
किसानों के लगभग हर समय संकट में फंसे होने का मूल कारण यही है कि खेती घाटे का धंधा बनती गई है। किसानों को अक्सर अपनी उपज का वाजिब दाम नहीं मिल पाता है।

एक अप्रैल से नई फसल बीमा योजना लागू करने की घोषणा सरकार पहले ही कर चुकी थी। इस मौके पर प्रधानमंत्री ने एक उसका भी जिक्र किया। फसल बीमा कोई नई चीज नहीं है। बरसों से यह जब-तब छोटे-मोटे हेरफेर के साथ चली आ रही है। मोदी सरकार का दावा है कि फसल बीमा की नई योजना लीक से हट कर है और यह किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला रोकने तथा कृषि को संकट से उबारने में एक निर्णायक कदम साबित होगी। इसमें दो राय नहीं कि नई फसल बीमा योजना में कई बातें अच्छी हैं। मसलन, प्रीमियम की दरें अपेक्षया कम होना तथा उसकी समान दरें होना। मगर यह कोई रामबाण नहीं है। नुकसान को साबित करने तथा अपने दावों का भुगतान पाने के लिए किसानों को दर-दर भटकना पड़ता है। यही कारण है कि कोई भी फसल बीमा योजना उनमें उत्साह नहीं जगा पाती। नई योजना में सबसिडी के तौर पर केंद्र और राज्य सरकारों पर पड़ने वाला बोझ जरूर बढ़ जाएगा, पर इसका लाभ किसानों को नहीं, कंपनियों को होगा। केंद्र सरकार किसानों के हितों को लेकर बहुत संवेदनशील है तो अपने एक अहम चुनावी वादे को पूरा क्यों नहीं करती? गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव के अपने घोषणापत्र में भारतीय जनता पार्टी ने वादा किया था कि अगर उसे केंद्र की सत्ता में आने का मौका मिला तो वह जल्दी ही स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करेगी, यह सुनिश्चित करेगी कि किसानों को उनकी पैदावार का लागत से डेढ़ गुना दाम मिले। भाजपा को केंद्र में आए इक्कीस महीने हो चुके हैं। स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें कब लागू होंगी?
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