परिचय
हमारे देश में जहाँ आबादी एक अरब पन्द्रह करोड़ से भी अधिक है वहाँ 35-40 प्रतिशत जनसंखया केवल शहरों में रह रही है तथा शहरी आबादी का यह अनुपात वर्ष 2025 तक लगभग 60 प्रतिशत तक बढ़ने की उम्मीद है। प्रतिदिन गाँव से शहरों की तरफ युवा रोजगार व बेहतर भविष्य की उम्मीद में हजारों की संखया में विस्थापित हो रहे हैं। यह विस्थापन एक ओर रोजगार के विकल्प पर प्रशनचिन्ह लगा रहा है वहीं दूसरी तरफ बढ़ती शहरी जनसंखया खाद्य आपूर्ति पर भी गंभीर दबाव बढ़ा रही है।
इस शहरी आबादी में प्रति व्यक्ति कम आय वाले लोग अपनी लगभग 50 से 80 प्रतिशत तक आय भोजन उपलब्ध करने में लगा देते हैं। इस वर्ग के भोजन की गुणवत्ता भी अच्छी नहीं होती जिनमें मुख्य पोषक तत्वों की मात्रा आवश्यकता से कहीं कम होती है।
क्यों करें संरक्षित खेती
हमारे देश में जितनी भी कृषि नीतियाँ बनी हैं वे मुख्यतः ग्रामीण परिस्थितियों के ही अनुकूल बनी हैं और शहरों में खाद्य आपूर्ति पूर्णतया ग्रामीण उत्पादन पर ही निर्भर है। इसमें अब काफी सुधार की आवश्यकता है। शहरी क्षेत्रों की खाद्य आपूर्ति के लिए ग्रामीण इलाकों से उन फसलों की आयात तो बिल्कुल ठीक व उचित है जो ज्यादा समय तक खराब न हो परन्तु वे खाद्य पदार्थ जो जल्दी ही खराब हो सकते हैं उनके लिए यदि शहरी क्षेत्रों को ही उनके उत्पादन हेतु उपयोग में लाया जाये तो जल्दी खराब होने वाले कृषि आधारित खाद्य पदार्थ जैसे ताजे फल, सब्जियाँ, फूल इत्यादि बहुत कम समय में ही उपभेक्ता के पास पहुँच जायेंगे। इससे उपभोक्ता को न सिर्फ ताजी खाद्य सामग्री ही मिलेगी बल्कि उत्पादों के दाम भी कम हो जायेंगे तथा तुड़ाई उपरान्त होने वाले नुकसान को भी काफी हद तक कम करने में मदद मिलेगी।
शहरों में बढ़ रही है सब्जियों की मांग
यही नहीं आजकल बडे़ शहरों में रहने वाली जनसंखया का एक बड़ा वर्ग काफी हद तक समृद्ध तथा अमीर है जो स्वास्थ के प्रति पूर्णतया जागरुक है तथा दैनिक उपयोग में आने वाली खाद्य वस्तुओं जैसे सब्जियों, फलों तथा फूलों आदि का कोई भी भाव देने को तैयार है, लेकिन यह वर्ग इन उत्पादों में उच्च गुणवत्ता तथा उनकी निरन्तर उपलब्धता चाहता है। दूसरी तरफ शहरों में रहने वाला उच्च मध्यम वर्ग तथा मध्यम वर्ग भी आजकल स्वास्थ्य के प्रति काफी सचेत हो रहा है तथा वह भी धीरे-धीरे सब्जियों तथा फलों में गुणवत्ता की तरफ आकर्षित हो रहा है। इन्हीं सभी कारणों से आजकल बडे़ शहरों में उच्च गुणवत्ता की सब्जियों , फलों तथा फूलों की मांग निरंतर बढ़ रही है, साथ ही साथ इन उत्पादों की बेमौसमी मांग भी इन शहरों में लगातार बढ़ रही है। शहरों के चारों ओर खेती करने वाले किसान परम्परागत खेती में बदलाव करके उच्च गुणवत्ता वाली ताजी सब्जियों, फूल तथा आवश्यक फलों का उत्पादन कर रहे हैं| शहरी क्षेत्रों में रहने वाले किसान सब्जियों व फूलों आदि की बेमौसमी खेती करके भी बहुत अधिक लाभ कमा सकते हैं। लेकिन उच्च गुणवत्त तथा बेमौसमी सब्जियों तथा फूलों का परम्परागत खेती द्वारा उत्पादन करना संभव नहीं है। इसके लिये शहरी क्षेत्रों में स्थित किसानों को उनकी संरक्षित खेती को अपनाना होगा, जो निशिचत तौर पर उनकी उच्च गुणवत्ता तथा दीर्धावधि तक उनकी उपलब्धता सुनिशिचत कराने से सक्षम हैं। यदि हम दिल्ली शहर के शहरी क्षेत्रों की बात करें, तो इसमें दिल्ली के 80 से 100 कि.मी. तक के क्षेत्र के चारों ओर खेती करने वाले किसान इसके अन्तर्गत आते हैं। लेकिन इसके लिये इन किसानों को संरक्षित खेती की पूरी रुपरेखा, आवश्यकता, उद्देशयों तथा फायदों को समझना होगा।
हमारे देश में सब्जियों की कम उत्पादकता एवं निम्न गुणवत्त का मुख्य कारण उनकी खेती का लगभग शत् प्रतिशत खुले वातावरण में किया जाना तथा दूसरा कृषकों द्वारा सब्जी उत्पादन में अभी भी परम्परागत विधियों तथा तकनीकों का अपनाया जाना है। खुले वातावरण में अनेकों प्रकार के जैविक व अजैविक कारकों द्वारा सब्जी तथा अन्य फसलों को भारी नुकसान पहुँचाया जाता है जिसके कारण उनकी उत्पादकता एवं गुणवत्ता का बुष्प्रभाव पड़ता है। इन जीवित कारकों में मुख्यतः विभिन्न प्रकार के विषाणु रोग, विभिन्न प्रकार के कीडे़ मकोडे़, विभिन्न प्रकार के कवक, विभिन्न प्रकार के जीवाणु एवं सूत्रकृमि आदि प्रमुख है तथा ये जीवित कारण अधिकतर वर्षा कालीन मौसम में उगाई जाने वाली सब्जी फसलों को ज्यादा नुकसान पहुँचाते हैं। मुख्य अजैविक कारकों में तापमान, आर्द्रता एवं प्रकाश आदि प्रमुख हैं जिनकी अधिकता एवं अत्यधिक कमी