वन रोपण द्वारा बंजर भूमि का विकास
जंगल-देश का दिल
अगर पेड़ न होते तो हमारी यह शस्य श्यामला धरती किसी भी प्रकार के जीवन को धारण करने के योग्य न होती। पेड़ ही तो हैं जो वायु को शुद्ध करते हैं, बादलों को अपनी ओर खींचते हैं और बारिश लाते हैं और वातावरण की तपन को कम करते हैं। ये पेड़ ही मिट्टी के कटाव से हमारे पहाड़ों और खेतों की रक्षा करते हैं और इन्हीं पेड़ों के कारण वे बारिश के फ़ालतू पानी को रोकते हैं ताकि हमारी फसलें लहलहा सकें। पेड़ ही हमें भोजन, चारा, ईंधन, लकड़ी और कच्चा माल देते हैं, जिससे हम कागज और रेयन तैयार करते हैं। इसलिए हमें पेड़ों को ‘देश’ का दिल कहना चाहिए।
घटते जंगल
जंगल किसी देश और उसके लोगों की आर्थिक व्यवस्था के आधार हैं। पर्यावरण का संतुलन बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि किसी देश का एक तिहाई भाग जंगलों से ढका रहे। लेकिन भारत में लगातार ईंधन की लकड़ी की मांग तथा फसलों की उपज के दबाव के कारण, हम पहाड़ों में वन रोपण नहीं कर पा रहे हैं और इसका परिणाम है कि हमारे जंगल बुरी तरह वनस्पति विहीन और नंगे होते जा रहे हैं। हमारे देश में आंकड़ों के अनुसार इस समय कुल 23 प्रतिशत भूमि पर जंगल हैं पर वास्तव में केवल 10-14 प्रतिशत क्षेत्र ही वनस्पति से ढका है।
हमारे देहातों में जलाने के लिए मुख्य रूप से लकड़ी ही इस्तेमाल की जाती है। इस सदी के अंत तक, ईंधन की लकड़ी की मांग बढ़कर लगभग 30 करोड़ घन मीटर हो जाएगी, जोकि लगभग 2-3 करोड़ भूमि में फैले बड़े पेड़ों से मिल सकती है। अगर हम बहुत बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण नहीं करते, तो हम इस मांग की आधी की पूर्ति का स्वप्न भी नहीं देख सकते।
बंजर भूमि दे सकती है हल
हमारे देश की ईंधन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए न तो साधनों की कमी है और न ही प्रौद्योगिकी (टैक्नोलोजी) की। हमारे पूरे देश में लगभग 9 करोड़ 36 लाख 90 हजार हैक्टर भूमि बंजर पड़ी है। इस भूमि पर वन रोपण किया जा सकता है। पेड़ लगाना आर्थिक दृष्टि से भी उपयुक्त रहेगा क्योंकि इससे पूरे साल भर तक लाखों लोगों को बराबर रोजगार मिल सकता है।
बंजर भूमि बनने के कारण
बंजर भूमि का विकास करने से पहले, यह जानना आवश्यक है कि अच्छी भली खेती की भूमि या जंगल कैसे बंजर बन गए और इनके विकास में कौन-कौन सी समस्याएं आड़ आएंगी। ध्यान देने योग्य कुछ कारण ये हैं:
1. सीमान्त और अनुपजाऊ मिट्टियों पर खेती-बाड़ी की उपेक्षा;
2. जंगलों में झाड़ियों को काटना और झूम खेती;
3. खेती तथा जंगली क्षेत्रों में मिट्टी तथा नमी के संरक्षण की कमी;
4. खानें खोदने, बिजली लगाने, निर्माण तथा अन्य औद्योगिक प्रायोजनाओं से पारिस्थितिकी का विनाश या पर्यावरण का संतुलन बिगड़ना;
5. अधिक सिंचाई, विशेष रूप से चिकनी मिट्टी में;
6. बेतहाशा बढ़ते पशुओं द्वारा अंधाधुंध चराई, जोकि अधिकांशत: आर्थिक रूप से ठीक नहीं है;
7. जंगल के उत्पादों की बढ़ती मांग; और
8. सार्वजनिक तथा सरकारी संस्थानों की भूमि तथा वनस्पति की रक्षा के लिए स्थानीय लोगों के सहयोग का अभाव।
विभिन्न योजनाए
पौधे लगाने के उद्देश्य से किसानों में दिलचस्पी पैदा करने के लिए ताकि वे इस काम में भाग दे सकें, केन्द्रीय व राज्य सरकारों ने कई वन रोपण योजनाएँ तैयार की हैं। इन योजनाओं में फार्म वानिकी और कृषिवानिकी महत्वपूर्ण योजनाएं हैं।
फ़ार्म वानिकी से अभिप्राय खेतों और बंजर भूमियों में पेड़ों को बिल्कुल पास-पास लगाने या अधिक घनत्व वाले वृक्षारोपण से है। इसके अंतर्गत मौसमी फसलें भी ली जा सकती हैं जैसे पेड़ों के बीच-बीच में कोई फसल लगाई जा सकती है, परन्तु ऐसा केवल शुरू के कुछ सालों में ही किया जा सकता है।
कृषि वानिकी से अभिप्राय उस विधि से है, जिसमें खेतों की मेड़ों पर या किनारों पर अंत:फसल के रूप में पेड़ लगाए जाते हैं, ताकि कृषि की उपज पर कोई बुरा प्रभाव न पड़े। आमतौर पर पेड़ों को पंक्तियों में लगाया जाता है और पंक्तियों के बीच की दूरी 15 से 50 मीटर तक होती है।
सफलता की कुंजी
बंजर भूमि-विकास से संबंधित समस्याओं को हम दो भागों में बांट सकते हैं – (1) प्रबंध की समस्याएं और (2) तकनीकी समस्याएं। सफल विकास के लिए यह आवश्यक है कि हम इन समस्याओं का सावधानीपूर्वक अध्ययन करें और उपयुक्त हल की तलाश करें।
प्रबंध की समस्याएं
- भूमि का स्वामित्व: व्यक्तिगत रूप से जो किसान अपने पेड़ों की देखभाल करते हैं, उन पेड़ों की तरफ अच्छा ध्यान दिया जाता है। उन्हें अधिक मेहनत करने और अपने पेड़ों को लोगों और पशुओं से बचाने की प्रेरणा मिलती है।
- लोगों द्वारा भाग लेना: इस बात की ओर तत्काल लोगों का ध्यान दिलाया जाना चाहिए कि हमारे देश में ईंधन की लकड़ी की भयंकर कमी है, हमारी पारिस्थितिकी प्रणाली गडबड़ा गई है और इसलिए जरूरत इस बात की है कि बंजर भूमि में पेड़ लगाने को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाये। केवल स्थानीय लोगों के सहयोग से ही वन रोपण कार्यक्रम में सफलता मिल सकती है।
- पशु प्रबंध नीति: इस समय भारत में 30 करोड़ से भी अधिक ऐसे पशु है, जो जहाँ-तहाँ चरते फिरते हैं। इनके मालिक इस बात की तरफ भी ध्यान नहीं देते कि अनुत्पादक पशुओं को कम किया जाये क्योंकि उन्हें उनके रख-रखाव पर कुछ भी खर्च नहीं करना पड़ता। बिना ऐसे आवारा पशुओं को रोके, बंजर भूमि का विकास लगभग असंभव है। पशुओं को चराने की नीति में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है ताकि लोग अपने पशुओं को स्वयं चारा दाना खिलाएं।
इस नीति के निम्नलिखित ध्येय होने चाहिए:
- आवारा पशुओं द्वारा चराई को रोका जाये।
- अनुत्पादक पशुओं की संख्या में कमी की जाये।
आवारा पशुओं द्वारा चराई की रोकथाम
इसके लिए राजनितिक संकल्प और लोगों के सहयोग की आवश्यकता है। चारे की उपज बढ़ाने के लिए पशुओं के बेरोकटोक घूमने परअंकुश लगाना चाहिए। मवेशियों को इस तरह इतनी मेहनत के बाद भी इधर-उधर मुँह मारने से जितना चारा मिलता है उससे कहीं अधिक चारा उन्हें तब प्रति मवेशी मिल सकता है। किसान भाईयों को इस बात को मनवाना कोई मुश्किल काम नहीं है, उन्हें इसके लिए समझाया और प्रेरित किया जा सकता है कि वे अपने मवेशियों को बाड़े में अंदर रखें। इसके लिए व्यापक विस्तार कार्यक्रम की आवश्यकता है और विशेषरूप से स्थानीय नेता इसका प्रचार कर सकते हैं।
