भूमिका
उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश व बिहार में मुखय रूप से मसूर की खेती की जाती है। इसके अलावा बिहार के ताल क्षेत्रों में भी मसूर की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है। चना तथा मटर की अपेक्षा मसूर कम तापक्रम, सूखा एवं नमी के प्रति अधिक सहनशील है।दलहनी वर्ग में मसूर सबसे प्राचीनतम एवं महत्वपूर्ण फसल है । प्रचलित दालों में सर्वाधिक पौष्टिक होने के साथ-साथ इस दाल को खाने से पेट के विकार समाप्त हो जाते है यानि सेहत के लिए फायदेमंद है । मसूर के 100 ग्राम दाने में औसतन 25 ग्राम प्रोटीन, 1.3 ग्राम वसा, 60.8 ग्रा. कार्बोहाइड्रेट, 3.2 ग्रा. रेशा, 68 मिग्रा. कैल्शियम, 7 मिग्रा. लोहा, 0.21 मिग्रा राइबोफ्लोविन, 0.51 मिग्रा. थाइमिन तथा 4.8 मिग्रा. नियासिन पाया जाता है अर्थात मानव जीवन के लिए आवश्यक बहुत से खनिज लवण और विटामिन्स से यह परिपूर्ण दाल है । रोगियों के लिए मसूर की दाल अत्यन्त लाभप्रद मानी जाती है क्योकि यह अत्यंत पाचक है। दाल के अलावा मसूर का उपयोग विविध नमकीन और मिठाईयाँ बनाने में भी किया जाता है। इसका हरा व सूखा चारा जानवरों के लिए स्वादिष्ट व पौष्टिक होता है। दलहनी फसल होने के कारण इसकी जड़ों में गाँठे पाई जाती हैं, जिनमें उपस्थित सूक्ष्म जीवाणु वायुमण्डल की स्वतन्त्र नाइट्रोजन का स्थिरीकरण भूमि में करते है जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है । अतः फसल चक्र में इसे शामिल करने से दूसरी फसलों के पोषक तत्वों की भी कुछ प्रतिपूर्ति करती है ।इसके अलावा भूमि क्षरण को रोकने के लिए मसूर को आवरण फसल के रूप में भी उगाया जाता है।मसूर की खेती कम वर्षा और विपरीत परस्थितिओं वाली जलवायु में भी सफलतापूर्वक की जा सकती है।
उन्नतशील प्रजातियॉं
- छोटे दाने वाली प्रजातियॉं:
पन्त मसूर-4, पूसा वैभव, पन्त मसूर-406, पन्त मसूर-639, डी0पी0एल0-32, पी0एल0-5
- बड़े दाने वाली प्रजातियॉं:
डी0पी0एल0-15 डी0पी0एल0-62 (एक्सटा्र बोल्ड)ए के0-75 (मलका)ए नरेन्द्र मसूर-1 (मीडियम बोल्ड)ए जे0एल0-3, एल0-4076, एल0एच0 84-8, आई0पी0एल0-81
राज्यवार प्रमुख प्रजातियों की अग्रिम पंक्ति प्रदर्शन के अन्तर्गत पैदावार निम्न तालिका में दर्शायी गयी है-
राज्य | प्रजाति |
उपज कि0ग्रा0/है0 |
%वृद्धि |
||
उन्नत |
लोकल |
उन्नत |
लोकल |
||
दिल्ली |
एल0-4076 शिवालिक एल0-4147 (पूसा वैभव) |
लोकल लोकल |
1537 1318 |
995 932 |
54.5 41.4 |
बिहार |
पन्त मसूर-406 अरूण |
लोकल लोकल |
1720 1683 |
1150 1156 |
49.6 46.3 |
मध्य प्रदेश |
जे0एल0एस0-1 आई0एल0-1 |
लोकल लोकल |
850 989 |
610 765 |
39.3 29.3 |
मसूर की प्रमुख उन्नत किस्मों की विशेषताएं
नरेन्द्र मसूर-1 (एनएफएल-92): यह किस्म 120 से 130 दिन में तैयार होकर 15-20 क्विंटल उपज देती है । रस्ट रोग प्रतिरोधी तथा उकठा रोग सहनशील किस्म है ।
पूसा – 1: यह किस्म जल्दी पकने (100 – 110 दिन) वाली है। इसकी औसत उपज 18 – 20क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। 100 दानो का वजन 2.0 ग्राम है। यह जाति सम्पूर्ण म. प्र. के लिए उपयुक्त है।