प्रमुख रुप से विभिन्न सब्जी तथा अन्य फसलों की उत्पादकता एवं गुणवत्ता को प्रभावित करती हैं। तापमान की अत्यधिकता फसलों को झुलसा कर तथा अत्यधिक कम तापमान उसे पाले से ग्रस्त कर नुकसान पहुँचाते हैं। जबकि उत्यधिक आर्द्रता विभिन्न प्रकार के कवक एवं जीवाणु जनित रोगों के प्रकोप में सहायक होती है। वहीं अत्यधिक कम आर्द्रता अधिक तापमान के साथ मिल कर फसलों को झुलसा कर नुकसान पहुँचाती है। ठीक इसी प्रकार प्रकाश की अत्यधिक कमी के कारण फसलें समुचित प्रकाश संशलेषक की प्रक्रिया नहीं कर पाती हैं जिसका सीधा प्रभाव उपज व गुणवत्ता पर पड़ता है। ठीक इसी प्रकार प्रकाश की अत्यधिक तीव्रता भी विभिन्न फसलों पर विपरित प्रभाव डाल कर उपज एवं गुणवत्ता को प्रभावित करती है।
संरक्षित खेती की परिभाषा
जब हम किसी फसल का उत्पादन मुख्य जैविक या अजैविक कारकों से बचाते हुए (सुरक्षा प्रदान करते हुए) करते हैं तो उसे संरक्षित खेती कहते हैं।
संरक्षित खेती का अपनाना मुख्यतया कई महत्वपूर्ण बातों पर निर्भर करता हैः
- जहाँ कोई संरक्षित खेती करना चाहता है तो वहाँ वातावरण की क्या परिस्थितियाँ है |
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किन-किन बागवानी फसलों की संरक्षित खेती करना चाहते हैं |
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संरक्षित खेती अपनाने वाले व्यक्ति के पास कितने संसाधन हैं |
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यदि संरक्षित खेती को बढ़ावा देने के लिए सरकार की योजनाएँ हैं तो वो वास्तव में कितनी कारगर हैं |
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यदि कोई संरक्षित खेती करता है तो ऐसे उच्च गुणवत्ता वाले उत्पादों आदि को बेचने के लिए कौन से बाजार की आसानी से उपलब्धता है आदि |
फसलों की संरक्षित खेती के मुख्य लाभ
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मुख्य जीवित व अजीवित कारकों से फसल की सुरक्षा।
- उच्च उत्पादकता (सामान्यतः खुले खेतों से 5-10 गुणा अधिक)।
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उच्च गुणवत्ता प्राप्त करना सम्भव जो खुले वातावरण में फसलें उगाकर प्राप्त करना असंभव।
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लम्बी अवधि तक सब्जियों की लगातार उपलब्धता।
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अधिक लाभ के लिएबेमौसमी फसल उत्पादन की पूर्ण सम्भावना।
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प्राकृतिक संसाधनों (जैसे जल व भूमि आदि) का सबुपयोग पूर्णतः संभव।
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जैविक खेती का मजबूत आधार, अन्यथा खुले खेत में सब्जी फसलों की जैविक खेती करना काफी असम्भव होता है।
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सुरक्षित सब्जी उत्पादन करना संभव।
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कम क्षेत्रफल में अधिक लाभ लिया जाना संभव जो खुले खेतों में बहुत कम होता है।
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अधिक रोजगार सृजन की संभावनाएँ ( खुले खेतों से 5-6 गुणा अधिक) ।
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परि-नगरीय क्षेत्रों के लिए अत्यधिक उपयोगी प्रौद्योगिकी।
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संरक्षित उत्पादन प्रौद्योगिकी विभिन्न प्रकार की जलवायु वाले क्षेत्रों के लिए उपयोगी व कारगर।
विभिन्न संरक्षित संरचनायें तथा उनका संरक्षित सब्जी उत्पादन में उपयोग
मुख्यतः सब्जी उत्पादन हेतु उचित व उपयुक्त संरक्षित संरचना कीआवश्यकतता उस क्षेत्र की जलवायु पर निर्भर करती है। लेकिन इसके अतिरिक्त किसान की आर्थिक स्थिति, टिकाऊ व उच्च बाजार की उपलब्धता, बिजली की उपलब्धता, भूमि का प्रकार आदि कारण भी इसकी खेती को निर्धारित करते हैं। विभिन्न देशों में सब्जियों के वर्षीार व बेमौसमी उत्पादन हेतु मुख्यतः वातावरण अनुकूलित ग्रीनहाउस, प्राकृतिक वायु संवाहित ग्रीन हाउस, कम लागत वाले पोली-हाउस, वाक-इन-टनल, कीट अवरोधी नेट हाउस, प्लास्टिक लो-टनल आदि को आवश्यकतानुसान वर्ष भर व मुख्यतः बेमौसमी सब्जी उत्पादन हेतु उपयोग में लिया जाता है जिनको हमारे देश के विभिन्न शहरी क्षेत्रों में अपनाने की अपार संभावनायें हैं।
अर्ध वातानुकुलित ग्रीनहाउस