सरकार या स्थानीय पंचायत के अधिकारी वर्ग मवेशी कर लगाने पर विचार कर सकते हैं या तो किसान के सभी मवेशियों पर या उन पर जो बाड़े में अंदर नहीं रखे जाते। भारी चराई उपकर लगाने से किसान सोचने लगेंगे कि वे अपने अनुत्पादक मवेशियों से कैसे छुटकारा पायें? दूसरा विकल्प यह है कि प्रत्येक परिवार मवेशियों का छोटा झुंड रख सकता है, लेकिन एक निश्चित संख्या से अधिक मवेशी रखने पर अतिरिक्त मवेशियों पर कर लगाया जाये। इस प्रकार के निर्णय केवल लोगों के सहयोग से या आन्दोलन द्वारा ही लागू किये जा सकते हैं अन्यथा सरकार द्वारा ऐसे कदम उठाने से किसान भड़क सकते हैं।
अगर किसान अपने अनुत्पादक पशुओं को बेचना भी चाहें, तो सवाल उठता है कि ये मवेशी जायें कहां? क्योंकि गो पशुओं के वध पर तो सरकारी प्रतिबंध हैं और किसान बाजार में ऐसे पशुओं को बेच भी नहीं सकते और न उनसे छुटकारा पा सकते हैं। इसलिए सरकार को इस दिशा में उचित कदम उठाने चाहिए ताकि सरकार ऐसे मवेशी या तो इक्ट्ठा करे या किसानों से खरीद ले। ऐसे पशुओं को पुन: प्रजनन के अयोग्य बनाने के लिए बधिया करना चाहिए और उन्हें गो सदनों या पिंजरापोलों में स्वाभाविक मृत्यु होने तक रखना चाहिए। यह है तो खर्चीला कार्यक्रम परन्तु कई स्वयंसेवी संस्थाएँ या धार्मिक संस्थाएँ, ऐसा काम करने को तैयार हो सकती है।
दूध का उत्पादन बढ़ाने के लिए स्थानीय मवेशियों के सुधार और निकम्मे सांडों को बधिया करने से मवेशियों की संख्या में कमी आ सकती है। ये काम हैं तो कठिन और खर्चीले क्योंकि आरंभ में इन पर काफी खर्चा आता है लेकिन लम्बी अवधि में इनसे आर्थिक क्रांति हो सकती है।
बिक्री संरचना आधार:
घर और व्यवसाय में काम आने वाली बहुत सारी उपयोगी वस्तुओं का उत्पादन पेड़ों से ही होता है। जो किसान बंजर खेती के विकास का काम करते हैं, वे इन वस्तुओं का अपनी आवश्यकता से अधिक भारी मात्रा में उत्पादन करते हैं। इन चीजों की आसानी से बिक्री के लिए तत्काल बाजार की सुविधाएँ सुलभ कराने की आवश्यकता है। अगर किसान अपने माल को जैसे पेड़ की लकड़ियाँ आदि मुनाफे के साथ नहीं बेच सकता तो वह क्यों पेड़ लगाने के लिए तैयार होगा? किसान अब तक ईंधन के लिए पेड़ लगाने को इसीलिए तैयार नहीं होते क्योंकि अभी तक उसके बेचने के लिए बिक्री की सुविधाएँ नहीं है। सुविधाएँ भी ऐसी होनी चाहिए ताकि पूरे उत्पादन को खरीदा जा सके और उत्पादक को समर्थक दाम भी मिल सके।
तकनीकी समस्याएं
तकनीकी समस्याओं में खेती-बाड़ी के काम जैसे भूमि तैयार करना, मिट्टी का उपचार, उपयुक्त किस्मों का चुनाव और होनहार किस्मों को छांटना, बुआई का तरीका, बढ़िया क्वालिटी की पौधे तैयार करना, नमी का संरक्षण, मिट्टी की उर्वरता को सुधारना, उर्वरकों का प्रयोग और बाद की देखभाल शामिल है। अगले अध्यायों में बंजर भूमि पर वृक्ष का बायोमास (यानी पत्ती, लकड़ी, चारा आदि सभी कुछ) उत्पादन बढ़ाने के लिए आदर्श प्रबंध व्यवस्थाओं का वर्णन किया गया है। बंजर भूमियों में पेड़ लगाने के लिए प्रबंध सम्बन्धी तथा तकनीकी पहलू दोनों ही महत्वपूर्ण हैं।
समन्वय
ईंधन की निरंतर बढ़ती हुई मांग को पूरा करने के लिए आज आत्म-निर्भरता सबसे बड़ी चुनौती है। यह पूर्ति बंजर भूमि में पेड़ लगाकर ही की जा सकती है। प्रौद्योगिकी (टैक्नोलोजी) सरल है और साधन भी आसानी से सुलभ हैं, लेकिन सवाल तो प्रबंध का है। उपयुक्त प्रौद्योगिकी, अच्छे प्रबंध तथा लोगों की साझेदारी के समन्वय द्वारा ही, विशाल कार्यक्रम को सफलतापूर्वक अमल में लाया जा सकता है।
बंजर भूमि की पहचान
लगभग 10 करोड़ हैक्टर क्षेत्र भारत में बंजर भूमि के अंतर्गत है। इस भूमि का अधिकांश भाग पेड़ों के उगाने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।
बंजर भूमि क्या है?
बंजर भूमि की कोई निश्चित परिभाषा नहीं है। आमतौर पर जो भूमि खाली पड़ी रहती है उसे बंजर कहा जाता है। कुछ ऐसी खेती-बाड़ी की जमीन, जो घटिया किस्म की है या लाभदायक खेती के उपयुक्त नहीं है, उसे भी प्राय: बंजर कहा जाता है।
स्वामित्व
अधिकांश बंजर भूमि सरकार की हैं। कुछ सार्वजनिक संस्थाओं की भी बंजर भूमि हैं। बहुत थोड़ी भूमि व्यक्तिगत हैं।
वन रोपण के लिए प्राथमिकता
बंजर भूमि का प्रयोग अनेक कामों के लिए हो सकता है लेकिन सबसे उत्तम कार्य वन रोपण है क्योंकि यह लाभदायक है। इससे देहात के लोगों को बहुत रोजगार मिल सकता है और इसके लिए भारी पूंजी की भी आवश्यकता नहीं होती है। वन रोपण से पारिस्थितिकी प्रणाली या पर्यावरण में सुधार होता है और इससे मिट्टी का कटाव भी रुकता है।
पहचान
बंजर भूमि के विकास के लिए पहला कदम बंजर भूमि की पहचान करना है। निजी बंजर भूमि लोगों की अपनी हैं। लेकिन जितनी भी बंजर भूमि सरकार या सार्वजनिक संस्थान के हाथ में हैं, उनका स्वामित्व स्पस्ट नहीं है। इनमें से कुछ भूमि पर तो लोगों ने नाजायज अधिकार जमा रखा है। अत: इन भूमियों की स्थानीय जाँच-पड़ताल होनी चाहिए। जिनके बारे में झगड़ा है उन्हें विकास के लिए तब तक नहीं चुनना चाहिए जब तक कि मामले का कानूनी तौर पर फैसला न हो जाये।
गाँव में जितनी भी बंजर खाली है, उसके स्वामित्व के रिकार्ड गाँव के वित्त रिकार्ड ऑफिस से निकलवाए जा सकते हैं ताकि उनके स्वामित्व की पुष्टि की जा सके। भूमि के खाते के विवरण के आधार पर, बंजर भूमि को विकास के लिए निर्धारित किया जा सकता हैं।
अनेक राज्य सरकारों ने योजनाएं बनाई हैं ताकि वे लोगों को, सहकारी समितियों को या निजी उद्योगों को विकास के लिए पट्टे पर बंजर भूमि दे सकें। राज्य सरकारों को बंजर भूमि लेने के लिए उपयुक्त सुझाव पेश किये जाने चाहिए। गाँव के एकाउटेन्ट और तहसीलदार से एक प्रमाण-पत्र लेना चाहिए जिसमें बंजर भूमि की उपलब्धता का उल्लेख किया जाये। इससे कार्य के क्रियान्वयन में सहायता मिलेगी।
सीमा का निर्धारण
खेतों में सीमा का झगड़ा एक आम समस्या है। जैसे ही किसी को बंजर भूमि का स्वामित्व मिलता है, वैसे ही उसकी सीमाओं का निर्धारण कराना बेहतर है। अगर पड़ोसी के खेत के मामले में कोई मतभेद हैं तो भूमि को नापने के लिए राजस्व विभाग के भूमि सर्वेक्षण अनुभाग को आवेदन पत्र देना चाहिए। भूमि सर्वेक्षण द्वारा निर्धारित सीमा को मानना पड़ेगा। साथ ही उस वास्तविक क्षेत्र को नापना चाहिए जहाँ पेड़ लगाए जाने हैं।
बंजर भूमि की किस्में
देश की बंजर भूमियों को अनेक वर्गों में बांटा जा सकता है।
उथली मिट्टी