पन्त एल-406:यह किस्म लगभग 150 दिन में तैयार होती है जिसकी उपज क्षमता 30-32क्विंटल प्रति हैक्टर है ।रस्ट रोग प्रतिरोधी किस्म उत्तर, पूर्व एवं पस्चिम के मैदानी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त पाई गई है ।
टाइप – 36: यह किस्म 130 – 140 दिन में पककर तैयार हो जाती है। औसत उपज 20 से 22क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। इसके 100 दानो का वजन 1.7 ग्राम है। यह किस्म केवल सतपुड़ा क्षेत्र को छोड़कर सम्पूर्ण मध्यप्रदेश के लिए उपयुक्त है।
बी. 77: यह किस्म 115 – 120 दिन में पककर तैयार हो जाती है एवं औसत उपज 18 – 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर आती है। इसके 100 दानों का वजन 2.5 ग्राम है। यह किस्म सतपुड़ा क्षेत्र (सिवनी, मण्डला एवं बैतुल) के लिए उपयुक्त है।
एल. 9-12: यह किस्म देर से पकने (135 – 140 दिन) वाली है। इसकी औसत उपज 18 – 20क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। 100 दानों का वजन 1.7 ग्राम है। यह किस्म ग्वालियर, मुरैना तथा भिंड क्षेत्र के लिये उपयुक्त है।
जे. एल. एस.-1: यह बड़े दानो वाली जाति है तथा 120 दिन में पककर तैयार हो जाती है । औसतन उपज 20 – 22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। इसके 100 दानों का वजन 3.1 ग्राम है। यह किस्म सीहोर, विदिशा, सागर, दमोह एवं रायसेन जिले तथा सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त है।
जे. एल. एस.-2: यह किस्म 100 दिन मे पककर तैयार होती है एवं औसतन उपज 20 – 22क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। इसका दानला बहुत बड़ा है। 100 दानों का वजन 3.1 ग्राम है। यह म. प्र. के सीहोर, विदिशा, सागर, दमोह एवं रायसेन जिलों तथा सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त है।
नूरी (आईपीएल-81): यह अर्द्ध फैलने वाली तथा शीघ्र पकने (110 – 120 दिन) वाली किस्म है। इसकी औसत उपज 12 – 15क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। 100 दानों का वजन 2.7 ग्राम है। यह किस्म छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्र तथा सम्पूर्ण म. प्र. के लिए उपयुक्त है।
जे. एल. – 3: यह 100 – 110 दिनों में पककर तैयार होने वाली किस्म है जो 12 – 15क्विंटल औसत उत्पादन देती है। यह बड़े दानो वाली (2.7 ग्रा/100 बीज) एवं उकठा निरोधी जाति है। मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त है।
मलिका (के -75): यह 120 – 125 दिनों मे पकने वाली उकठा निरोधी किस्म है। बीज गुलाबी रंग के बड़े आकार (100 बीजों का भार 2.6 ग्राम) के होते है। औसतन 12 – 15क्विंटल /हे. तक पैदावार देती है। छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त है।
सीहोर 74-3: मध्य क्षेत्रों के लिए उपयुक्त यह किस्म 120-125 दिन में तैयार ह¨कर 10-15क्विंटल उपज देती है । इसका दाना बड़ा ह¨ता है तथा 100 दानों का भार 2.8 ग्राम होता है ।
सपनाः यह किस्म 135-140 दिन में तैयार होती है तथा औसतन 21क्विंटल उपज देती है । उत्तर पश्चिम क्षेत्रों के लिए उपयुक्त पाई गई है । दाने बड़े होते है । रस्ट रोग प्रतिरोधी किस्म है ।
पन्त एल-234: यह किस्म 130-150 दिन में तैयार होती है तथा औसतन उपज क्षमता 15-20 क्विंटल प्रति हैक्टर है । उकठा व रस्ट रोग प्रतिरोधी पाई गई है ।