यह एक ऐसा ग्रीनहाउस है जिसमें गर्मी के दिनों में ग्रीनहाउस के अन्दर तापमान को नियंत्रित करने के लिये कूलिंग पैड लगे होते हैं तथा सामान्य गर्मी के समय यह घर में उपयोगी कूलर के आधार पर ही कार्य करता है। लेकिन यह कूलिंग तब अच्छी प्रकार से कार्य करती है जब हवा में नमी कम हो (आर्द्रता 30 प्रतिशत या इससे कम हो )। इस प्रकार उत्तर भारत में मध्य अप्रैल से जून तक यह कूलिंग प्रणाली बहुत अच्छी तरह प्रभावित होती है तथा कभी- कभी इसे सितम्बर व अक्तूबर माह में भी आवश्यकतानुसार उपयोग में लाया जा सकता है। ठीक इसी प्रकार दिसम्बर तथा जनवरी माह में अन्दर के तापमान को रात में गर्म करने के लिए हीटर भी लगाया जा सकता है। ग्रीनहाउस के अन्दर के तापमान को रात के समय 12 या 13 डिग्री से. से नीचे नहीं जाने दिया जाता है तथा फिर इसके दैनिक रख-रखाव पर भी भारी खर्चा होता है क्योंकि इसे मौसम के अनुसार ठंडा या गर्म रखने में ऊर्जा की काफी खपत होती है। इससे उत्पादन लागत अत्यधिक बढ़ जाती है, जिसे वहन करना साधारण कृषकों के लिये संभव नहीं है। यह तभी संभव हो सकता है जबकि सब्जी उत्पादकों की सब्जियाँ बहुत ऊँचे बाजार में बहुत अधिक भाव पर बिके तथा उस क्षेत्र में बगैर रुकावट के बिजली की आपूर्ति जारी रहती हो। आमतौर पर इस प्रकार के ग्रीनहाउस में बड़े आकार का टमाटर, चेरी टमाटर, लाल व पीले रंग की शिमला मिर्च आदि फसलों को वर्ष भर के लिये उगाया जाता है तथा अधिक उत्पादन के साथ-साथ अधिक गुणवत्ता वाली सब्जियाँ भी पैदा की जाती हैं। टमाटर व शिमला मिर्च को ऐसे ग्रीनहाउस में उगाने हेतु उसमें लगातार कटाई-छंटाई का कार्य किया जाता है अन्यथा उपज व गुणवत्ता दोनों में ह्रास होता है। ये कृषि क्रियाएँ प्रत्येक 10-15 दिनों के अन्तराल पर की जाती है। टमाटर की फसल में अन्दर परागक का कार्य भी नियमित रुप से किया जाता है। यद्यपि टमाटर स्वपरागित फसल है लेकिन ग्रीनहाउस में हवा का प्रवाह न हाने का कारण परागक नहीं हो पाता है। फसल में खाद व उर्वरण सिंचाई जल के साथ धोलकर पौधों को उनकी आवश्यकता व मौसम व भूमि की प्रकार के अनुसार दिये जाते हैं। टमाटर के पौधे पर कटाई-छंटाई के बाद एक प्रमुख शाखा रखी जाती है जिसको रस्सी के सहारे 8-9 फुट तक बढ़ने दिया जाता है तथा फिर उसे आवश्यकतानुसार 1.0 या 1.5 फुट नीचे उतार कर रस्सी के सहारे एक दिशा में मुख्य तार के सहारे आगे बढ़ाया जाता है। इस प्रकार टमाटर को 10 से 11 महीने व शिमला मिर्च को 9 से 10 माह तक की लम्बी अवधि तक उगाया जा सकता है। बडे़ टमाटर से लगभग 150-200 टन उपज तथा चेरी टमाटर से 40 से 50 टन उपज प्रति हेक्टेयर तथा शिमला मिर्च से पीले व लाल रंग वाले फल 40 से 50 टन प्रति हेक्टेयर की दर से प्राप्त किये जा सकते हैं।
प्राकृतिक वायु संवाहित ग्रीनहाउस
इस प्रकार के ग्रीनहाउस या संरक्षित संरचनाओं को बनाने पर सामान्यतः वातानुकूलित ग्रीनहाउस के मुकाबले एक तिहाई या एक चौथाई से भी कम लागत आती है तथा इस प्रकार के ग्रीनहाउस को चलाने हेतु या तो ऊर्जा की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है या केवल हवा को बाहर निकालने वाले पंखों को चलाने हेतु बहुत कम ऊर्जा की जरुरत पड़ती है। सामान्य रुप से इस प्रकार का अच्छा व उपयुक्त ग्रीनहाउस बनवाने पर 600 से 650 रुपये प्रति वर्गमीटर के हिसाब से खर्चा होता है। इस प्रकार के ग्रीनहाउस में टमाटर की फसल को 8 से 9 माह तक सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। शिमला मिर्च को भी 8 से 8) माह तक उगाया जा सकता है। जबकि उच्च गुणवत्ता वाले बीज रहित खीरे की फसल को वर्ष में तीन बार उगाया जा सकता है। खीरे की पहली फसल की रोपाई अगस्त के प्रथम सप्ताह में तथा दूसरी फसल की रोपाई मध्य अक्टूबर से अक्टूबर के तृतीय सप्ताह तक तथा तीसरी फसल की रोपाई फरवरी प्रथम सप्ताह में की जा सकती है तथा इस प्रकार 9 से 9) महीने में लगातार तीन फसलें सम्भव है। इसके अतिरिक्त इसमें बेमौसमी शिमला मिर्च, खरबूजा व अन्य बेल वाली सब्जियों को भी सरलतापूर्वक उगाया जा सकता है। इस प्रकार के ग्रीनहाउस पर उत्पादन लागत कम आने के कारण उत्पादक फसल की कम अवधि होने के बावजूद अधिक लाभ कमा सकते हैं। इस प्रकार के ग्रीहाउस ऐसे शहरी क्षेत्रों जैसे पूनाद्व बैंगलौर आदि के लिये अत्यधिक उपयुक्त है क्योंकि जलवायु अनुकूल होने के कारण यहाँ गर्मी में न तो ग्रीनहाउस को ठण्डा करने की तथा न ही सदी्र में गर्म करने की आवश्यकता होती है। अतः इस प्रकार की संरक्षित संरचनाएँ इन क्षेत्रों के लिये अत्यन्त उपयुक्त है, जहाँ इन्हें फसल उत्पादन हेतु ठण्डा या गर्म करने की आवश्यकता नहीं होती है। इस प्रकार के ग्रीनहाउस के रख-रखाव में भी ज्यादा खर्चा व कठिनाई नहीं होती है। इस प्रकार के ग्रीनहाउस अन्य क्षेत्रों जहाँ बिजली वितरण की काफी कमी है, के लिये भी बहुत उपयुक्त सिद्ध हो सकते हैं|
