परिचय
अश्वगंधा आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में प्रयोग किया जाने वाला एक महत्वपूर्ण पौधा है। इसके साथ-साथ इसे नकदी फसल के रूप में भी उगाया जाता है। भारत में इसकी खेती 1500 मीटर की ऊँचाई तक के सभी क्षेत्रों में की जा रही है। भारत के पश्चिमोत्तर भाग राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, पंजाब, गुजरात, उ0प्र0 एंव हिमाचल प्रदेश आदि प्रदेशों में अश्वगंधा की खेती की जा रही है। राजस्थान और मध्य प्रदेश में अश्वगंधा की खेती बड़े स्तर पर की जा रही है। इन्हीं क्षेत्रों से पूरे देश में अश्वगंधा की माँग को पूरा किया जा रहा है। अश्वगंधा एक द्विबीज पत्रीय पौधा है।
ये पौधे सीधे, अत्यन्त शाखित, सदाबहार तथा झाड़ीनुमा 1.25 मीटर लम्बे पौधे होते हैं। पत्तियाँ रोमयुक्त, अण्डाकार होती हैं। फूल हरे, पीले तथा छोटे एंव पाँच के समूह में लगे हुये होते हैं। इसका फल बेरी जो कि मटर के समान दूध युक्त होता है। जो कि पकने पर लाल रंग का होता है। जड़े 30-45 सेमी लम्बी 2.5-3.5 सेमी मोटी मूली की तरह होती हैं। इनकी जड़ों का बाह्य रंग भूरा तथा यह अन्दर से सफेद होती हैं। अश्वगंधा को जीणोद्धारक औषधि के रूप में जाना जाता है। इसमें एण्टी टयूमर एंव एण्टी वायोटिक गुण भी पाया जाता है।
पौधे की जानकारी
- उपयोग
जड़ों का उपयोग गठिया, अपच, त्वचा रोग, ब्रोकाइटिस, अल्सर, और यौन दुर्बलता के इलाज में किया जाता है।
सर्पदंश में भी जड़ो का उपयोग किया जाता है।
बुखार के लिए पत्तियों का अर्क दिया जाता है।
बवासीर के उपचार के लिए पत्तियो का काढ़ा आंतरिक और बाहरी रूप से उपयोग किया जाता है।
पत्तियों का उपयोग आँख, फोड़े, हाथ और पैर की सूजन के लिए किया जाता है।
छाल का काढ़ा अस्थमा रोग में दिया जाता है।
शरीर के जूँ मारने के लिए एक कीटनाशक के रूप में उपयोगी होता है।
स्त्रियों के बाँझपन को दूर करने के लिए इसके काढ़े को दूध के साथ दिया जाता है।
- उपयोगी भाग
संपूर्ण पौधा
- उत्पादन क्षमता
300 से 500 कि.ग्रा./हेक्टेयर सूखी जड़े और 50 से 75 कि.ग्रा./ हेक्टेयर बीज
उत्पति और वितरण
यह मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ के जंगलो में, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, पाश्चिमी उत्तरप्रदेश, कर्नाटक और हिमालय में पाया जाता है। मध्यप्रदेश में मनासा, नीमच और मंदसौर की जवाद तहसील में पाया जाता है।
वितरण : अश्वगंधा भारत की एक महत्तवपूर्ण खेती की जानी वाली औषधी है। इसे हिन्दी में असगंध भी कहा जाता है। इसे अंग्रेजी में विन्टर चेरी के नाम से जाना जाता है। प्राचीन आयुर्वेदिक साहित्य मे इसका एक महत्तवपूर्ण दवा के रुप में उल्लेख किया गया है।
आकृति विज्ञान, बाह्रय स्वरूप
- स्वरूप
यह एक सीधा, रोयेंदार और सदाबहार पौधा है।
पौधे के सभी भाग श्वेताभ होते है।
- पत्तिंया
पत्तियाँ अण्डाकार, पूर्ण और पतली होती है।
फूल उभयलिंगी और हरे या अंधकारमय पीले रंग के होते है।