जंगलों में एक जगह दूसरी जगह खेतों के बदलते रहने (झूम खेती) और खेतों के प्रबंध में लापरवाही के कारण, धरती की ऊपरी उपजाऊ मिट्टी हर साल पानी के साथ बह जाती है। इस प्रकार मिट्टी के निरंतर कटाव के कारण, मिट्टी में कंकड़-पत्थर रह जाते हैं। कम उपजाऊन और नमी को अपने में रोके रखने की कमी के कारण ऐसी जमीनों पर खेती नहीं टिक सकती। पौधे अपनी जड़ों को अच्छी तरह मिट्टी में जमा नहीं पाते और ऐसी जमीने फसल उत्पादन के योग्य नही रह जाती है।
रेत के टीले
रेत के लहरियादार ढेर बन जाते हैं जोकि बहुत अधिक अनुपजाऊ होते हैं और उनमें पानी को रोकने की क्षमता नहीं होती। गर्मियों में बहुत जल्दी गरम हो जाते हैं और फसल को हानि पहुँचाते हैं।
रेत के टीले दो तरह के
(क) रेगिस्तानों में ये रेत के टीले अपना स्थान बदल देते हैं जिसका कारण इसके बारीक कणों को उड़ना है। इससे रही-वनस्पति को हानि पहुंचती है। पौधों के टिके रहने के लिए पानी की कमी दूसरी समस्या है।
(ख) समुद्री किनारे के रेतीले टीले अपना मूल स्थान नहीं बदलते।फ इन जगहों में पानी की सतह काफी ऊँची होती हैं परन्तु अधिकांश कुओं का पानी पीने योग्य नहीं होता क्योंकि उसमें बहुत अधिक खारापन होता है।
तंग घाटियाँ और नदी के किनारे
बलुई और दोमट मिट्टी वाले खेतों में, बरसाती पानी के नालियों में बहने के कारण धीरे-धीरे तंग घाटियाँ बन जाती हैं। ठीक समय पर जुताई और कन्टूर (समोच्च) बांध बनाने से बरसाती पानी का सतही रिसाव रोका जा सकता है और तंग घाटियाँ बनने से रोकी जा सकती हैं। उपेक्षित इलाकों में, इन तंग घाटियों के पास वाले खेत भी धीरे-धीरे घाटियों में बदल जाते हैं।
इन तंग घाटियों की ही तरह, नदियों के किनारों पर भी दुमट ओर बलुई मिट्टी जमा जो जाती है और उनमें बराबर कटाव होता रहता है।
जललग्न और दलदली क्षेत्र
ऐसे इकाले समुद्री किनारों में या नदी के सपाट किनारों में जहाँ पानी का स्तर काफी ऊँचा होता है या फ़ालतू पानी की निकासी का रास्ता नहीं होता, पाये जाते हैं। इन इलाकों में मिट्टी या तो अम्लीय होती है या उदासीन (न्यूट्रल) । पानी मीठा हो सकता है। समुद्र के किनारे वाले क्षेत्रों में, यह ज्वार के दिनों में समुद्री पानी के साथ मिल कर खारी हो जाता है।
ऐसे क्षेत्रों के लिए पेड़ों की किस्मों का चुनाव करने से पहले मिट्टी के पी.एच. मान और पानी की क्वालिटी यानि गुणवत्ता की जाँच की जानी चाहिए।
लवणीय मिट्टियाँ
ऐसी मिट्टियाँ जिनमें घुलनशील नमक जैसे क्लोराइड, सोडियम सल्फेट, कैल्शियम और मैग्निशियम अधिक मात्रा में पाये जाते हैं, लवणीय मिट्टियाँ कही जाती हैं। अच्छी उर्वर मिट्टियाँ भी लवणीय हो जाती हैं यदि इस तरह के नमक धीरे-धीरे जमा होते रहते हैं। ये मिट्टियाँ अधिकतर या तो सिंचाई के या निकासी पानी के द्वारा लाई जाती हैं। मिट्टी में नीचे कुछ खनिज पहले से ही मौजूद होते हैं, वे भी नमक में परिणत हो जाते हैं। इन मिट्टियाँ का पी.एच. मान 8.2 से नीचे रहता है।
नमक की विषाक्तता (मिट्टी के घोल में नमक का अत्यंत घनापन) के कारण घुलनशील नमक फसल की बढ़वार को रोकते हैं। अगर कहीं मिट्टी के धरातल के पास ही पानी का स्तर हो तो समस्या और भी गंभीर हो जाती है।
क्षारीय मिट्टियाँ या ऊसर भूमि
अत्यधिक सोडियम आयनों की मौजूदगी से मिट्टी में क्षारीयता पैदा हो जाती है। आयन कम्पलैक्स में विनिमयशील (जो बदला जा सके) सोडियम सांद्रण (गाढ़ा) 15 प्रतिशत से अधिक होता है। इन मिट्टियों का पी. एच. मान 8.2 से अधिक होता है। क्षारीय मिट्टियों में अधिकांश रूप से सोडियम कार्बोनेट मौजूद होता है और इससे मिट्टी के भौतिक गुणों पर प्रभाव पड़ता है। वायु का प्रवेश न होना, चिपचिपापन, पोषण की कमी आदि मिट्टी क अनुपजाऊ बना देते है।
अत्यधिक सिंचाई से, विशेष रूप से काली या कम जल निकासी वाली मिट्टियों में, भूमि ऊसर बन जाती है। यह क्षारीय मिट्टियों का ख़ास उदाहरण है। इन मिट्टियों में आमतौर पर एक मोटी कलकरेयिस यानि चूनेदार परत भूमि के नीचे पायी जाती है। यह परत बहुत कठोर होती है और इसमें से होकर पानी नीचे नहीं जाता। इस प्रकार पानी सतह पर जमा हो जाता है और कालान्तर में भाप बन कर उड़ता रहता है और नमक की एक हल्की परत छोड़ देता है।
सूखे से प्रभावित खेती योग्य भूमि
ऐसे बड़े-बड़े मैदान मौजूद हैं जो उपजाऊ तो हैं पर पानी की कमी के कारण यों ही बेकार पड़े रहते हैं। इन इलाकों में अगर बारिश कम या अनियमित रूप से होती है, तो फसलों की बढ़वार नहीं हो पाती। अगर कहीं ऐसी जमीनों के मालिक गरीब किसान होते हैं जोकि खेती के उन्नत या वैज्ञानिक तौर-तरीके नहीं अपना सकते तो समस्या और भी गंभीर हो जाती है। ऐसी जमीनों पर निस्संदेह पेड़ उगाये जा सकते हैं।
पानी संसाधन विकास
अत्यावश्यक
बायोमास (वृक्ष की पत्तियाँ, लकड़ियाँ, फल आदि पदार्थ) उपज बढ़ाने के लिए पानी अत्यावश्यक साधन या निवेश है। पर्याप्त सिंचाई से, बायोमास उत्पादन में 400 प्रतिशत तक की वृद्धि हो सकती है। अतएव, हमें जितने पानी के साधन उपलब्ध हैं, उनका सबसे अच्छा उपयोग करने का अधिकतम प्रयत्न करना चाहिए।
पानी के स्रोत
दलदली, लवणीय और ऊसर भूमियों को छोड़कर प्राय: सभी बंजर भूमियों में पानी की कमी होती है। इन क्षेत्रों में, नलकूप लगाने की संभावनाओं पर विचार किया जा सकता है। कुएं खोदने के लिए स्थान ढूंढने के उद्देश्य से भूमिगत जल सर्वेक्षण किया जाना चाहिए।
लिफ्ट सिंचाई
सिंचाई के लिए एक दूसरा विकल्प भी है और वह है आस-पास की नदियों या तालाबों से पानी उठाने की योजना लागू करने की संभावना। कई ऐसी योजनाएँ हैं जिनमें 8-10 कि. मी. की दूरी से पानी लाया जाता है। इस प्रकार की योजनाओं से साल के 8-12 महीनों तक पानी मुहैया किया जा सकता है, और यह पानी के स्रोत पर निर्भर है। लेकिन इन योजनाओं के लिए भारी पूँजी की आवश्यकता होती है।
पुश्ते या बांध
पानी के संसाधन विकास का सबसे अच्छा तरीका खेत में बहते पानी को इक्ट्ठा करने के लिए नालों या गूलों पर पुश्ते बनाना है, आमतौर पर केवल 20-30 प्रतिशत बरसाती पानी खेत इस्तेमाल करता है बाकी बह जाता है और उर्वर मिट्टियों का कटाव करता है।
कन्टूर (समोच्च) बांध का विकास कर और ढालू जमीन पर कुंड (नालियां) खोद कर बरसाती पानी को दुगनी मात्रा में आसानी से इस्तेमाल किया जा सकता है। खेती के निचले भाग में तालाब बनाकर निकासी वाले पानी को इक्ट्ठा किया जा सकता है।
रिसाव तालाब