वाक-इन-टनल
ये आधा इंच मोटाई की जी.आई. पाइपों को अर्धगोलाकार मोड़कर तथा उन्हें सरिया के टुकड़ों के सहारे खेत में खड़ा करके व प्लास्टिक से ढंककर बनाई जाने वाली संरक्षित संरचनाएँ हैं। इनकी मध्य में ऊँचाई लगभग 6 से 6) फुट तथा जमीन पर एक सिरे से दूसरे सिरे तक चौड़ाई 4.0 से 4.5 मीटर तक ही सम्भव होती है। इस प्रकार की संरचनाओं को सर्दी के मौसम में बेमौसमी सब्जी जैसे खरबूजा, तरबूज, खीरा, चप्पन कद्दू या अन्य कद्दूवर्गीय सब्जियाँ उगाने के लिये उपयोग में लाया जा सकता है। वाक-इन टनल की लम्बाई आवश्यकतानुसार बढ़ाई जा सकती है। लेकिन सामान्यतः इनकी लम्बाई 20 से 25 मीटर तक ही रखी जाती है। इन संरचनाओं के बनाने पर काफी कम लागत आती है। इनकी देखभाल भी सरलतापूर्वक की जा सकती है। लेकिन इन संरचनाओं का उपयोग केवल सर्दी के मौसम (दिसम्बर मध्य से जनवरी अन्त तक) मैं ही फसल उत्पादन हेतु किया जा सकता है। क्योंकि गर्मी के समय में जब बाहर का तापमान बढ़ता है तो टनल के अन्दर तापमान बहुत अधिक बढ़ जाता है जिसके कारण किसी भी फसल को उसके अन्दर उगाना संभव नहीं होता है। अतः इनका उपयोग केवल सर्दी के मौसम में कद्दूवर्गीय सब्जियों के बेमौसमी उत्पादन हेतु किया जाता है लेकिन सर्दी के मौसम में इनमें दूसरी सब्जियों को भी उगाया जा सकता है।
कीट अवरोधी नेट हाउस
इस प्रकार की संरचनाओं को बनाने के लिये आधा इंच मोटाई की जी.आई. पाइपों को अर्धगोलाकार रुप में मोड़कर, जीम में गाडे़ गए सरिए के टुकड़ों के सहारे खड़ा किया जाता है तथा इस प्रकार पाइपों को 2.0 से 2.5 मीटर की दूरी पर लगाया जाता है। फिर इन्हें कीट अवरोधी नाइलोन नेट से ढंका जाता हे जाली को प्रति वर्ग इंच भाग में बने छिद्रों के आधार पर उपयोग में लिया जाता है तथा जिस जाली में 40 से 50 छिद्र प्रति इंच के हिसाब से हों (40 अथवा 50 mesh size) उससे ही इसे ढंका जाता है। इस प्रकार की संरचनाओं में बरसात या उसके बाद विषाणु रोगों से फसलों को बचाने के लिये इनमें उगाया जाता है। बरसात या बरसात के बाद मध्य अक्टूबर तक अनेक कीटों खासकर सफेद मक्खी जो विषाणु रोग को फैलाती है, की जनसंखया बहुत ज्यादा बनी रहती है। अधिकतर किसानों को बरसात के मौसम में टमाटर, मिर्च व शिमला मिर्च तथा भिण्डी आदि फसलों को उगाने में इन कीटों खासकर सफेद मक्खी के कारण बहुत कठिनाई होती है। अधिकतर किसान टमाटर जैसी फसल को इस मौसम में विषाणु रोग के कारण उगाने में असफल रहते हैं । लेकिन यदि किसान कम से कम टमाटर, मिर्च, शिमलामिर्च आदि फसलों की पौध इस प्रकार की संरक्षित संरचनाओं (नेट हाउस) के अन्द तैयार करें, ताकि पौध को पूर्ण रुप से विषाणु रोग रहित तैयार किया जा सके। यदि किसान विषाणु रोग रहित स्वस्थ पौध की रोपाई मुख्य खेत में करते हैं तो बाद में कुछ कीटनाशकों का छिड़काव करके विषाणु रोगों को काफी हद तक रोका जा सकता है। क्योंकि आज तक हमारे अधिकतर किसान सभी प्रकार की सब्जियों की पौध खुले खेत में तैयार करते हैं। चाहे बरसात का मौसम हो या ठण्ड का। लेकिन अब बदलाव का समय आ गया है कि वे सब्जियों की पौध को बहुत कमम लागत वाली संरचनाओं (नेट हाउस) में ही तैयार करें। यदि कद्दूवर्गीय सब्जियों की बेमौसमी पौध तैयार करनी है तो वे वाक-इन-टनल रुपी संरक्षित संरचनायें बनाकर उनमें तैयार कर सकते हैं तथा ऐसी पौध की आवश्यकतानुसार खेत में रोपाई की जा सकती है। ठीक वाक-इन-टनल की ही तरह नेट-हाउस की चौड़ाई व ऊँचाई बढ़ाना सम्भव नहीं है, लेकिन इनकी लम्बाई को आवश्यकतानुसार बढ़ाना सम्भव है। दूसरी तरफ इन नेट-हाउस को सर्दी के मौसम में ऊपर प्लास्टिक ढंककर ही वाक-इन-टनल भी बनाना सरलतापूर्वक सम्भव है।
प्लास्टिक लो-टनल