फूल जुलाई से सितम्बर माह में आते हैं।
फल बेरी के रूप में, 7 मिमी के, लाल, गोलाकार और चिकने होते है।
फल पकने पर नारंगी लाल – रंग के हो जाते है।
फल दिसंबर माह में आते है।
इसके बी़ज पीले रंग के होते है।
- परिपक्व ऊँचाई
यह पौधा लगभग 13-15 से.मी. तक की ऊँचाई तक बढ़ता है।
किस्में/संकर
- किस्म
नाम : जवाहर असगंध – २०
- विशेषताएँ
यह जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविघालय के क्षेत्रीय कृषि अनुंसधान केन्द्र मन्दसौर में विकसित की गई है। इस किस्म की उपज उच्चतम होती है।
बुवाई का समय
- जलवायु
यह समशीतोष्ण जलवायु की फसल है।
बारिश के महीने के अंतिम दिनों में इसे बोया जाता है।
फसल के विकास के लिए शुष्क मौसम अच्छा रहता है।
जिन स्थान में वर्षा 660-750 मिमी की होती है वे स्थान फसल के विकास के लिए उपयुक्त होते है।
- भूमि
इसे रेतीली दोमट या हल्की लाल मिट्टी, जिसमें कार्बनिक पदार्थ के साथ अच्छी जल निकासी की व्यवस्था हो, में बोया जा सकता है।
मिट्टी का pH मान 7.5 से 8 तक होना चाहिए।
बुवाई-विधि
- भूमि की तैयारी
भूमि अप्रैल – मई के महीने में तैयार की जाती है।
बुवाई के पहिले एक गहरी जुताई की आवश्यकता होती है।
मिट्टी की उर्वरकता को बढ़ाने के लिए 2-3 बार हल से जुताई करना चाहिए।
क्यारियों के बीच 30-40 सेमी की दूरी रखना चाहिए।
- फसल पद्धति विवरण
बीजों को मुख्य खेत में सीधे बोया जाता है।
चूँकि यह फसल काफी हद तक वर्षा आधारित है इसलिए बुवाई मानसून से निर्धारित होती है।
बीजों को जुलाई माह के दूसरे सप्ताह मे बोया जाता है।
इस प्रकार की बुवाई में 10-12 कि.ग्रा./हेक्टयर बीज की आवश्यकता होती है।
पौधशाला प्रंबधन
- नर्सरी बिछौना-तैयारी
अच्छी तरह से व्यवस्थित नर्सरी को तैयार किया जाना चाहिए।
एक हेक्टेयर में लगभग 5 कि.ग्रा. बीज नर्सरी के लिए पर्याप्त होते हैं ।
नर्सरी को रोगो से बचाने के लिये बीजों को बुवाई से पहले डाइथेन M – 45 से उपचारित करना चाहिए।
बीजों को नर्सरी में कतारों में बोना चाहिए। कतारों से कतारों के बीच की दूरी 5 से.मी. होना चाहिए।
बुवाई के 6-7 दिनों के बाद अंकुरण प्रारंभ हो जाता है।
- रोपाई की विधि
जब अंकुरित पौधे 6 हफ्ते पुराने हो जाते है तब उन्हे अच्छी तरह तैयार भूमि में 60 से.मी. की दूरी में लगाना चाहिए। कतार से कतार की दूरी 60 लगभग से.मी. में होना चाहिए।
- रोग प्रबंधन
रोग : आल्टरनेरिया आल्टरनेटा (पर्ण अंगमारी)
- पहचान करना-लक्षण
यह रोग पौधे की संख्या अत्यधिक कम कर देता है और अंतत: उपज कम प्राप्त होती है।
- नियंत्रण
बोने के पहले बीजों को केप्टन 3 ग्रा/कि.ग्रा. की दर से उपचारित करके इस रोग को नियंत्रित किया जा सकता है।
जब फसल 30 दिनों पुरानी हो जाये तब डाइथेन M – 45 3 ग्रा/ली पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए।
यदि रोग नियंत्रित नही होता है तो 7-10 दिनों के बाद छिड़काव पुन: किया जाना चाहिए।
उत्पादन प्रौद्योगिकी खेती
इसे भारी मात्रा में खाद की आवश्यकता नहीं होती है।
