एनसीआरबी के पिछले पांच सालों के आंकड़ों के मुताबिक 2009 में 17 हजार, 2010 में 15 हजार, 2011 में 14 हजार, 2012 में 13 हजार और 2013 में 11 हजार से ज्यादा किसानों ने खेती से जुड़ी तमाम परेशानियों समेत अन्य कारणों से आत्महत्या कर ली।
विशेषज्ञों के मुताबिक, कृषि क्षेत्र की बदहाली का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले दो दशकों में भारी संख्या में किसान आत्महत्या कर चुके हैं और ज्यादातर आत्महत्याओं का कारण कर्ज है, जिसे चुका पाने में किसान असमर्थ हैं, जबकि 2007 से 2012 के बीच करीब 3.2 करोड़ गांव वाले खासकर किसान शहरों की ओर पलायन कर गए हैं। इनमें से काफी लोग अपनी जमीन और घर-बार बेच कर शहरों में आ गए।
चिंतक के एन गोविंदाचार्य ने कहा कि गांव और किसानों की स्थिति आज बेहद खराब है। पंचायती राज व्यवस्था के इतने साल बीत जाने के बाद भी लोग गांव से पलायन करने को मजबूर हैं। खेती के प्रति रूझान लगातार कम हो रहा है। उन्होंने कहा कि इसका कारण पंचायतों का वित्तीय रूप से आत्मनिर्भर नहीं होना है। ऐसे में केंद्रीय बजट का सात फीसद सीधे गांव को दिया जाए ताकि गांव में संसाधन विकसित किए जा सकें।
गांव से पलायन करने के बाद किसानों और खेतीहर मजदूरों की स्थिति यह है कि कोई हुनर न होने के कारण उनमें से ज्यादातर को निर्माण क्षेत्र में मजदूरी या दिहाड़ी करनी पड़ती है। 2011 की जनगणना के मुताबिक हर रोज ढाई हजार किसान खेती छोड़ रहे हैं। भारी संख्या में गांव से लोगों का पलायन हो रहा है जिसमें से ज्यादातर किसान हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के पिछले पांच सालों के आंकड़ों के मुताबिक 2009 में 17 हजार, 2010 में 15 हजार, 2011 में 14 हजार, 2012 में 13 हजार और 2013 में 11 हजार से ज्यादा किसानों ने खेती से जुड़ी तमाम परेशानियों समेत अन्य कारणों से आत्महत्या कर ली। महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में किसानों की आत्महत्या की दर सबसे ज्यादा रही है। देश में 640 में से 340 जिलों में मानसून की बारिश में 20 फीसद तक कमी दर्ज की गई है। आज भी सिंचाई के लिए ज्यादातर किसान प्रकृति पर निर्भर हैं। बेमौसम बरसात, ओलावृष्टि के कारण भारी मात्रा में हर साल फसलों की बर्बादी होती है।
पटनायक ने कहा कि इन सब के बीच किसान सरकारी सहायता को लेकर केंद्र और राज्य के बीच झूलता नजर आता है। ऐसी बात नहीं है कि यह समस्या आज पैदा हुई है। ढाई दशक पहले कृषि को जब बाजारवाद के आसरे छोड़ने का निर्णय किया गया, समस्या वहीं से विकट होती गई। किसानों के लिए संकट की बात यह है कि पूरी दुनिया में अनाज के भाव कम हुए हैं, ऐसे में पैदावार घटने के बावजूद भारत में फसल के दाम बढ़ने की उम्मीद नहीं है। अगर उत्पादन घटेगा तो किसानों को आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ेगा और यह किसान की समस्याओं को और बढ़ा सकता है।
बुंदेलखंड विकास आंदोलन के आशीष सागर ने कहा कि खेती का खर्च बढ़ा है लेकिन किसानों की आमदनी कम हुई है जिससे किसान आर्थिक तंगहाली से गुजर रहे हैं। किसानों की आय राष्ट्रीय औसत से काफी कम है। ऐसे में भी किसान सरकार से किसी वेतनमान की मांग नहीं कर रहा है बल्कि वह अपनी फसलों के लिए उचित न्यूनतम समर्थन मूल्य मांग रहा है ताकि देश के लोगों के साथ अपने पेट भी ठीक से भर सके।
उन्होंने कहा, ‘कुल मिला कर देश एक बड़े संकट की तरफ बढ़ रहा है जहां कोई खेती नहीं करना चाहता लेकिन भोजन सभी को चाहिए। इस मुद्दे पर समय रहते केंद्र और राज्य सरकारों को संजीदा होना होगा और इस पर व्यावहारिक रणनीति बनानी होगी।’
विशेषज्ञों का कहना है कि आने वाले दशकों में खाद्यान्न जरूरतों में वृद्धि के चलते वैकल्पिक खाद्य वस्तुओं, मसलन डेयरी उत्पादों, मत्स्य और पोल्ट्री उत्पादों के विकल्पों पर भी ध्यान देने की जरूरत है क्योंकि खेती के समानांतर रोजगार के नए विकल्पों की जरूरत महसूस की जा रही है। जब औद्योगिक उत्पादन लगातार उतार चढ़ाव झेल रहा है, ऐसे में अर्थव्यवस्था को आधार प्रदान करने वाले कृषि क्षेत्र के लिए मौसम की बेरूखी के कारण खाद्यान्न उत्पादन में कमी की आशंका संकट की स्थिति का संकेत दे रही है। सागर ने कहा कि सवाल यह है कि आने वाले बजट में गांव और किसानों को मजबूत बनाने के लिए सरकार के पास क्या है?
Hindi News के लिए हमारे साथ फेसबुक, ट्विटर, लिंक्डइन, टेलीग्राम पर जुड़ें और डाउनलोड करें Hindi News App। Online game में रुचि है तो यहां क्लिक कर सकते हैं।
This post come from this Source