लो-टनल ऐसी संरक्षित संरचनायें हैे जिन्हें मुख्य खेत में फसल की रोपाई के बाद प्रत्येक फसल क्यारियों के ऊपर फसल को कम तापमान से होने वाले नुकसान से बचाने के लिये कम ऊँचाई पर प्लास्टिक ढंककर बनाया जाता है। ऐसी संरचना बनाने के लिये पहले क्यारियाँ तैयार की जाती है, तथा उन पर ड्रिप सिंचाई हेतु पाइप फैलाकर उन पर पतले तार के हुप्स इस प्रकार लगाये जाते हैं जिससे हुप्स के दोनों सिरों की दूरी 40 से 60 सें.मी. रहे तथा इनको 1.5 से 2.0 मीटर की दूरी पर लगाया जाता है। हुप्स, तार को मोड़कर भी बनाये जा सकते हैं तथा उन्हें 2.0 से 2.5 मीटर की दूरी पर थोड़ा सा अधिक ऊँचाई (60 सें.मी.) पर लगाया जाता है। बाद में बेल वाली सब्जियों की तैयार पौधमुख्य खेत में रोपाई करके दोपहर बाद क्यारियों पर प्लास्टिक चढ़ाया जाता है। प्लास्टिक की मोटाई 20-30 माइक्रोन होनी चाहिए तथा लो-टनल बनाने के लिए हमेशा पारदर्शी प्लास्टिक का ही प्रयोग करें। यदि रात को तापमान 5.0 डिग्री से. से कम है तो 7 से 10 दिन तक प्लास्टिक में छेद करने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन उसके बाद प्लास्टिक में पूर्व दिशा की ओर चोटी से नीचे की ओर छोटे-2 छेद कर दिये जाते हैं तथा जैसे-2 तापमान बढ़ता है इन छेदों का आकार भी बढ़ाया जाता है। पहले छेद 2.0 से 3.0 मीटर की दूरीपर बनाये जाते हैं, बाद में इन्हें 1.0 मीटर की दूरी पर बना दिया जाता है । इस प्रकार पूरी प्लास्टिक को आवश्यकतानुसार तथा तापमान को ध्यान में रखते हुए फरवरी के अन्त या मार्च के प्रथम सप्ताह में फसल के ऊपर से पूर्ण रुप से हटा दिया जाता है। इस समय तक फसल काफी बढ़ चुकी होती है तथा उससे फल स्थापन प्रारम्भ हो चुका होता है। इस प्रकार की संरक्षित संरचनाओं में मुख्यतः खरबूजा, चप्पन कद्दू, खीरा, तरबूज, करैला, टिण्डा, लौकी व अन्य कद्दूवर्गीय सब्जियों को मुख्य मौसम से 30 से 60 दिन पहले उगाया जा सकता है। चप्पन कद्दू जैसी फसल की रोपाई तो दिसम्बर व जनवरी माह में तथा खरबूजे की फसल को जनवरी के अन्त या फरवरी के प्रथम सप्ताह में लगातार 30 से 60 दिन तक अंगेती उगाया जाता है। इस प्रकार इन फसलों के बाजार से अधिक भाव लेकर अधिक लाभ कमाया जा सकता है। टनल बनाने से पौधों के आसपास का सूक्ष्म वातावरण काफी बदल जाता है तथा दिन के समय जब अच्छी प्रकार से धूप निकलती हों तो टनल के अन्दर का तापमान 10 से 12 डिग्री बढ़ जाता है जिससे कम तापमान होते हुए भी इन फसलों की बढ़वार तेजी से होती है तथा रात के समय टनल में पौधों का पाले से बचाव भी होता है। यह तकनीक उत्तर भारत के मैदानी खासकर शहरों के चारों ओर रहने वाले किसानों के लिये बड़ी लाभप्रद व उपयोगी है, लेकिन इस तकनीक को अपनाने से पूर्व किसानों को इन बेल वाली सब्जियों की पौध को भी संरक्षित संरचनाओं में ही तैयार करना होगा।
शेडनेट
संरक्षित खेती में सामान्यतः शेडनेट का उपयोग अतयधिक गर्मी के मौसम में कुछ सब्जियों के उत्पादन के लिए किया जाता है। इसका मुख्य उद्देशय ऐसी सब्जियों को अधिक तापमान तथा प्रकाश की अधिक तीब्रता के रहते सफल उत्पादन करना होता है। ऐसे शेडनेटस के उपयोग द्वारा गर्मी के मौसम में (मई, जून, जुलाई, अगस्त, सितम्बर) हरा धनिया, पालक अगेती मूली, अगेती फूल गोभी या अगेती गाजर जैसी फसलों का उत्पादन करना संभव है। अन्यथा ऐसे मौसम में खुले वातावरण में इन फसलों का उप्तादन करना लगभग असंभव होता है इसलिए इन महीनों के अन्तर्गत इन सब्जियों के भाव बहुत अधिक हो जाते हैं। अतः इस प्रकार के शेड नेटस के प्रयोग द्वारा खेती करने से अधिक लाभ लेना संभव है। मुख्यतः इसके लिए 40-50 प्रतिशत छाया करने वाले नेट को उपयोग में लिया जाता है तथा अधिकतर काले रंग के नेट ज्यादा सोखने में सहायक होते हैं। वैसे छाया की तीव्रता उगाई जाने वाली फसल पर भी निर्भर करती र्है। साधारणतः 40-50 प्रतिशत छाया करने वाले नेट बनाये जाते है, लेकिन हमारे देश में अधिकतर हरे रंग के छाया करने वाले नेट का प्रयोग किया जाता है ।
प्लग ट्रे पौध उत्पादन प्रौद्योगिकी
इस प्रकार के पौध उत्पादन को शहरी क्षेत्रों में लघु उद्योग के रुप में अपनाया जा सकता है। इस विधि द्वारा विभिन्न सब्जियों की पौध दो प्रकार की प्लास्टिक प्रो-ट्रे में तैयार की जाती है। एक प्रो-ट्रे में छेदों का आकार 1.0 से 1.5 वर्ग इंच होना चाहिए। इसमें शिमला मिर्च, फूलगोभी, पत्तागोभी, गांठगोभी, ब्रोकली, मिर्च सलाद व टी.पी.