लगभग 2 टन वर्मी कमपोस्ट का उपयोग करना चाहिए।
फसल को ज्यादा उर्वरक की आवश्यकता भी नहीं होती है।
N, P और K को 8:24:16 के अनुपात में देकर फसल की वृध्दि को अच्छा किया जा सकता है।
- सिंचाई प्रबंधन
यदि वर्षा नियमित अंतराल से होती है तो सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है।
अंकुरण के 30-35 दिनों के बाद सिंचाई करना चाहिए।
अगली सिंचाई 60-70 दिनों के बाद करना चाहिए।
- घसपात नियंत्रण प्रबंधन
30 दिनों के अंतराल में हाथों से की गई निंदाई खरपतवार नियंत्रण के लिए प्रभावी होती है।
बोने के पहले आइसोप्रोट्यूरान 0.5 कि.ग्रा./हेक्टेयर और ग्लाइफोसेट 1.5 % कि.ग्रा./हेक्टेयर डालकर खरपतवार को नियंत्रित किया जा सकता है।
कटाई
- तुडाई, फसल कटाई का समय
कटाई जनवरी से प्रारंभ होती है जो मार्च तक चलती है।
फसल की परिपक्वता पत्तियों और फल (बेरी) के सूखने से अनुमानित की जाती है।
पौधे को उखाड़ने से पहले एक हल्की सिंचाई करना चाहिए।
संपूर्ण पौधे को उखाड़ा जाता है और जड़ों को शीर्ष से 1-2 से.मी. छोड़कर काटकर अलग कर लिया जाता है।
जड़ो को सुखाने के लिए 7-10 से.मी. लंबे के टुकड़ो में काटा जाता है।
सूखे पौधे से फलों (बेरी) को तोड़ा जाता है और बीज प्राप्ति के लिए गहाई की जाती है।
फसल काटने के बाद और मूल्य परिवर्धन
- सफाई
उखाड़ी गई जडों को मिट्टी और रेत से साफ किया जाता है।
जड़ो को चिपकी हुई मिट्टी और रेत से अलग करने के लिए छड़ी से पीटा जाता है।
मुख्य जड़ को अनुप्रस्थ टुकड़ो से काट लिया जाता है।
- सुखाना
साफ की गई जड़ो को नीचे जमीन में डालकर सुखाया जाता है।
संपूर्ण जड़ो को एक साथ सुखाया जाता है।
- श्रेणीकरण-छटाई
पूरे उत्पाद को सावधानी पूर्वक उनकी मोटाई और एकरूपता के आधार पर चार भागों में विभाजित किया जाता है। ए ग्रेड जड़ 7 से.मी. लंबाई की ठोस और 1.5 से.मी. व्यास की होती है जो भंगुर और अंदर चमकदार सफेद होती है। बी ग्रेड जड़ 5 से.मी. लंबाई की ठोस और 1 से.मी. से कम व्यास की होती है जो भंगुर और अंदर चमकदार सफेद होती है। सी ग्रेड जड़ 3-4 से.मी. लंबाई की ठोस और 1 से.मी. से कम व्यास की होती है। निम्न ग्रेड जड़ छोटे टुकड़ो में अर्ध ठोस, बहुत पतली और अंदर पीले रंग की होती है।
- पैकिंग
वायुरोधी थैले इसके लिए उपयुक्त होते है।
नमी के प्रवेश को रोकने के लिए अश्वगंधा को पालीथीन या नायलाँन बैग में पैक किया जाता है।
- भडांरण
जड़े शुष्क स्थानों में भंडारित की जानी चाहिए।
गोदाम भंडारण के लिए उपयुक्त होते हैं।
शीत भंडारण अच्छे नहीं होते हैं।
- परिवहन
सामान्यत: किसान अपने उत्पाद को बैलगाड़ी या टैक्टर से बाजार तक पहुँचता हैं।
दूरी अधिक होने पर उत्पाद को ट्रक या लाँरियो के द्वारा बाजार तक पहुँचाया जाता हैं।
परिवहन के दौरान चढ़ाते एवं उतारते समय पैकिंग अच्छी होने से फसल खराब नहीं होती हैं।
- अन्य-मूल्य परिवर्धन
अश्वगंधा चूर्ण
अश्वगंधा एक्सट्रेक
अश्वगंधा की गोलियाँ
स्त्रोत: ज़ेवियर समाज सेवा संस्थान, कृषि विभाग