बीआर-25: यह किस्म 125-130 दिन में पकती है जिसकी उपज क्षमता 15-20क्विंटल प्रति हैक्टर ह¨ती है । बिहार व मध्य प्रदेश के लिए उपयुक्त पाई गई है ।
पन्त एल-639: भारत के सभी मैदानी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त यह किस्म 130-140 दिन में पककर तैयार ह¨ती है । इसकी उपज क्षमता 18-20 क्विंटल प्रति हैक्टर होती है । रस्ट व उकठा रोग प्रतिरोधी किस्म है जिसके दाने कम झड़ते है ।
खेत की तैयारी
एक दो जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें। मृदा नमी संरक्षण एवं भूमि समतलीकरण हेतु प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य लगाएं। तत्पश्चात एक जुताई हैरो या देशी हल से करें।
बुआई का समय
20 अक्तूबर से 15 नवम्बर
बीजदर
30-45 कि0ग्रा0 प्रति है0 (छोटे दानों वाली प्रजातियों के लिए)
45-60 कि0ग्रा0 प्रति है0 (बड़े दानों वाली प्रजातियों के लिए)
60-80 कि0ग्रा0 प्रति हे0 (ताल क्षेत्र के लिए)
बीजशोधन/बीजोपचार
बीज जनित फफॅूंदी रोगो से बचाव के लिए थीरम़ एवं कार्वेन्डाजिम (2:1) से 3 ग्राम प्रति कि0ग्रा0 बीज की दर से उपचारित कर लेना चाहिए। तत्पश्चात कीटों से बचाव के लिए बीजों को क्लोरोपाइरीफास 20 ई0सी0, 8 मि0ली0 प्रति कि0ग्रा0 बीज की दर से उपचारित कर लें।
नये क्षेत्रों में बुआई करने पर बीज को राइजोबियम के प्रभावशाली स्ट्रेन से उपचारित करने पर 10 से 15 प्रतिशत की उपज वृद्धि होती है। 10 कि0ग्रा0 मसूर के बीज के लिए राइजोबियम कल्चर का एक पैकेट पर्याप्त होता है। 50 ग्रा0 गुड़ या चीनी को 1/2 ली0 पानी में घोलकर उबाल लें। घोल के ठंडा होने पर उसमें राइजोबियम कल्चर मिला दें। इस कल्चर में 10 कि0ग्रा0 बीज डाल कर अच्छी प्रकार मिला लें ताकि प्रत्येक बीज पर कल्चर का लेप चिपक जायें। उपचारित बीजों को छाया में सुखा कर, दूसरे दिन बोया जा सकता है। उपचारित बीज को कभी भी धूप में न सुखायें, व बीज उपचार दोपहर के बाद करें। राइजोबियम कल्चर न मिलने की स्थिति में उस खेत से जहॉं पिछले वर्ष मसूर की खेती की गयी हो 100 से 200 किग्रा0 मिट्टी खुरचकर बुआई के पूर्व खेत में मिला देने से राइजोबियम वैक्टिीरिया खेत में प्रवेश कर जाता है और अधिक वातावरणीय नत्रजन का स्थरीकरण होने से उपज में आशातीत वृद्धि होती है।ताल क्षेत्र में राइजोबियम उपचार की आवश्यकता कम रहती है।
बुआई की विधि
बुआई देशी हल/सीड डि्रल से पंक्तियों में करें। सामान्य दशा में पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 से0मी0 व देर से बुआई की स्थिति में पंक्ति से पंक्ति की दूरी 20 से0मी0 ही रखें। उतेरा विधि से बोआई करने हेतु कटाई से पूर्व ही धान की खड़ी फसल में अन्तिम सिंचाई के बाद बीज छिटक कर बुआई कर देते है। इस विधि में खेत तैयार करने की आवश्यकता नहीं होती, किन्तु अच्छी उपज लेने के लिए सामान्य बुआई की अपेक्षा 1.5 गुना अधिक बीज दर का प्रयोग करना चाहिए। ताल क्षेत्र में वर्षा का पानी हटने के बाद, सीधे हल से बीज नाली बना कर बुआई की जा सकती है। गीली मिट्टी वाले क्षेत्रों में जहॉं हल चलाना संभव न हो बीज छींट कर बुआई कर सकते हैं। मसूर की बुआई हल के पीछे पंक्तियों में ही करना चाहिए।