एस. आलु आदि की पौध तैयार की जा सकती है। दूसरी प्रो-ट्रे में छेदों का आकार 1.5 से 2.0 वर्ग इंच होना चाहिए। इसमें टमाटर, बैगन, खीरा, खरबूजा, तरबूज, लौकी, तोरई चप्पन कद्दू आदि सब्जियों की पौध तैयार की जा सकती है। आजकल भारतीय बाजारों में 98 छेदों वाली प्लास्टिक ट्रे आसानी से मिल रही है जिनका उपयोग पौध उगाने में किया जा सकता है। अब इन प्रो-ट्रेज में परलाइट, वर्गीकुलाइट व कोकोपीट का 1:1:3 अनुपात का मिश्रक तैयार करके उसका उपयोग भू-रहित माध्यम के रुप में किया जा सकता है। आमतौर पर इन तीनों माध्यम पूर्णतया रोगाणुरहित होते हैं। अब ट्रेज के प्रत्येक छेद में एक बीज बोया जाता है तथा बाद में बीज के ऊपर वर्गीकुलाइटकी एक पतली परत डाली जाती है तथा सर्दी के मौसम में प्रत्येक ट्रे को अंकुरण के लिए ऐसे कमरे में रखा जा सकता है जहाँ का तापमान लगभग 24 से 25ह् से. हो, ताकि बीजों का अंकुरण जल्दी व ठीक प्रकार से हो सके । अंकुरण के बाद सभी ट्रे ग्रीनहाउस या अन्य संरक्षित क्षेत्र में बने प्लेटफार्म या फर्द्गा पर फैलाई जा सकती है या फिर ईंटों द्वारा बने फर्द्गा पर उनको फैला कर रख दिया जाता है। उपरोक्त माध्यम में से कोकोपीट को नारियल के कवच के ऊपर उपस्थित रेशों से बनाया जाता है तथा यह जड़ों की बढ़वार के लिए माध्यम के रुप में कार्य करता है। परलाइट वोल्कैनिक उत्पत्ति की चट्टानों से निकले पदार्थ को अत्यधिक तापक्रम (980 ह् से.) पर गर्म करके तैयार किया जाता है। यह माध्यम भी जल निकास व माध्यमों के मिश्रक के बीच उचित हवा उपलब्ध कराने में सहायता करता है। यह सफेद रंग का बहुत हल्का माध्यम है जिसका एक भाग माध्यम मिश्रक में मिलाया जाता है।
सर्दी में पौध तैयार करते समय ग्रीनहाउस या अन्य संरक्षित क्षेत्र में रात को हीटर का प्रयोग किया जा सकता है तथा यह हीटर रात को तब चलाया जा सकता है जब तापमान 13 या 14 ह् से. कम होता है। सर्दी में पौध की प्रारम्भिक अवस्थाप में 70 पी.पी.एम. (10 लाख भाग में से 70 भाग) घोल जिसमें नत्रजन, फास्फोरस व पोटाश को 1:1:1 अनुपात में मिलाकर बनाया जाता है तथा बाद में यह मा़त्रा 140 पी.पी.एम. प्रति सप्ताह तथा कभी-कभी 200 पी.पी.एम. मात्रा के घोल तक बढ़ा दी जाती है। खाद व पानी को एक विशेष प्रकार की बूम प्रणाली या फव्वारा पद्धति द्वारा दिया सकता है जिससे खद व पानी एक समान मात्रा में सभी ट्रे में जा सके तथा पौध की बढ़वार व गुणवत्ता एक समान रहे। गर्मी में बीज बोने के बाद ट्रेज को अंकुरण कमरे में रखने की आवशकता नहीं रहती है तथा खाद 70 पी.पी.एम. की मात्रा में दी जाती है। पौध पर एक बार विशेष प्रकार के वृद्धि नियामक घोल का छिड़काव भी किया जाना चाहिए। इसका छिड़काव तभी किया जाता है जब दिन का तापमान 20 से 30 डिग्री से. के बीच हो। खाद के प्रयोग हेतु फुहारानुमा बूम प्रणाली या फिर सामान्य फुहारे का प्रयोग किया जा सकता है। इसके जरिये समस्त खाद व घोल समय-समय पर पौध को दिये जाते हैं। इस प्रकार इस तकनीक द्वारा सर्दी के मौसम में पौध तैयार होने में 28 से 30 दिन लगते हैं। तैयार पौध को माध्यम सहित निकालकर मुख्य खेत में रोपाई की जाती है। माध्यम के चारों ओर जड़ों का जाल फैला रहता है जो पौध की ओज व गुणवत्ता को दशर्ााता है। पौध को दूर स्थान तक भेजने के लिए माध्यम सहित पैक करके ले जाया जा सकता है। यदि कद्दूवर्गीय फसलों की पौध गर्र्मी के मौसम में तैयार की जाती है तो इसमें कुल 12 से 15 दिन का समय लगता है। इस तकनीक द्वारा पौध तैयार करने में पौध में जड़ों का विकास बहुत अच्छा व अधिक होता है।
आधुनिक तकनीक द्वारा पौध तैयार करने के लाभ
- इस प्रकार पौध को कम समय में तैयार किया जा सकता है तथा खासकर सर्दी के मौसम में जहाँ बाहर खुले वातावरण में क्यारियों में टमाटर जैसी फसल की पौध तैयार करने में 50 से 60 दिन लगते हैं। इस तकनीक द्वारा केवल 28 से 30 दिन में स्वस्थ व उच्च गुणवत्ता वाली पौध तैयार हो जाती हैं।
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बीज की मात्रा को भी काफी कम किया जा सकतर है क्योंकि इस विधि द्वारा प्रत्येक बीज को अलग-अलग छेदों में बोया जाता है जिससे प्रत्येक बीज स्वस्थ पौध देता है।
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पौध को समस्त प्रकार के भू-जनित रोगों व कीटाणुओं से बचाया जा सकता है तथा सबसे महत्वपूर्ण यह है कि पौध को विषाणु रोगों के प्रकोप से बचाया जा सकता है।
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जब पौध बाहर क्यारियों में तैयार की जाती है तो पौध को उखाड़ते समय जड़ आदि टूटने से पौधों की मरण क्षमता लगभग 10 से 15 प्रतिशत रहती है। लेकिन इस तकनीक द्वारा तैयार पौध में एक भी पौध के मरने की संभावना नहीं रहती है। इससे पौध को रोपक झटका भी नहीं लगता है।
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पौध मे जड़ें अधिक विकसित व लम्बी होती है जिसके कारण पौध अधिक व उच्च ओज वाली होती है |
6. इस प्रकार तैयार पौध मुख्य खेत में रोपाई के बाद बहुत कम समय में स्थापित हो जाती है जब कि बाहर तैयार की गयी पौध को मुख्य खेत में स्थापित होने में कई दिन लग जाते हैं।