कम बरसात वाले क्षेत्रों में, मिट्टी के पुश्ते बनाये जा सकते है और सतही मिट्टी पर घास और पत्थर लगाये जा सकते हैं। तालाब से फ़ालतू पानी निकालने के लिए पुश्ते के पास ही उमड़ मार्ग (स्पिलवे) की व्यवस्था की जानी चाहिए। इसकी सतह मिट्टी के बांध की ऊँचाई से काफी नीची होनी चाहिए। इस प्रकार पुश्ते के ऊपर पानी को बहने से बचाया जा सकता है, क्योंकि पानी से कटाव हो सकता है। इस प्रकार के रिसाव (परकोलेशन) तालाबों के विकास को सरकारी ‘रोजगार गारंटी योजना’ के अंतर्गत आवश्यक गतिविधि समझा जाना चाहिए ताकि बरसाती पानी का सबसे अच्छा उपयोग हो सके और बायोमास उत्पादन बढ़ाया जा सके और उस क्षेत्र के भूमिगत जल की क्षमता को सुधारा जा सके। भारी वर्षा वाले क्षेत्रों में, मानसून के दिनों में नालों में बाढ़ अ जाती है। ऐसे नालों के लिए मिट्टी के पुश्ते बनाना उपयुक्त नहीं है। इनमें पक्की चिनाई की जरूरत होती है जिसमें बाढ़ द्वार बने हों, हालांकि इनमें खर्चा अधिक आता है। दूसरा सस्ता उपाय यह है कि मानसून की चरम सीमा पर हर साल अस्थायी पुश्ते बनाए जायें और इसके लिए रेत के भारी-भारी बोरे वहाँ डाले जायें। इस तरह के तालाबों में लगभग गर्मियों के अंत तक पानी भरा रह सकता है। ये पुश्ते बरसात के मौसम में बह जाते हैं और नालों में पानी का बहाव खुल जाता है।
पानी का वितरण
टैंक में भरे हुए पानी को कुंडों द्वारा सीधे ही इस्तेमाल किया जा सकता है। लेकिन इस तरीके में अधिक पानी की आवश्यकता होती है। यदि पानी की मात्रा सीमित है तो अलग-अलग पेड़ों की होजपाइप से या छिड़कावक से या ड्रिप विधि से सिंचाई करना बेहतर है।
भूमि-विकास
समोच्च (कन्टूर) सर्वेक्षण
अधिकांश बंजर भूमियाँ लहरिया होती हैं। यह आवश्यक है कि भूमि का सर्वेक्षण किया जाये और स्थल रूप रेखा का अध्ययन कर एक कन्टूर नक्शा तैयार किया जाये। कन्टूर नक्शा खेत में पानी के बहाव की दिशा बताता है।
झाड़ियों को साफ़ करना
कई बंजर भूमियाँ कंटीली झाड़ियों से ढकी रहती हैं और इनसे भूमि का विकास और खेती में बाधा पड़ती है। इसलिए छोटी-छोटी झाड़ियों को नीचे जमीन की सतह तक काटना चाहिए। यदि झाड़ियाँ 2 मीटर से अधिक ऊँची हैं तो बगल की टहनियों की छंटाई की जानी चाहिए ताकि मुख्य सीधा तना बढ़ता रहे।
खेत और सड़कें
पूरी बंजर भूमि को 0.5, 1.0 या 2.0 हैक्टर के टुकड़ों में बांटना चाहिए। अगर भूमि लहरिया है तो टुकड़े का आकार, छोटा कर देना चाहिए। हर दो खेतों (टुकड़ों) के बाद कम से कम 2.5 मीटर चौड़ी ऐसी फ़ार्म सड़क बनायी जानी चाहिए ताकि हर प्लांट में आप सड़क से पहुंच सकें।
कन्टूर (समोच्च) डौल
समोच्च पर प्लांटों के डौल बनाना बेहतर है। प्रत्येक प्लांट के अंदर सुविधाजनक दूरियों पर (अगर भूमि ढालू हो तो 1 मीटर और अगर ढाल बहुत कम है तो 5 मीटर की दूरी पर) अतिरिक्त कन्टूर डौल छोटे-छोटे आकार के बनाए जा सकते हैं। यदि संभव हो तो खेत को अवभूमि हल से या ढाल के आर-पार हल चलाकर तैयार करना चाहिए।
इस क्रिया के बाद, सतह पर कंकड़-पत्थर निकल आयेंगे। इन पत्थरों को इक्ट्ठा करके इन्हें कन्टूर बांध या हद की दीवार बनाने के काम में लाया जा सकता है।
हल चलाने से मिट्टी पोली हो जाती है, इससे पानी का बहाव रुकता है, पानी का रिसाव बेहतर होता है और गड्ढे बनाने की लागत को कम करता है। लेकिन जहाँ भारी बारिश होती हो वहाँ हल चलाने से विशेषरूप से ढालों में, मिट्टी का कटाव बढ़ सकता है।
बाड़
पौधों को पशुओं द्वारा चराई और चोरी से सुरक्षा के लिए, बेहतर यही है कि पूरी की पूरी हद पर बाड़ लगा दी जाये। कंटीले तारों की बाड़ लगाना तो बहुत महंगा पड़ता है साथ ही चोरी का भय भी रहता है, इसलिए दूसरे सस्ते तरीके अपनाए जा सकते है।
पत्थरों की दीवार
जिस इलाके में काफी पत्थर हों, वहाँ पत्थरों को इक्ट्ठा करके उनकी बाड़ बनाना बेहतर होगा। ऐसी दीवार बनाने में आपको मिस्त्री की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। दीवार की ऊँचाई कम से कम 1 मीटर हो और दीवार की ऊपर की चौड़ाई लगभग 45 सें.मी. होनी चाहिए।
गूल और डौल
अगर जमीन नरम है और मिट्टी की गहराई भी अच्छी है तो गूल व डौल (ट्रेन्च-कम-माउंड) बनायी जानी चाहिए। गूल की ऊपरी चौड़ाई कम से कम 1 मीटर होनी चाहिए और हद के अंदर की ओर 0.75 -1.0 मीटर गहरी खोदी जानी चाहिए। गूल खोदने से जो मिट्टी निकलती है उसे डौल बनाने के काम में लगाना चाहिए जोकि उस गूल से अंदर की ओर लगभग 15 सें.मी. दूर होनी चाहिए। डौल जितनी भी ऊँची बनायी जा सके बनानी चाहिए।
हैज या बाड़
बरसात के मौसम में, उस डौल के दोनों तरफ बाड़ के लिए उपयुक्त किस्म के पेड़ लगाने चाहिए। दलदली खेतों में, बांध मजबूत बनाने चाहिए ताकि वे पानी के बहाव को बर्दाशत कर सके। ऐसे क्षेत्रों में बांध के दोनों ओर खाइयां खोदनी चाहिए। नियत दूरियों पर पानी की निकासी की व्यवस्था हो ताकि बरसात के मौसम में पानी आसानी से निकल सके।
बाड़ के लिए किस्में
पेड़ों या झाड़ियों की किस्मों का चुनाव करते समय नीचे दी गई कसौटियों पर ध्यान देना चाहिए:
- कंटीली झाड़ी – मवेशियों को घुसने से रोकने के लिए;
- ऐसी वनस्पति जिसे पशु न चर सकें;
- स्थानीय कृषि-जलवायु स्थितियों के अनुकूल;
- तेज बढ़वार;
- दुबारा उगाने की समर्थता;
- बायोमास, बीजों, फलों, रेशों आदि से अधिक आर्थिक लाभ।
सूखे, पहाड़ी क्षेत्रों में आदर्श जोड़े के रूप में ऐगेवी सिसलाना (रामबांस) और प्रोसीपिस जुलीप्लोरा अच्छे हैं। ऐगेवी (रामबांस) डौल के अंदर की ओर लगाया जा सकता है और प्रोसोपिस, के बीज डौल के बाहर की ओर खाई के किनारे बोये जा सकते हैं। दूसरा तरीका यह है कि डौल के सिरे पर रामबांस बोया जाये और प्रोसोपिस के बीज डौल के दोनों ओर बोयें जायें। प्रोसोपिस एक तो जल्दी-जल्दी बढ़ता है और ज्यादा ऊँचा भी होता है जबकि रामबांस नीचा घनी झाड़ीनुमा होता है। रामबांस प्रोसोपिस की छाया को भी सह सकता है। दोनों ही आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। रेशे व बायोमास से अच्छी आमदनी देते हैं।
पेड़ों की किस्मों का चुनाव
बंजर भूमि के लिए उपयोगी किस्मों को नीचे लिखे वर्गो में बांटा जा सकता है:
- जल्दी उगने वाली बायोमास किस्में।
- धीरे-धीरे उगने वाली लकड़ी (इमारती) के लिए किस्में।
- फल वृक्ष।
पेड़ों की किस्मों के चुनाव के लिए कसौटी
- स्थानीय कृषि जलवायु की स्थितियों में ढलने योग्य;
- जल्दी बढ़वार;
- अल्पचक्र;
- काट छांट से अच्छा विकास;
- बहुत से उपयोग;
- अधिक मांग और उत्पादन का अधिक मूल्य;