उर्वरक
मृदा परीक्षण के आधार पर समस्त उर्वरक अन्तिम जुताई के समय हल के पीछे कूड़ में बीज की सतह से 2 से0मी0 गहराई व 5 से0मी0 साइड में देना सर्वोत्तम रहता है। सामान्यतयः मसूर की फसल को प्रति हैक्टेयर 15-20 कि0ग्रा0 नाइट्रोजन, 50 कि0ग्रा0 फास्फोरस, 20 कि0ग्रा0 पोटाश एवं 20 कि0ग्रा0 गंधक की आवश्यकता होती है। जिन क्षेत्रों में जस्ता की कमी हो वहॉं पर प्रति हैक्टर 15-20 कि0ग्रा0 जिन्क सल्फेट प्रयोग करें। नाइट्रोजन एवं फासफोरस की समस्त भूमियों में आवश्यकता होती है। किन्तु पोटाश एवं जिंक का प्रयोग मृदा पीरक्षण उपरान्त खेत में कमी होने पर ही करें। नत्रजन एवं फासफोरस की संयुक्त रूप से पूर्ति हेतु 100 कि0ग्रा0 डाइ अमोनियम फासफेट एवं गंधक की पूर्ति हेतु 100 कि0ग्रा0 जिप्सम प्रति हे0 का प्रयोग करने पर उत्तम परिणाम प्राप्त होते हैं।
अन्तर्वर्ती खेती
सरसों की 6 पंक्तियों के साथ मसूर की दो पंक्तियॉं व अलसी की 2 पंक्तियों के साथ मसूर की
एक पंक्ति बोने पर विशेष लाभ कमाया जा सकता है।
सिंचाई
ताल क्षेत्रों के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में वर्षा न होने पर अधिक उपज लेने के लिए बुआई के 40-45 दिन बाद व फली में दाना पड़ते समय सिंचाई करना लाभप्रद रहता है।
खरपतवार नियंत्रण
बुआई के तुरन्त बाद खरपतवारनाशी रसायन पेन्डीमेथलीन 30 ई0सी0 का 3-4 ली0 प्रति हे0 की दर से छिड़काव किया जाना चाहिए। किन्तु यदि पूर्व में खेत में गम्भीर समस्या नहीं रही हो तो बुआई से
25-30 दिन बाद एक निकाई करना पर्याप्त रहता है।
कीट एवं रोग नियंत्रण
- कटुआ
इस कीट का आक्रमण होने पर प्रभावित क्षेत्रों में क्लोरोपाइरीफास 1.5 प्रतिशत 20-25 कि0ग्रा0/हे0
धूल मिट्टी में मिला दें ताकि गिडार नद्गट हो जाए।
- माहू (एफिड)
इस कीट से बचाव के लिए प्रकोप आरम्भ होते हैं। 0.04 प्रतिशत मोनोक्रोटोफास का छिड़काव करें।
- रतुआ (रस्ट)
मसूर फसल को इस रोग से अत्यधिक नुकसान होता है पछेती फसल में इसका प्रकोप ज्यादा होता है।
- समय से बुआई करें।
- रोगरोधी प्रजातियॉं जैसे पन्त मसूर-4, पन्त मसूर-639 आदि का चुनाव करें।
- बचाव के लिए फसल पर मैंकोजेब 45 डबलू0पी0 कवकनाशी का 0.2 प्रतिशत घोल बनाकर 10-12 दिन के अन्तर पर दो बार छिड़काव करें।
कटाई एवं मड़ाई
जब 70-80 प्रतिशत फलियॉं पक जाएं, हंसिया से कटाई आरम्भ कर देना चाहिए। तत्पश्चात
वण्डल बनाकर फसल को खलिहान में ले आते हैं। 3-4 दिन सुखाने के पश्चात बैलों की दायें चलाकर या थ्रेसर द्वारा भूसा से दाना अलग कर लेते हैं।
उन्नत सस्य विधियों एवं नवीन प्रजातियों की सहायता से प्रति हैक्टेयर 15-20 कुन्तल तक उपज प्राप्त की जा सकती है।
भण्डारण
भण्डारण के समय दानों में नमी का प्रतिशत 10 से अधिक नहीं होना चाहिए। भण्डार गृह में 2 गोली अल्युमिनियम फास्फाइड/टन रखने से भण्डार कीटों से सुरक्षा मिलती है। भण्डारण के दौरान मसूर को अधिक नमी से बचाना चाहिए।
आइसोपाम सुविधा
तिलहन, दलहन, आयलपाम तथा मक्का पर एकीकृत योजना के अन्तर्गत देश में मसूर उत्पादन को बढ़ावा देने हेतु उपलब्ध सुविधायें :-
