मौसम विभाग ने कहा है कि इस साल एक जून से तीस सितंबर तक औसतन एक सौ छह फीसद बारिश की संभावना है। इस पूर्वानुमान में जहां देश के ज्यादातर हिस्से के लिए खुशखबरी है
अफसोस की बात है कि इस चुनौती की तरफ से केंद्र और राज्य सरकारें आंखें मूंदे हैं और अच्छे मॉनसून के पूर्वानुमान पर, जो अनेक बार गलत भी साबित होते रहे हैं, गद्गद दिखाई दे रही हैं। केंद्रीय कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ने तो इससे खाद्यान्न की पैदावार में वृद्धि की भविष्यवाणी भी कर डाली, जबकि कौन नहीं जानता कि ज्यादा बारिश कई बार फसलों की बर्बादी का सबब भी बन जाती है। दरअसल, हमें नहीं भूलना चाहिए कि मानसून का यह पूर्वानुमान शुरुआती है, मौसम विभाग दूसरा पूर्वानुमान आगामी जून में लगाएगा, जिसके वास्तविकता के ज्यादा करीब होने की संभावना है। सवाल यह भी है कि हम अपनी कृषि या अर्थव्यवस्था की बेहतरी के लिए मौसम के पूर्वानुमानों के मोहताज क्यों हैं, जबकि हमें हर संकट से निपटने की तैयारियों से पहले ही लैस रहना चाहिए। अगर हम मानसून के मुखापेक्षी बने हुए हैं तो इसके लिए हमारा दोषपूर्ण जल प्रबंधन भी कम जिम्मेदार नहीं है। आजादी के लगभग सात दशक बीतने के बावजूद देश में कारगर जल नीति बना कर उस पर अमल सुनिश्चत नहीं किया जा सका है। महज पानी के लिए लोग बड़ी संख्या में पलायन करने को मजबूर हैं। पानी की बरबादी रोकने, वर्षाजल और जल स्रोतों को सहेजने, भूजल का अंधाधुध दोहन रोकने, कथित विकास केलिए वनों की बलि रोकने आदि की तरफ अपेक्षित ध्यान नहीं दिया गया है। इस दिशा में जो भी उपाय किए गए वे गैरसरकारी स्तर पर ही ज्यादा हुए हैं, जबकि जरूरत जल के लिए व्यापक जनांदोलन की है। एक ऐसा आंदोलन जो जल प्रबंधन, शोधन, संरक्षण को सरकार से लेकर समाज तक हमारे रोजमर्रा जीवन का सरोकार बनाए। इसके अभाव में केवल अच्छे मानसून की आस में हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना हमें आत्मघात की ओर ही ले जाएगा।
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