- मिट्टी को सुधारने की क्षमता और वातावरणीय नाइट्रोजन को स्थिर करने की क्षमता;
- सरल प्रबंध।
दूरी
तेजी से बढ़ने वाली किस्मों के साथ या तो फल वाले वृक्षों की किस्में या धीरे उगनेवाली लकड़ी वाली किस्में उगानी चाहिए। तेजी से उगने वाली किस्मों के बीच कम दूरी हो (1 x 1, 1x 2, 1 x 3, 2 x 3 मी.) और दूसरी किस्मों को भी उसी खेत में अधिक दूरी पर उगाया जा सकता है। (यानि 10 x 5, 10 x 10, 10 x 15, 10 x 20 मी.) । जब तक फल वृक्ष और धीरे उगने वाले लकड़ी के लिए उगाये जाने वाले वृक्ष तैयार होते है तब तक जल्दी-जल्दी उगने वाले वृक्षों के कई चक्र पूरे हो सकते हैं और इस प्रकार अधिक से अधिक लाभ कमाया जा सकता हैं।
एक ही समूह में अनेक तेजी से उगाये जाने वाले कई वृक्षों को मिलाना संभवत: लाभकारी न हो जिसका कारण कटाई में कठिनाई है, विशेष रूप से तब जब कि वे वृक्ष अलग-अलग समय में तैयार हों। तेजी से उगने वाली विभिन्न किस्मों को अलग-अलग प्लांटों में रखा जा सकता है।
अगर आप ने जो किस्में चुनी हैं उनके बारे में यह पता है कि वे मिट्टी की उर्वरता को घटाते रहते हैं, तो बेहतर है कि इन पेड़ों को दलहनी किस्मों के साथ उगाया जाये, ताकि दलहनी किस्में पोषण-पौधों के रूप में काम करके मिट्टी की उत्पादकता को बनाये रखने में सहायक हों।
देशी किस्में बनाम विदेशी किस्में
उपयुक्त किस्मों का चुनाव करते समय, अंतिम निर्णय करने में यह चक्कर पड़ जाता है कि देशी किस्में लगाएं या विदेशी। हाल के कुछ वर्षो में यह सिद्ध हो चुका है कि अनेक विदेशी किस्में बेहतर हैं जिसका कारण उनकी उत्तम बायोमास उपज, अल्प अवधि चक्र और बाजार में अच्छे दाम मिलना है। विस्तृत रूप से जनित्र द्रव्य की खोज और कई दशकों तक अन्तराष्ट्रीय खोज के बाद इन किस्मों का पता चला है। यह सिद्ध हो चुका है कि उनका बायोमास उत्पादन उपयुक्त स्तर पर निवेश देने व खेती के विशेष तौर-तरीके अपनाने से बेहतर होता है। नए क्षेत्रों में विदेशी किस्में अपनाते समय इन पहलुओं को ध्यान में रखना चाहिए।
यह सोचना अनुचित होगा कि विदेशी किस्में हमेशा ही स्वदेशी किस्मों से बेहतर हैं। प्रकृति ने अलग-अलग कृषि जलवायु क्षेत्रों के लिए व विपरीत स्थितियों के लिए भी अलग-अलग किस्में पैदा की हैं, वातावरण का बारीकी से अध्ययन करने से यह पता चल सकता है कि कौन सी किस्म कहां के लिए उपयुक्त है और किन किस्मों ने युगयुगों तक वहाँ की विपरीत स्थितियों के थपेड़ों के बावजूद अपना अस्तित्व बनाए रखा है। नीम, इमली, आम, बांस, शीशम, टर्मिनलियास और एकेशिया किसानों द्वारा बहुत समय से उगाये जाते रहे हैं और वे निश्चय ही बेहतर साबित हो सकते हैं बशर्ते कि अधिकतम उत्पादन के लिए उपयुक्त प्रबंध क्रियाएँ अपनाई जायें। बंजर भूमि के विकास के कार्यक्रम में देशी किस्मों का महत्वपूर्ण स्थान है, विशेषरूप से कठिन स्थानों पर, क्योंकि अभी वहाँ विदेशी किस्मों की क्षमता को परखा भी नहीं गया है।
किसी भी नये क्षेत्र में विदेशी किस्मों को अपनाने से पहले यह जानना आवश्यक है कि क्या विदेशी किस्में देशी किस्मों की तुलना में बेहतर ठहरती हैं और इसके लिए दोनों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाना चाहिए और विदेशी किस्मों का जो मूलस्थान है वहाँ की कृषि जलवायु स्थितियां कैसी हैं, इसका अध्ययन भी आवश्यक है, इन विदेशी किस्मों के मूल स्थान को देखने के बजाय, यह देखना आवश्यक है कि ये किस्में क्या नयी जगह में अपने को ढाल लेंगी और उनकी उत्पादन क्षमता क्या है।
व्यावसायिक किस्में दूसरी किस्मों की तुलना में अधिक आकर्षक होती हैं क्योंकि बाजार में उनके दाम भी अधिक मिलते हैं और उद्योगों में उनकी मांग भी ज्यादा होती है। कुछ गैर व्यावसायिक किस्में भी होती हैं, उद्योगों में उनकी मांग तो नहीं होती पर वे किसानों के लिए बहुत उपयोगी होती हैं, क्योंकि उनसे किसानों को खाद्य पदार्थ, ईंधन, चारा, तेल और दवाएं मिलती हैं और रोजी रोटी में सहायता मिलती है। इसलिए इन किस्मों की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। इस तरह की किस्मों को बड़ी आसानी से उन किस्मों के साथ मिलाया जा सकता है जो अत्यंत आकर्षक और व्यावसायिक रूप से उपयोगी है। इस तरह मिले-जुले पेड़ों की बाड़ भी लग सकती है।
देशी किस्मों पर काम करने की तत्काल आवश्यकता है ताकि उत्तम कोटि का जनित्र द्रव्य चुना जाए, आदर्श वन रोपण विधियाँ अपनाई जायें और ऐसे उत्पाद तैयार किये जायें जो मूल्यवान हों। इस तरह की किस्में विदेशी किस्मों से मुकाबला करने के योग्य बनाई जायें।
लोकप्रिय पेड़ों की किस्में
दलदली क्षेत्र
(वानस्पतिक नाम)
- एकेशिया औरिक्युलिफर्मिस : बंगाली बबूल
- डेंड्रोकेल्मस स्ट्रिक्टस : बांस
- डेरिस इंडिका : पोगेमिया
- ग्लिरीसीडियम सेपियम : ग्लिरीसीडियम
- थेसपीसिया पोपुलनी : पोर्शिया
बलुई मिट्टियाँ
- एकेशिया औरिक्युलिफार्मिस : बंगाली बबूल
- एल्बीजिया फाल्केटेरिया : व्हाइट एल्बीजिया
- एनाकार्डियम आक्सीडेंटल : काजू
- कैजुआरीना इक्वीसेटीफ़ोलिया : कैजुआरीना, फाराश
- डलबरजीया सीसू : शीशम
- यूकेलिप्ट्स : यूकेलिप्ट्स
- मैलिया एजेडरैक : बकायन, चाइनाबेरी
- थेसपीसिया पोपुलनी : पोर्शिया
अम्लीय मिट्टियाँ
- एलैन्थस एल्टीसीमा : चाइना सुमक
- एल्बीजिया प्रोसेरा : व्हाइट सिरिष
- डेरिस इंडिका : पोगेमिया
- ग्लिरीसीडिया सेपियम : ग्लिरीसीडिया
- मेलाइना आर्बोरिया : मेलाइना
- टारमेरिंड्स इंडिका : इमली
क्षारीय मिट्टियाँ
- एकेशिया निलोटिका : बबूल
- एकेशिया टोर्टोलिस : इजरायली बबूल
- एलेन्थस एक्सेलसा : महारूख
- एजारडीराक्टा इंडीका : नीम
- कैशिया सियामी : काशिद
- डेरिस इंडीका : पोगेमिया
- यूकेलिप्ट्स : यूकेलिप्टस
- ल्यूकेना ल्यूकोसेफाला : सुबबूल
- प्रोसोपिस जुलीफ्लोरा : विलायती बबूल
- टर्मिनालिया अर्जुना : अर्जुन
लवणीय मिट्टियाँ
- एकेशिया केटेचू : कत्था
- एकेशिया निलोटिका : बबूल
- एजारडिराक्टा : नीम
- प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा : विलायती बबूल
- टर्मिनालिया अर्जुन : अर्जुन
चिकनी मिट्टियाँ
- एकेशिया निलोटिका : बबूल
- एकेशिया टोर्टिलिस : इजरायली बबूल
- एल्बीजिया लेबेक : सिरस
- एजारडिराक्टा इंडीका : नीम
- मेलिया एजेडेराक : बकायन, चाइनाबेरी
- पिथेसेलोबियम डल्से : मद्रास थौर्न
ऊँची पहाड़ियां
- एकेशिया मियरनसाइ : ब्लैक बेटल
- एलेन्थस एल्टीसीमा : चाइना सुमक
- यूकेलिप्टस : यूकेलिप्टस
