पर्यावरणविदों के अनुसार कीटनाशकों से शोधित और छिड़काव किए टमाटर, बैंगन और सेब के खाने से किडनी, छाती, स्नायुतंत्र, पाचन अंग और मस्तिष्क पर बुरा असर पड़ने लगा है
जैसे-जैसे वैज्ञानिक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है और उत्पादन बढ़ रहा है वैसे-वैसे भंडारगृहों और खेतों में चूहों और अन्य कीट-पतंगों का प्रकोप भी बढ़ता जा रहा है। इससे हर साल ग्यारह हजार करोड़ रुपए के कृषि उत्पाद, फल और मेवे नष्ट हो जाते हैं। इतनी बड़ी मात्रा में कृषि उत्पादों की बर्बादी को रोकने के लिए बहुत बड़े पैमाने पर कीटनाशकों का इस्तेमाल भी लगातार बढ़ता ही जा रहा है। एक आंकड़े के मुताबिक 1950 में कृषि उत्पादों और अन्य उत्पादों को बचाने के लिए दो हजार टन टन कीटनाशकों का इस्तेमाल किया गया था, अब इसकी खपत बढ़कर 92 हजार टन हो गई है। यानी 60 सालों में 90 हजार टन कीटनाशकों का उपयोग बढ़ा है। अब तो शायद ही कोई ऐसी चीज हो जिसको सुरक्षित रखने के लिए कीटनाशकों का उपयोग न किया जाता हो। अपवाद के रूप में जैविक खेती के उत्पादों को छोड़ दिया जाय तो आज लगभग देश का सारा पर्यावरण कीटनाशकों के इस्तेमाल से जहरीला हो गया है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान(एम्स) के फार्माकोलॉजी विभाग के एक अध्ययन के अनुसार घरों में मच्छरों और कॉकरोचों को मारने के लिए छिड़के जाने वाले कीटनाशकों का चौदह साल से कम उम्र के बच्चों पर असर बहुत गहरे तक पड़ता है।
कहने का मतलब यह है कि घर में ही बच्चे जाने-अनजाने में कीटनाशकों की चपेट में आते जा रहे हैं। सबसे बड़ी विडंबना की बात यह है कि शिक्षित घरों में भी इसके प्रति कोई खास जागरूकता नहीं है। घरों में महंगे चमकीले सेब, केले, आम, बैंगन, भिंडी, लौकी, नेनुआ तक पर कीटनाशकों का इस्तेमाल- एक नहीं दो तीन स्तरीय होने लगा है। खेत में जहां इनकी फसल की वृद्धि को बढ़ाने के लिए किया जाता है वहीं पर रोगों से बचाव के लिए भी किया जाता है। फिर इन्हें चमकदार बनाने के लिए रसायन में इन्हें डुबोया जाता है। सोचा जा सकता है कि इन तीन स्तरों पर कीटनाशकों और रसायनों के इस्तेमाल से जीवन, पर्यावरण, जैव विविधता और जिस जमीन पर इन्हें उगाया जाता है, उन पर कितना असर पड़ता होगा?
एक आंकड़े के मुताबिक 2013-14 में देश के नब्बे लाख से अधिक हेक्टेअर जमीन में कीटनाशकों को छिड़काव के रूप में इस्तेमाल किया गया। उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, राजस्थान और महाराष्ट्र जैसे अनेक राज्यों में टमाटर की अनेक किस्मों की फसलें उगाई जाती हैं। इन किस्मों में रश्मि और रूपाली प्रमुख हैं। ये अच्छी फलत वाली भी हैं और खाने में इनका स्वाद भी अच्छा होता है। लेकिन इन पर हेल्योशिस आर्मिजरा नामक कीड़ा बहुत नुकसान पहुंचाता है। क्योंकि यह टमाटर में सुराख कर देता है। इस कीड़े की रोकथाम के लिए इस वक्त बाजार में कई तरह की कीड़ामार दवाएं मौजूद हैं जिसमें रेपलीन, चैलेंजर, रोगर हाल्ट प्रमुख हैं। इनका छिड़काव कई चरणों में किया किया जाता है।
