती है। गाइरोड़ेक्टाइलस ज्यादातर त्वचा पर मिलता है। यह संक्रमित भाग की कोशिकाओं में घाव बना देता है, जिससे त्वचा का बदरंग होना शल्कों का गिरना तथा अधिक श्लेष्म का श्राव होता है।
उपचार :
- मछलियों को 500 पीपीएम पोटेशियम परमैगनेट के घोल में 5 मिनट के लिए रखना चाहिए।
- 1:2000 का एसटीक एसिड घोल व 2% नमक घोल में 2 मिनट के लिए बारी-बारी डुबाएं।
- पोखर में 25 पी.पी.एम फार्मीलिन का प्रयोग करें।
- तालाब में मेलेथियान 0.25 पी.पी.एम की दर से सात दिन के अंदर में तीन बार दें।
- आरगुलोसिस : यह रोग आरगुलस नामक क्रस्टेशियन परजीवी से होता है।यह मछली की त्वचा पर गहरे घाव कर देता है जिससे उस पर दुसरे जीवाणु व् फफूंद आक्रमण कर देते हैं और मछलियाँ अधिक संख्या में मरती हैं।
उपचार :
- 35 मी.ली. साइपरमेथिन या क्लीनर दवा 100 लीटर पानी में घोल कर 1 हैक्टर –मी. के तालाब में 5 दिन के अंतर में तीन बार डालना चाहिए।
- 0.25 पी.पी.एम. मैलिथियन को 1 सप्ताह के अंतराल से 3 बार दें।
- ड्राप्सी : यह आमतौर पर उन पोखरों में पाया जाता है जहाँ मछलियों को पर्याप्त भोजन नहीं मिल पाता है। हमें मछली का धड़ उसके सिर के अनुपात से काफी पतला हो जाता है और वे दुर्बल हो जाती है। दुर्बल मछली हाइड्रोफिला नामक जीवाणु के संशपर्स में आती है तो इस रोग से आक्रान्त हो जाती है। इस रोग का प्रमुख लक्षण है, मछली के शल्कों का बहुत अधिक मात्रा में गिरना तथा उसके उदरीय गुहा में पानी का जमाव है।
उपचार :
- मछलियों को पर्याप्त मात्रा में भोजन देना, साथ ही पानी की गुणवत्ता को बराबर बनाए रखना चाहिए।
- पोखर में हर 15 दिन में चूना का प्रयोग 100 किग्रा हे. की दर से उपयोगी सिद्ध हो सकता है।
- फिन राट एवं टेल राट : यह रोग प्रमुखत: ऐरोमोनास, फ्लुओरेसेन्स, स्युडोमोनास प्लुओरेसेन्स तथा स्युडोमानस पुट्रिफेसीऐन्स नामक जीवाणुओं के संक्रमण से होता है।मछली के मीन पक्ष तथा पूंछ का सड़कर गिर जाना, इस रोग का प्रमुख कारण है।पहले मीन पक्ष की बाहरी सतह पर सफेद छोटे-छोटे धब्बे आने लगते हैं, जो कि धीरे-धीरे अधिक मात्रा में गलने लगता है।अंतत: 72-120 घन्टे के अन्दर सारी मछलियां मर जाती है।
उपचार :
- पानी की स्वच्छता ही इसका उपाय है साथ ही फोलिक एसिड को भोजन के साथ मिलाकर खिलाना चाहिए।
- इमेक्विल नामक औषधि 10 मि.ली. प्रति 100 लिटर पानी में मिलाकर संक्रमित मछली को 24-48 घंटो के लिए इस घोल में रखना चाहिए।
- 1% एक्रिफलेविन को एक हजार लीटर पानी में 100 मि.ली. की दर से मिलाकर रोगी मछली को इस घोल से 30 मिनट के लिए रखना चाहिए।