- बीज मिनीकिट कार्यक्रम के अन्तर्गत खण्ड (ब्लाक) के प्रसार कार्यकर्ताओं द्वारा चयनित कृषकों को आधा एकड़ खेत हेतु नवीन एवं उन्नत प्रजाति का सीड मिनीकिट (4 कि0ग्रा0/मिनीकिट) राइजोवियम कल्चर एवं उत्पादन की उन्नत विधि पर पम्पलेट सहित निःशुल्क उपलब्ध कराया जाता है।
- ‘बीज ग्राम योजना’ अन्तर्गत चयनित कृषकों को विशेषज्ञों द्वारा प्रशिक्षण एवं रू0 375/- प्रति कुंटल की आर्थिक सहायता प्रदान की जाती है।
- यदि एकीकृत पेस्ट नियंत्रण प्रभावशाली न हो, तभी पादप सुरक्षा रसायनों एवं खरपतवारनाशी के प्रयोग पर प्रयुक्त रसायन की लागत का 50: जो कि रू0 500/- से अधिक नहीं हो की सहायता प्रदान की जाती है।
- पादप सुरक्षा यंत्रों की खरीद में मदद हेतु लागत का 50: की सहायता उपलब्ध है। (अधिकतम व्यक्ति संचालित यन्त्र रू0 800/-, शक्ति चालित यन्त्र रू0 2000/-)।
- कम समय में अधिक क्षेत्रफल में उन्नत विधि से समय से बोआई तथा अन्य सस्य क्रियाओं हेतु आधुनिक फार्म यन्त्रों को उचित मूल्य पर कृषकों को उपलब्ध कराने हेतु राज्य सरकार को व्यक्ति/पशुचालित यन्त्रों पर कुल कीमत का 50%(अधिकतम रू.2000/-) एवं शक्ति चालित यन्त्रों पर कुल कीमत का 30%(अधिकतम रू.10000/-) की सहायता उपलब्ध कराई जाती है।
- जीवन रक्षक सिंचाई उपलब्ध कराने तथा पानी के अधिकतम आर्थिक उपयोग हेतु स्प्रिंकलर सेट्स के प्रयोग को प्रोत्साहन के लिए छोटे सीमान्त एवं महिला कृषकों को मूल्य का 50 प्रतिशत या रू0 15000/- (जो भी कम हो) तथा अन्य कृषकों को मूल्य का 33 प्रतिशत या रू0 10000/- (जो भी कम हो) की सहायता उपलब्ध है। किन्तु राज्य सरकार अधिकतम कृषकों तक परियोजना का लाभ पहुँचाने हेतु दी जाने वाली सहायता में कमी कर सकती है।
- राइजोबियम कल्चर तथा/या पी0एस0बी0 के प्रयोग को प्रोत्साहन हेतु वास्तविक लागत की 50 प्रतिशत (अधिकतम रू0 50/प्रति हे0 की आर्थिक मदद उपलब्ध है)।
- कृषकों को सूक्ष्म तत्वों की पूर्ति सुनिश्चित करने हेतु लागत का 50 प्रतिशत (अधिकतम रू0 200/-की आर्थिक मदद उपलब्ध है)
- गन्धक के श्रोत के रूप में जिप्सम/पाइराइट के प्रयोग को प्रोत्साहन हेतु लागत का 50 प्रतिशत तथा यातायात शुल्क जो कि महाराष्ट्र राज्य को रू0 750/- तथा अन्य राज्यों को रू0 500/- से अधिक न हो की सहायता उपलब्ध है।
- सहकारी एवं क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों द्वारा नाबार्ड के निर्देशानुसार दलहन उत्पादक कृषकों को विशेष ऋण सुविधा उपलब्ध करायी जाती है।
- कृषकों तक उन्नत तकनीकी के शीघ्र एवं प्रभावी स्थानान्तरण हेतु अग्रिम पंक्ति प्रदर्शन आयोजित करने के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद एवं अन्य शोध संस्थाओं को प्रदर्शन की वास्तविक लागत या रू0 2000/एकड़/प्रदर्शन (जो भी कम हो)ए तथा खण्ड प्रदर्शन आयोजित करने के लिए राज्य सरकार को उत्पादन के आगातों का 50 प्रतिशत तथा वास्तविक मूल्य के आधार पर रू0 2000/हे0 की सहायता प्रदान की जाती है।
- कृषकों को प्रशिक्षण उपलब्ध कराने हेतु प्रति 50 कृषकों के समूह पर कृषि विज्ञान केन्द्रों एवं कृषि विश्वविद्यालयों को रू0 15000/- की सहायता प्रदान की जाती है।
स्रोत: राज्य व भारत सरकार का कृषि विभाग, कृषिदर्शिका,कृषि गुरु|
मसूर में उर्वरक प्रबंधन जाने अधिक, इस विडियो को देखकर