7. इस प्रकार संरक्षित पौध तैयार करने की तकनीक द्वारा किसी भी सब्जी फसल की पौध को कभी भी तैयार किया जा सकता है। खसकर मौसम से पहले फसल उगाने हेतु ताकि बेमौसमी सब्जी उत्पादन द्वारा अधिक लाभ कमाया जा सके। कद्दूवर्गीय सब्जियों की पौध को भी इस विधि द्वारा बड़ी सरलतापूर्वक तैयार किया जाता है जो पहले भूमि में क्यारियों में सम्भव नहीं होता था।
- इस प्रकार की पौध अधिक गुणवत्ता वाली होती है जिससे अधिक उत्पादन लिया जा सकता है।
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इस प्रकार तैयार पौध को सही प्रकार से पैकिंग के बाद काफी दूर ऐसी जगह तक भेजा जा सकता है, जहाँ इसे उस मौसम में तैयार करना संभव न हो या फिर ऐसी तकनीक उपलब्ध न हो।
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सब्जियों में संकर किस्मों के बीज बहुत महँगे होने के कारण यह तकनीक किसी भी प्राकृतिक नुकसान से बचाने में पूर्णतया सक्षम है।
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इस विधि द्वारा पौध की बढ़वार को पूर्णरुप से नियंत्रित किया जा सकता है।
12. यदि किसी बीज लाट में अंकुरण की क्षमता तो है लेकिन ओज कम है तो भी इस विधि द्वारा ऐसे बीज से स्वस्थ पौध तैयार करना सम्भव है।
13. इस विधि में कम खाद व पानी की आवश्यकता होती है।
- इस विधि में पौध की बढ़वार को एक समान बनाया जाता है ताकि मुख्य खेत में रोपाई के बाद भी फसल की बढ़वार एक समान हो।
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सब्जियों की संरक्षित खेती हेतु पौध तैयार करने की यह आवश्यक व एक मात्र विधि है।
देश के अन्य शहरी क्षे़त्रों में ढूंढे गए हैं कई विकल्प
दिल्ली के शहरी क्षेत्र में एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि यमुना नदी काफी बडे़ भूःभाग को घेरे हुए है। यमुना नदी प्रदूषक की वजह से लगभग एक गन्दे नाले के स्वरुप में परिवर्तित हो गयी है। ऐसी परिस्थिति में हमें शहरी कृषि के लिए गन्दे नालों व ऐसे दूषित जल क्षेत्रों को भी शामिल कर लेना चाहिए। दूषित व गन्दे जलीय क्षेत्रों पर विभिन्न प्रकार की ताजी सब्जियों का उत्पादन किया जा रहा है जो शहरी क्षेत्र में इन सब्जियों के उपयोग करने वाले उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य पर विपरीत असर डाल रहे हैं।
दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में गन्दे नालों के पानी के उपयोग द्वारा लगभग 3750-5000 हेक्टेयर भूमि पर ताजी सब्जियाँ का उत्पादन किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त जयपुर, मुम्बई व कोलकता जैसे शहरों के चारों ओर गन्दे नालों के दूषित जल से सिंचित होने वाली भूमि का क्षेत्रफल लगभग क्रमद्गाः 480-600 हेक्टेयर, 800-1000 हेक्टेयर और 1200-1600 हेक्टेयर है। इसके अतिरिक्त दूसरे मध्य व छोटे शहरों के चारों ओर भी दूषित जल का स्तर भी दिन प्रतिदिन बढ़ रहा है जिसको ताजी सब्जी उत्पादन के लिये उपयोग में लाया जा रहा है।
हालाँकि सब्जियों में जीवाणु और अन्य विषाणुओं का प्रकोप इस बात पर निर्भर करती है कि सिंचाई के लिये प्रयोग किया जाने वाला पानी, ग्रेड ए – (नहाने व कपड़े घोने के बाद का शेष पानी) ग्रेड बी – काला पानी (जिसमें मनुष्य का मल शामिल होता है) या ग्रेड सी-कारखानों से निकलने वाला गन्दा पानी है। कारखानों से निकलने वाले पानी में बहुत सारे रसायन तथा भारी तत्व इत्यादि विद्यमान होते हैं जो कि मनुष्य के जीवन के लिए बहुत बड़ा खतरा है। कुछ भारी तत्व जैसे कॉपर, सिलेनीयम, जस्ता आदि थोड़ी मात्रा में ंमनुष्य के स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होते हैं परन्तु जब इनकी मात्रा मनुष्य के शरीर में निर्धारित मात्रा से अधिक बढ़ जाती है तो जहर का काम करती है। आम तौर पर गन्दे नाले के पानी में सबसे ज्यादा मात्रा में सीसा, केडमियम, कॉपर, कोमियम, सिलेनियम और पारा पाया जाता है तथा कुछ फसलें जैसे हरे पत्तेदार सब्जियाँ, जड़ वाली सब्जियाँ तथा गोभी वर्गीय सब्जियाँ इन्हें बहुत जल्दी भूमि से ग्रहक कर लेती हैं तथा इनमें इन भारी तत्वों की मात्रा निर्धारित सीमा से कई गुणा बढ़ जाती है जिाकर मनुष्य के दमागए चमड़ी, किडनी आदि पर गहरा बुष्प्रभाव पड़ता है।