आजकल, पश्चिम बंगाल, पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात और दक्षिण के राज्यों में कपास की फसल पर सफेद मक्खियों के लाइलाज हमले का मुख्य कारण इन पर किए जाने वाले रासायनिक कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग है। इससे जहां जमीन में जहर घुलता जा रहा है वहीं पर जीवन, पर्यावरण, जैविक विविधता को भी नुकसान हो रहा है। वैज्ञानिक शोधों से यह भी पता चला है कि कीटनाशकों के इस्तेमाल से खादान्नों, फलों और अन्य खाद्यों में पाए जाने वाले महत्त्वपूर्ण तत्त्वों पर भी असर पड़ रहा है। इनसे नई -नई बीमारियों का जन्म हो रहा है।
देश के कई शहरों जिसमें दिल्ली, आगरा, मथुरा और फरीदाबाद में पीने के पानी में डीटीटी और बीएसजी की मात्रा पाई गई है, क्योंकि इन शहरों में पानी की सप्लाई यमुना से की जाती है। महाराष्ट्र के बोतलबंद दूध के सत्तर नमूनों में डीडीटी और एल्ड्रिन की मात्रा 4.8 से 6.3 भाग प्रति दस लाख तक पाई जाती है। दिल्ली के पानी में भी डीडीटी की मात्रा पाई गई है। यमुना का दूषित पानी और रसायनों से दूषित आहार, इसकी खास वजह हैं।
एक नए शोध के मुताबिक जिन क्षेत्रों की फसलों में कीटनाशक दवाओं का प्रयोग अधिक किया जाता है, वहां पिछले पचास सालों में कई वनस्पतियां और कीट-पतंगें हमेशा के लिए खत्म हो गए हैं। कई ऐसे इलाके हैं जहां पर कीटनाशकों के गंध के कारण सारा वातावरण जहरीला बनता जा रहा है। कई इलाकों का पर्यावरण कीटनाशकों के कारण इतना दूषित हो गया है कि सांस, त्वचा, दिल और दिमाग संबंधी तमाम बीमारियां आमतौर पर होने लगी हैं। विषेशकर हरियाणा, पंजाब, कर्नाटक, महाराष्ट्र और दिल्ली में कई क्षेत्र पर्यावरण के नजरिए से पूरी तरह से खराब बताए जा रहे हैं।
पर्यावरणविदों के अनुसार कीटनाशकों से शोधित और छिड़काव किए टमाटर, बैंगन और सेब के खाने से किडनी, छाती, स्नायुतंत्र, पाचन अंग और मस्तिष्क पर बुरा असर पड़ने लगा है। अनुमान लगया जा सकता है कि हम कीटनाशकों के मकड़जाल में किस तरह फंसते जा रहे हैं। बच्चों के शारीरिक, मानसिक विकास में उनका कीटाणुयुक्त पानी और खराब भोजन बाधक बन रहे हैं। चिंता की बात यह है कि विज्ञापनों के मकड़जाल में किसान और उद्योग जगत ही नहीं उन परिवारों के लोग भी हैं जो स्वयं को तो वैज्ञानिक सोच का कहते हैं, लेकिन जब पानी और आहार की शुद्धता की बात आती है तो वे इस पर समझौता कर लेते हैं। स्थिति यह हो गई है कि परिवार के परिवार कीटनाशकों के असर के कारण कई गंभीर बीमारियों के चपेट में आ गए हैं। लोगों का तर्क यह है कि अगर सभी खाद्यों और पेयों में कीटनाशक इस्तेमाल किये जा रहे हैं तो वे स्वयं और अपने परिवार के लिए कहां से जैविक खाद्य उपलब्ध कराएं।
गौरतलब है कि अधिक महंगा जैविक खाद्य का अगर इस्तेमाल की कोशिश की जाए तो गरीब आदमी तो इसके इस्तेमाल के लिए सोच भी नहीं सकता। और इनकी उपलब्धता कम होने के कारण अमीर लोग भी कम ही इस्तेमाल करते हैं। अब समस्या यह है कि अगर कीटनाशकों का इस्तेमाल न करें तो फसलों और फलों के उत्पादन में फर्क पड़ता है और करें तो कई समस्याएं पैदा हो रही हैं। अब बीच का रास्ता क्या है?
वैज्ञानिकों के अनुसार देश में इसका समाधान जैविक खेती और जैविक बागवानी है। लेकिन इसे पूरे देश को अपनाने की जरूरत है। जब तक देश भर में जैविक खेती को वरीयता नहीं दी जाएगी तब तक कीटनाशकों से होने वाली समस्याओं से निजात नहीं पाया जा सकता है।
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