- ग्रेवीलिया रोबस्टा : सिल्कओक, सिल्वर ओक, बलूत, बांज
- पोपुलस युफ्रेटिका : पोपुलर
- रोबीनिया स्यूडोएकेशिया : ब्लैक लोकस्ट
शुष्क क्षेत्र
- एकेशिया निलोटीका : बबूल
- एकेशिया टोर्टिलिस : इजरायली बबूल
- इजारडिराक्टा इंडीका : नीम
- डेरिस इंडीका : पोंगेमिया
- यूकेलिप्टस हाइब्रिड : यूकेलिप्टस
- ल्यूकेना ल्यूकोसेफाला : सुबबूल
- पार्किनसोनिया एक्यूलियाटा : हौर्सबीन
- प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा : विलायती बबूल
- जिजिफस मौरीशियाना : बेर
रोपण क्यारी (नरसरी)
अलग-अलग विधियाँ
पौध सामग्री के प्रयोग के लिए कई विकल्प हैं। हम किस विधि से पौधे लगाएं, यह निर्णय लेने से पहले हमें बीज को सीधे बोने और पौध तैयार करके लगाने के लाभ और हानियों को समझना चाहिए। जिन जगहों में साल भर तक सिंचाई की सुविधा हो, वहाँ पौध तैयार करने की लागत को बचाने के लिए सीधे ही बुआई की जा सकती है। सूखा प्रवृत्त (जहाँ अक्सर सूखा पड़ता हो) क्षेत्रों में, मानसून शुरू होने के पहले, ऊँची पौध की रोपाई से अच्छे जमाव व बढ़वार में मदद मिलेगी।
जिन जगहों में जमाव होने तक निश्चित रूप से नमी बनी रहती है, वहाँ नंगी जड़ वाली पौधों का इस्तेमाल हो सकता है। जिन जगहों में पानी की कमी है, जहाँ मानसून शुरू होने के दिनों में बुआई नहीं की जा सकती, वहाँ नंगी जड़ों वाली पौधों की रोपाई बिल्कुल बेकार साबित हो सकती है। ऐसे क्षेत्रों के लिए केवल यही उपाय है कि पोलीथीन की थैलियों में उगायी गई पौध लगाई जाये। उन मिट्टियों में जिन का पी.एच. मान बहुत ऊँचा है या कम है या कंकरीली जमीनों में भी पोलीथीन की थैलियों में तैयार पौध लगाना आवश्यक है।
सीधी बुआई
पेड़ लगाने का सबसे सस्ता तरीका सीधे ही बुआई करना है। इसके बाद जो दूसरा तरीका है वह नंगी जड़ों वाली पौध लगाना और पोलीथीन थैलियों में उगाई गई पौध लगाना। जो कुछ भी हो पेड़ लगाने के स्थान को देखकर ही यह निर्णय लिया जा सकता है, अकेली लागत ही निर्णयक नहीं होती।
क्यारियों में पौध लगाना
पौधों को या तो समतल क्यारी में या ऊँची क्यारी में या फिर पोलीथीन की थैलियों में तैयार किया जाता है। अब तो ऐसी पोलीट्यूब ट्रे बन चुकी है जिनका बार-बार इस्तेमाल किया जा सकता है।
क्यारियों में पौध तैयार करना
अगर ऊँची उठी हुई क्यारियाँ बनाई जाती हैं तो उनमें जल निकासी की सुविधा होती है और वहाँ की मिट्टी में जड़ की बढ़वार भी खूब होती है। बलुई मिट्टियों में समतल क्यारियाँ बेहतर होती हैं।
भूमि की तैयारी
दो बार गहरी जुताई करने से मिट्टी ढीली हो जाती है और खरपतवार भी नष्ट हो जाते हैं। खेत में छोटे-छोटे कंकड़-पत्थर निकाल फेंकने चाहिए। ढाल के आर-पार बीजों की क्यारी बनानी चाहिए। ऐसा स्थान चुनना बेहतर है जहाँ कुछ पेड़ हों। थोड़ी-सी छाया लाभदायक है। क्यारी की चौड़ाई 1-1.25 मीटर हो तो सबसे अच्छा है। लम्बाई 2-4 मी. हो सकती है। ऊँची उठाई गई क्यारी की ऊँचाई 15-00 सें. मी. होनी चाहिए। क्यारियों के बीच में चलने की काफी जगह यानी 0.3 से 0.5 मी. होनी चाहिए। क्यारी बनाने के लिए जो चारों तरफ खाई खोदी जाती है वे आपस में हल्के से ढाल के साथ एक दूसरे से मिली हों, ताकि बारिश में फ़ालतू पानी की निकासी हो सके। इन्हीं खाइयों को पानी भरने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है, बशर्ते कि आप कुंडों के द्वारा सिंचाई करना चाहें। क्यारी का धरातल पूरी तरह एक-सा हमवार हो ताकि पानी भली भांति अंदर जा सके। बुआई से पहले, यदि संभव हो तो सूखी पत्तियों या खेती की छीजन को जलाकर बिछाना चाहिए। जलाने से खरपतवार और कीड़ों का डर कम रहता है। साथ ही जली हुई पत्तियाँ आदि यानि खनिज बहुल राख क्यारी के उपजाऊपन को बढ़ाती है। आप राख बाहर से भी ला सकते हैं और बुआई से पहले क्यारियों में बिछा सकते है। पौध की बढ़वार को बढ़ाने में राख बहुत मदद करती है।
घूरे की खाद यानी फार्म यार्ड मैन्यार का बारीक चूरा (20 कि.ग्रा.) और नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश (15:15:15) को और मिश्रित उर्वरक 1 कि. क्यारी की मिट्टी में भली भांति मिलाना चाहिए। इतनी मात्रा 3 x 1.25 मी. खेत के लिए उपयुक्त है। यह मिश्रण बुआई से पहले मिलाया जाये।
बीज का उपचार
बुआई से पहले बीज की जीवन क्षमता की जाँच की जानी बेहतर है। जिन बीजों का छिलका कठोर या अभेद्य हो उन्हें 5-10 मिनट तक गरम पानी से (70-80 डिग्री सें.) उपचारित करना चाहिए। अगर हिदायत दी गई हो तो विशेष खुरचने की विधि अपनाई जाये। इन बीजों को फिर पानी में 10-12 घंटे तक भिगोया जाये ताकि इनका शीघ्र अंकुरण हो सके। फूले हुए बीज जल्दी अंकुरित होते हैं, जो बीज पूरी तरह न फूले हों अपेक्षाकृत देर में अंकुरित होते है। जो बीज पानी के ऊपर तैरने लगें वे जीवन क्षम नहीं हैं और उन्हें फेंक देना चाहिए। भीगे हुए बीजों को तत्काल बो देना चाहिए। दलहनी बीजों पर बुआई से ठीक पहले उपयुक्त राइजोबियम का लेप करना चाहिए।
बुआई
बीजों को कतारों में बोना चाहिए। उंगलियों से या छड़ी की सहायता से क्यारी में 0.5-1 सें.मी. गहराई के उथले कुंड तैयार किये जायें और उनके बीच की दूरी 12-15 सें.मी. हो। 3 x 1.25 मी. वाली क्यारी में 20-25 कतारें होंगी। कुंडों में बीज 2 सें.मी. के फासले से बोये जायें। यदि बीजों की जीवन क्षमता कमजोर हैं तो इस दूरी को केवल 1 सें.मी. ही रखा जाये। बीजों को डालने के बाद, कुंडों के ऊपर मिट्टी डाल कर दबा दिया जाये ताकि क्यारी की सतह समतल हो जाये।
बीज की गहरी बुआई न करें तो बेहतर है। कुंडों में बुआई करने से आप गहरी बुआई से बच जायेंगे। बुआई का दूसरा तरीका या है कि बीज की अलग-अलग सूराखों में खूंटी डाल कर चोबा जाये। ऐसी किस्मों की बुआई के लिए जिन के बीज बहुत ही छोटे होते हैं, विशेष हिदायतें दी जाती हैं। यूकेलिप्टस और कैजुआरीना के बीजों को क्यारी के ऊपर बिखेरते हैं और फिर ऊपर की मिट्टी को दबा कर सतह को ठोस बनाया जाता है।
बाद की देख-रेख
बुआई के तुरन्त बाद क्यारियों की सिंचाई की जानी चाहिए। कई जगहों में, सिंचाई से पहले लोग क्यारियों को घास से ढंक देते हैं। हालांकि इसमें खर्चा अधिक होता है पर यह तरीका अच्छा है। इसके लाभ ये हैं: बीज बहते नहीं, कड़कती धूप या पानी से कोमल क्ल्लों को हानि नहीं पहुंचती और चिड़ियों द्वारा कल्लों का उखाड़ना भी रोका जा सकता है। घास की परत को अंकुर आने के बाद में या धीरे-धीरे हटाया जा सकता है।