गहन विचार-विमर्श व देश-विदेश के विभिन्न संस्थाओं में किए गए अनुसंधानों के बाद काफी हद तक हम इस निष्कर्ष पर पहुँच गए हैं कि हमारे कृषक जो इस प्रकार के क्षेत्रों में सब्जी उत्पादन करते हैं को यदि प्रदूषित जल का प्रयोग न करने के लिए तैयार कर लिया जाए तब उनके पास इसके अतिरिक्त इसके उचित व आकर्षक विकल्प क्या होंगे ताकि ऐसे कृषकों की आय व आजिविका पर इसका विपरित असर न पडे़।
गन्दे नालों के पानी द्वारा ताजी सब्जियों को न उगा कर किसान उसके स्थान पर निम्नलिखित खेती कर सकते है जिसका हमारे स्वास्थ्य पर कोई विपरीत प्रभाव भी नहीं पडेग़ा तथा इससे अधिक लाभ भी प्राप्त किया जा सकता है।
- फूलों की खेती
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सब्जी और फूली के बीजों का उत्पादन
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सजावटी पौधों व फूलों की पौध तैयार करना।
विकल्प-1 : फूलों की खेती
फूलों का हमारे स्वास्थ्य पर सीधा प्रभाव पड़ता है क्योंकि फूलों को हम सब्जियों की तरह खाने के उपयोग में नहीं लाते हैं। आज बड़े शहरों में उपलब्ध बाजारों में जिस तरह से फूलों की मांग लगातार बढ़ रही है, उस भाग को ध्यान में रखते हुए भी हमें बडे़ पैमाने पर पुष्प उत्पादन की ओर बढ़ना चाहिए। गन्दे नालों में फूलों का उत्पादन किया जा सकता है इससे फूलों पर कोई प्रतिकूल प्रभाव भी नहीं पड़ता । ताजे फूल बहुत ही नाजुक होते हैं जिस कारण से तोड़ने के बाद लम्बे समय तक ठीक अवस्था में रखना बहुत कठिन होता है। इसलिये उन्हें दूरस्थ क्षेत्रों में पैदा करके शहरों तक पहुँचाना बहुत कठिन व महंगा पड़ता है। जबकि गन्दे नाले अधिकतर शहरों के करीब होते हैं तो ऐसी भूमि पर सब्जीउत्पादन को छोड़कर फूलों का उत्पादन किया जाये जिससे फूलों को उन शहरों में उपलब्ध बाजारों में आसानी से बेचा जा सकता है। इस प्रकार के क्षेत्रों में फूलों को बाजार की मांग के अनुसार उगाया जा सकता है, जैसे कि शादियाँ, उत्सव (दीपावली, क्रिसमस, नया सरल इत्यादि) और आजकल हमारे समाज में पशिचमी संस्कृति के बढ़ते प्रभाव के कारण भी आजकल बाजार में फूलों की मांग लगातार बढ़ रही है। कइ्र उत्सवों पर फूलों के भाव बढ़ जाते हैं। गेंन्दा फूल की मांग सतत मंदिरों में फल माला के रुप में बहुत अधिक होती है। अगर कृष्क बाजार में फूलों की सामयिक भाग को देख कर उत्पादन करें तो वे और अधिक लाभ कमा सकते हैं।
किसान इस सब के अतिरिक्त फूलों के बीजों का उत्पादन भी कर सकते हैं जिसमें मुख्यतः गेंदा हो सकता है। किसान ऐसे क्षेत्रों में मुख्यतः कट पुष्प जैसे रजनीगंधा, गुलदाऊदी, लिलियन, ग्लोडियोलस इत्यादि का उत्पादन करके निकट शहरों में उपलब्ध बाजारों में बेचकर अधिक लाभ कमा सकते हैं।
विकल्प –2 : सब्जी बीज उत्पादन
यदि किसान ऐसे स्थानों पर सब्जियों के स्थान पर सब्जी बीज उत्पादन करते हैं तो इसका जन स्वास्थ्य पर भी विपरीत असर नहीं पडेग़ा तथा साथ ही साथ ताजी सब्जी उत्पादन के मुकाबले बीज उत्पादन द्वारा अधिक लाभ कमा सकते हैं, लेकिन इसके लिये उन्हें तकनीकी जानकारी होना आवश्यक है कि कौन-सी सब्जियाँ का कब और कैसे बीज उत्पादन करना है। लेकिन ऐसे क्षेत्रों में सब्जी बीज उत्पादन की अपार संभावनाएँ है जिन्हें निश्चित तौर पर किसान अपना सकते हैं।
विकल्प-3 : सजावटी पौधों व फूलों का पौध उत्पादन
ऐसे क्षेत्रों में सब्जी उत्पादन करने वाले किसान सब्जी उत्पादन को छोड़कर सजावटी पौधों, बोगेनविलिया, हेज तथा फूल वाले पौधों व एक वर्षीय पुष्पों की पौध तैयार कर उन्हें आसानी से बडे़ शहरों में बेचकर अधिक लाभ कमा सकते हैं। आज बडे़ शहरों में इस प्रकार के पौधों व पुष्पो की पौध भाग दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। अतः इनका उत्पादन इस प्रकार के क्षेत्रों में सब्जी उत्पादन का तीसरा विकल्प हो सकता है। पौध लगाने में कुछ नइ्र तकनीक व सामग्री का इस्तेमाल करने पर बेहतर उपज प्राप्त होगी जैसे प्रो-ट्रेज, नेट इत्यादि का उपयोग।
सारांश
बडे़ शहरों के उपभोक्ताओं की मांग को ध्यान में रखते हुए अम समय आ गया है कि शहरी क्षेत्रों में उच्च गुणवत्ता वाली सब्जियों का उत्पादन किया जाये जिसके लिए संरक्षित कृषि एक कारगर व आकर्षक विकल्प है। संरक्षित खेती द्वारा इन क्षेत्रों में खेती करने वाले जिसके किसान उच्च गुणवत्ता वाली सब्जियों को लम्बी अवधि तक उगाकर तथा सब्जियों, फूलों तथा स्ट्राबेरी जैसे फूलों की बेमौसमी खेती करके बडे़ शहरों में उपलब्ध उच्च बाजारों से अघिक लाभ कमा सकते हैं।
स्त्रोत: कृषि विभाग, झारखण्ड सरकार; ज़ेवियर समाज सेवा संस्थान
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