- लाल घाव का रोग “एपीजुटिक अल्सरेटिव सिंड्रोम” : “एपीजुटिक अल्सरेटिव सिंड्रोम” एक अत्यंत ही घातक रोग है तथा इसे “लाल घाव की बीमारी” के नाम से भी जाना जाता है।यह रोग संवर्धनकारी मछलियों के साथ-साथ जंगली तथा असंवर्धनकारी मछलियों को भी व्यापक रूप से प्रभावित करता है।संक्रमित मछली के शरीर में जगह-जगह घाव हो जाते हैं।इनका फैलाव अलग –अलग जाति की मछलियों में अलग-अलग प्रकार से होता है।अतिसंक्रमित मछली के विश्लेषण में कई प्रकार के रोगजनकों जैसे – जीवाणु, विषाणु, फफूंद इत्यादि का सम्मिलित संक्रमण देखा गया है।इन रोगों के प्राथमिक रोगजनक के लिए वैज्ञानिकों के विभिन्न मत है।कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि एरोमोनास हाईड्रोफिला जीवाणु इस रोग के संक्रमण में अति महत्वपूर्ण भुमिका अदा करता है जब कि कई अन्य वैज्ञानिकों ने एफेनोमाईसिस नामक फफूंद को इस रोग के प्राथमिक रोगजनक माना है।
उपचार
यह एक अति घातक रोग है।इसलिए रोग का उपचार अगर जल्दी नहीं किया गया तो कुछ ही समय में यह पुरे पोखर की मछलियों को संक्रमित कर देता है। अतिसंक्रमित मछलियाँ तुरंत मरने लगती है। इसलिए रोग का पता चलते ही तालाब में 600 किग्रा चूना /हे./मी. की दर से 3 बार में हर सात दिन के बाद देना चाहिए। अभी तक उपयोग में लाये गये सभी रसायनों या औषधियों में से यह उपचार काफी हद तक असरदायक साबित हुआ है। सीफा, भुवनेश्वर में कार्यरत वैज्ञानिकों ने इस रोग के उपचार हेतु औषधि तैयार की है।जिसका व्यापारिक नाम “सीफेक्स” दिया गया है।एक लीटर औषधि एक हेक्टेयर जल क्षेत्र में प्रयोग करने से उपस्थित मछलियाँ रोग रहित हो जाती है। यद्यपि इस औषधि के पानी की गुणवत्ता पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है, फिर भी यह सुझाव दिया जाता है कि प्राय: 24 घंटे तक तालाब के पानी का प्रयोग से ही 7-10 दिन के अंदर मछलियाँ स्वस्थ्य होने लगती हैं।1 लीटर दवा को 100 लि. पानी में घोल बनाकर तालाबों में डालने से यह रोग निरोधक के रूप में भी काम करता है |
घरेलू उपचार में चूना के साथ हल्दी मिलाने से भी अल्सर घाव जल्दी से ठीक होता है। कली चूना 40 किग्रा/एकड़ एवं हल्दी का चूर्ण 4 किग्रा/एकड़ की दर से प्रयोग करें। आधी मात्रा चूना एवं आधी मात्रा हल्दी चूर्ण मिलाकर तालाब में डालें।पुन: 5 से 7 दिनों के बाद शेष आधी मात्रा का प्रयोग करने से लाभ देखा गया है। मछलियों को सात दिनों तक प्रतिदिन 100 मि.ग्रा. टेरामाइसिन तथा 100 मि.ग्रा. सल्फाडाइजिन नामक दवा को प्रति किग्रा पूरक आहार (भोजन) में मिलाकर मछलियों को खिलाना अच्छा परिणाम देता है |
तालिका नं. 1
मछली पालन हेतु पानी की गुणवत्ता संबंधी प्रमुख कारकों का संतुलित परिमाप
पी . एच. | 7.5 – 8.6 |
अमोनिया |
0.2 पी.पी.एम. |
कार्बन डायआक्साईट |
15-20 पी.पी.एम. |
घुलित आक्सीजन की मात्रा |
5 पी.पी.एम. |
हाइड्रोजन सल्फाइड |
0.003 पी.पी.एम. |
नाइट्रेट |
1.0 पी.पी.एम. |
पोटेशियम |
5.0 पी.पी.एम. |
लवणता |
2 पी.पी.एम. |
स्त्रोत: मत्स्य निदेशालय, राँची, झारखण्ड सरकार
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