प्रतिदिन फव्वारे से हल्की सिंचाई की जानी चाहिए।
नाशी कीट और बीमारियों की समस्याएं तो क्यारियों में साधारण हैं। फूटते हुए कल्लों को चीटियाँ खा जाती हैं। दीमक क्यारियों के ऊपर बिछाई घास की पलवार पर हमला बोल सकते हैं। वे पौधों पर भी आक्रमण कर सकते है। बुआई के तुरन्त बाद, हैप्टाक्लोर या एल्ड्रिन के प्रयोग से इन हमलों से बचने में मदद मिल सकती है।
4-6 सप्ताह बाद माहू (एफिड) पौधों पर हमला बोलते हैं। दैहिक कीटनाशी रसायनों का छिड़काव करना चाहिए। पत्तियाँ चट करने वाली सुंडियों (केटर पिलर) की रोकथाम मैलाथियोन से की जा सकती है।
आरंभिक अवस्था में आर्द्रगलन आम बीमारी है। तांबे का फफूंदनाशी रसायन (कापर फंगीसाइड) के तत्काल छिड़काव से इस बीमारी की रोकथाम की जा सकती है।
खरपतवार नियमित रूप से निकाले जाने चाहिए। पौधों खरपतवारों को हर्गिज हावी मत होने दें।
जहाँ बुआई के आठ दस दिन बाद भी अंकुरण कम हो वहाँ चौबाई द्वारा क्यारी की सतह को छेड़े बिना दोबारा बुआई की जानी चाहिए। या जहाँ ज्यादा घनी पौध हो, घने पौधों को उखाड़ा जा सकता है और उन्हें खाली जगहों पर रोपा जा सकता है। यह काम शाम को किया जाना चाहिए। 1.25 x 3.0 मी. की क्यारी में 600-800 से अधिक पौध नहीं होनी चाहिए। अधिक पौधों को भीड़-भाड़ कम करने के लिए 2-3 सप्ताह बाद उखाड़ देना चाहिए।
चौथे सप्ताह में 5 प्रतिशत यूरिया का 10 लीटर घोल हर क्यारी के पौधों पर छिड़कना चाहिए। जैसे ही आप यह घोल छिडकें, उसके तत्काल बाद हल्की सिंचाई कर दें ताकि गर्मी उन पर असर न करें। यदि घोल कम शक्ति का हो यानी 0.5-1 प्रतिशत का हो तो ऐसी सिंचाई की भी आवश्यकता नहीं है। 3-4 सप्ताह बाद फिर से घोल का छिड़काव किया जा सकता है।
पौध की बढ़वार की दर पर बुआई का समय निर्भर करता है। धीरे-धीरे बढ़नेवाली किस्मों की बुआई जल्दी की जानी चाहिए ताकि मानसून शुरू होने तक पौधों की अच्छी ऊँचाई यानी कम से कम 20-30 सें.मी. हो सके।
ऊँची पौधों का इस्तेमाल करना बेहतर है हालांकि इनके लिए शुरू में अधिक देखभाल की आवश्यकता होती है। रोपाई से पहले, अंतिम कुछ दिनों के दौरान पौधों पर सिंचाई की मात्रा और सिंचाई का अंतराल कम करना चाहिए ताकि पौध कुछ सख्त हो सकें।
पौधों को उखाड़ने से पहले, पूरी क्यारी में भरपूर सिंचाई करनी चाहिए ताकि मिट्टी ढीली पड़ जाये और पौधों को आसानी से उखाड़ा जा सके।
नंगी जड़ों वाली पौधों को लम्बे समय तक हवा या धूप में हर्गिज खुला नहीं छोड़ना चाहिए। पौधों की गड्डियां बनानी चाहिए और पूरी जड़ों वाले हिस्से को गीले टाट या बोरी के टुकड़े से ढकना चाहिए। पत्तियों वाले ऊपरी हिस्से को नहीं ढकना चाहिए। इन गड्डियों को छाया में ले जाना चाहिए और खेत में ले जाने तक खड़ी हालत में रखना चाहिए। जड़ों वाले हिस्से पर पानी बार-बार छिड़कना चाहिए ताकि टाट या बोरी का टुकड़ा गीला रहे।
पौध ले जाते समय, उनपर सीधी धूप नहीं पड़नी चाहिए। धूप न पड़ने से नमी भाप बन कर नहीं उड़ती और जड़ों में नमी बनी रहती है।
पोलीथीन थैलियों में पौध लगाना
आप जिस आकार के पौधे उगाना चाहते हैं, पोलीथीन थैलियों का आकार भी उसी के अनुसार अलग-अलग होना चाहिए। 10 x 15 सें.मी. का आकार ठीक है। इस बात का अवश्य ध्यान रखें कि थैलियों की तली में छेद हों ताकि पानी रिस सके।
थैलियों में भरी जाने वाली मिट्टी से पानी निकला हुआ हो और मिट्टी का पी.एच. मान उदासीन (न्यूट्रल) रेंज में हो। ऊँचे या नीचे पी.एच. मान से कम बढ़वार की या पौधों के मरने की समस्या पैदा हो सकती है।
घूरे की खाद और नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश के 15:15:15 मिश्रण को प्रति थैली क्रमश: कम से कम 50 ग्राम व 10 ग्राम की दर से मिट्टी के साथ मिलाकर थैली में डालें। लकड़ी की राख भी इसमें डाली जा सकती है। प्रत्येक थैली में 0.5-1 सें.मी. की गहराई पर 1-2 बीज बोने चाहिए।
शुरू की बुआई के दो सप्ताह के अंदर थैली के खाली भाग को भरना चाहिए। इन थैलियों को आयताकार क्यारियों की शक्ल में व्यवस्थित रूप से रखना चाहिए और किनारों पर मिट्टी का सहारा दिया जा सकता है।
सिंचाई सावधानी से की जानी चाहिए। अधिक सिंचाई से आद्रंगलन हो सकता है और अगर पानी की कमी हो तो बढ़वार रुक सकती है।
2-3 सप्ताहों के अंतराल पर पालीबैग का स्थान बदलना चाहिए ताकि पौध की जड़ें थैली फाड़ कर जमीन में न घुस जायें। थैलियों का स्थान बदलते समय, पौधों को उनकी ऊँचाइयों के अनुसार समूहों में रखा जाये।
थैलियों में मिट्टी को प्राय:हिलाना डुलाना चाहिए ताकि मिट्टी की कड़ी परत या नमक की परतें न बन पायें।
पौधों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने में सावधानी बरतनी चाहिए। थैलियों में ठूंस कर भराव किया जाना चाहिए और ऊपर से घास या खेती की छीजन से ढक दें ताकि थैलियों से मिट्टी न गिरे और जड़-प्रणाली में गड़बड़ी न हो।
पौधों की रोपाई और जमाव
भूमि की तैयारी
जमीन की तैयारी करते समय, केवल पौध रोपण का ही उद्देश्य नहीं होना चाहिए बल्कि भूमि के विकास का भी ध्यान होना चाहिए, जिससे मिट्टी का कटाव रुक सके, पानी के रिसाव में सुधार हो, जैवी तत्व बना रहे और पेड़ों के बीच घास का आवरण विकसित हो सके।
केवल गड्ढे खोदने और पौधों की रोपाई से इन उद्देश्यों की पूर्ति नहीं हो सकती। इसके अतिरिक्त, समोच्च बांध (कन्टूर) बनाना और गूलों को बंद करना भी आवश्यक हैं। इन कामों में पैसा लगता है, लेकिन इससे पौधों के जमाव व बढ़वार में मदद मिलती है।
उथली मिट्टी
उथले पहाड़ी इलाकों में, कई आदमी यह महसूस करते है कि वहाँ कम से कम 0.6 x 0.6 x 0.6 मी. आकार के गड्ढे खोदना अनिवार्य है ताकि जड़ों की ठीक बढ़वार हो सके। लेकिन इस तरह की योजनाओं से पूरा कार्यक्रम ठप्प पड़ सकता है चूँकि इसमें बहुत लागत आती है। एक गड्ढा खोदने में ही 2 से 4 रु. तक लग जाते हैं और इन गड्ढों को भरने के लिए खेती योग्य खेतों से अच्छी मिट्टी लाकर भरनी पड़ेगी। इस प्रकार, एक हैक्टर क्षेत्र में लगभग 5000 पौधे लगाये जा सकते हैं और उनपर लगभग 20,000 रूपये तो केवल भूमि की तैयारी पर ही खर्च हो जायेंगे।
इतनी भारी लागत को कम करने के लिए, हमें ऐसे ड्रिलरों की आवश्यकता होगी जो हाथ से चलाए जायें। छेद खोदने वाले ये ड्रिलर बैटरी से चलाए जाने वाले हो सकते हैं या छोटे डीजल इंजिन से चलने वाले हो सकते हैं, हाँ मिट्टी के बरमे और ड्रिलिंग मशीन को भी ध्यान में रखना चाहिए।
गड्ढों के खोदने की लागत को ऐसे क्षेत्रों में कम किया जा सकता है जहाँ कुंडों को बनाया जा सकता है। उथली पथरीली मिट्टियों में, ट्रैक्टर से चलने वाले अवमृदा हल (सब सायलर) का इस्तेमाल कुंड बनाने से पहले मिट्टी को ढीली करने के लिए किया जा सकता है। हल को दो-तीन बार चलाकर इन कुंडों को और गहरा बनाया जा सकता है।
ढालू जमीन के आर-पार जो कुंड समोच्च (कन्टूर) के साथ-साथ बनाई जाये वे छोटे-छोटे बांधों का काम करते हैं जिनसे बरसाती पानी रुक सकता है और पेड़ों से गिरी हुई पत्तियाँ आदि भी वहीं रुक सकती है।
20-25 सें.मी. गहरी कुंड खोदने के बाद, कुंडों को रंभे से या बेलचे आदि से गोलाकार (15 सें.मी. व्यास और 20-25 सें.मी. गहराई) बनाया जा सकता है। यह काम पौध रोपने से ठीक पहले करना चाहिए। गड्ढे की गहराई 20-45 सें.मी. हो जोकि पौध के आकार और मिट्टी की गहराई पर निर्भर है।
हालांकि इन गड्ढों को बाहर से उपजाऊ मिट्टी लाकर भरना लाभदायक है पर इस काम में ज्यादा लागत आने के कारण, इसे करने की जरूरत नहीं है। जिन क्षेत्रों की मिट्टी लवणीय है या चट्टानी है वहाँ ऐसा करना अनिवार्य है। बढ़वार में तेजी लाने के लिए प्रत्येक गड्ढे में 50-100 ग्राम घूरे की खाद मिलाई जा सकती है।
दूसरी किस्म की मिट्टियाँ
समुद्र के तटवर्ती बालू वाले क्षेत्रों में पौधों की रोपाई के लिए गहरी कुंड खोदनी चाहिए। पौधों के जमाव के बाद, पौधों की कतारों को डौलों में बदल देना चाहिए। जिसके लिए कतारों के बीच में कुंडे खोदनी चाहिए। ये डौलें पौधों को जल लग्नता की स्थिति से बचाएंगी, कुंडों का उपयोग खेतों की सिंचाई के लिए किया जा सकता है।
दलदली क्षेत्रों में, 50-75 सें.मी. की डौलें तैयार करनी चाहिए और पौधों को डौलों पर रोपना चाहिए। डौल की ऊँचाई का संबंध सीधा ही जललग्नता की मात्रा (मामूली या भयंकर) से है। ऐसी बहुत सी किस्में हैं जो जललग्नता क्षेत्रों में उगाई जा सकती हैं लेकिन अधिकांश ऐसी किस्में हैं जिनका शीर्ष (क्राउन) पानी में लम्बे समय तक डूबना बर्दाश्त नहीं कर सकता। ऐसे क्षेत्रों के लिए ऊँची डौलों पर रोपाई करना एक मात्र उपाय है।
ऊसर भूमि में, पौधों की बढ़वार को रोकने का मुख्य कारण मिट्टी में नमक का अधिक अंश होना और जललग्नता है। ऐसी जगहों में नमक नमी के साथ ऊपर आ जाता है और पौधे के इर्द-गिर्द एक परत बना देता है जिससे पौधे की छाल को हानि पहुंचती है। दूसरी बात या है कि कम जल निकासी के कारण कोमल जड़ों का अपघटन होना शुरू हो जाता है। इस समस्या का समाधान करने के लिए, ऊँची डौलें और गहरी कुंड तैयार की जानी चाहिए और पौध डौल के एकदम ऊपर रोपी जानी चाहिए, जैसा कि दलदली भूमियों के लिए भी बताया गया है। इससे बेहतर जलनिकासी होती है और नमक डौल के ऊपर पहुंच भी नहीं पाते। इस प्रकार, पौध भली भांति जम जायेंगी।
खादरों या नदी की घाटियों या नदी के किनारों में, मिट्टी के कटाव का खतरा बना रहता है। ऐसे क्षेत्रों में, खुले बलुई क्षेत्रों में अच्छी किस्म वाली घास लगानी चाहिए, विशेषरूप से बांधों और ढलानों में। घास के इस आवरण से बांध की रक्षा होगी और जड़ों की मजबूत पकड़ के कारण मिट्टी को थाम कर रखेगी। जहाँ भी संभव हो, मिट्टी के बांधों और बलुई ढलानों को ढकने के लिए मैदानों से लाई गई अच्छी घास वहाँ लगानी चाहिए।
फसल
प्रति हैक्टर ऊर्जा पौधों की संख्या 1500 से 10,000 के बीच हो सकती है। पौधों की संख्या कितनी है यह नीचे लिखे कारणों पर निर्भर है:
- किस्में;
- मिट्टी का उपजाऊपन;
- नमी की उपलब्धता;
- जमाव की विधि।
जिन पेड़ों की शाखाओं के बीच अधिक फासला होता है, उन्हें अधिक जगह चाहिए। तेजी से बढ़ने वाली किस्मों को जिनका समय चक्र थोड़ा होता है, पास-पास लगाया जा सकता है। पौधों की घनी संख्या को घटिया ही बर्दाश्त नहीं कर सकती। जहाँ नमी कम हो वहाँ पौधों की संख्या कम रखनी चाहिए। यदि पौधों की सीधी ही बुवाई की जाये, तो शुरू-शुरू में पौधों को घना रखा जाये और बाद में उनकी छंटनी की जाये।
बंजर भूमियों के विकास कार्यक्रम में आमतौर पर फासले यों रखे जाते हैं 2 x 1 मी., 2 x 2 मी.3 x 1 मी., 3 x 2 मी. ।
रोपाई
रोपाई का समय मिट्टी में नमी की स्थिति पर निर्भर करता है। जिन क्षेत्रों में सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध है वहाँ साल के किसी भी समय रोपाई की जा सकती है। जो सिंचाई वर्षा पर निर्भर है, उसके लिए रोपाई का सबसे अच्छा समय जून-जुलाई है यानी कुछ बौछारें पड़ने के बाद, क्योंकि तब तक खेत गीला हो जायेगा। फिर भी बेहतर तो यही होता है कि अच्छे जमाव के लिए एक-दो बार हाथ से सिंचाई कर दें।
घूरे की खाद (फ़ार्म यार्ड मैन्योर)
यदि मिल सके तो खाद रोपाई के पहले गढ़े में 0.2-1.0 कि. ग्रा. मिट्टी के साथ मिला दें। आमतौर पर बलुई और दुमट मिट्टियों में दीमकों का प्रकोप पाया जाता है। ऐसे क्षेत्रों में, उपयुक्त कीटनाशी दवा जैसे एल्ड्रिन (0.5-1.0 प्रतिशत) मिट्टी के साथ मिलानी चाहिए। यह दवा घूरे की खाद को मिट्टी में मिलाने के बाद दें या फिर पौध रोपते समय दें।
नंगी जड़ों वाली पौध को रोपने से पहले, इस बात का भरोसा कर लेना चाहिए कि गड्ढे की गहराई इतनी काफी है कि पौध की जड़ों के रेशे सीधे रखे जा सकें।
आमतौर पर किसान लम्बी मूसला जड़ों को लगाना चाहता है। वह सोचता है कि केवल ऐसी जड़ें मिट्टी को भेद कर अंदर जा सकती है। इस प्रक्रिया में वे 30-40 सें.मी. के गहरे गड्ढे में 45-60 सें.मी. की लम्बी जड़ें घुसेड़ना चाहते है जिसके लिए वे या तो जड़ों को मोड़ देते है या गोल बना देते हैं। यह विधि अच्छी नहीं है। यह पता लगाया गया है कि इस तरह मोड़ी गई जड़ें बढ़ती नहीं हैं और न वे पौधों का विकास कर सकती है। इस प्रकार पौधों की बढ़वार हमेशा के लिए रुकी रहेगी। ऐसे मामलों में जहाँ मूसला जड़ें बहुत लम्बी हों वहाँ मुकुट से 20-25 सें.मी. नीचे, रोपाई से पहले काट दें ताकि पूरी जड़ गड्ढे में खड़ी रखी जा सकें।
नंगी जड़ों की रोपाई करते समय,दूसरा तरीका यह है कि उसकी दूसरी पत्तियाँ काट दी जाये लेकिन अंतिम कलिका की छोटी कोमल पत्तियों को न तोड़ा जाय। इस प्रकार, भाप उड़ने से होने वाली नमी की कमी की दर घट जायेगी और पौध सूखेगी नहीं। इसके अतिरिक्त, पत्तियां निकाली गई इन पौधों को गोबर के गाढे घोल में रोपाई से पहले डुबाना चाहिए। गोबर के घोल की परत से उन जोड़ों से नमी उड़ने में रुकावट होंगी जहाँ पत्ती निकाली जाती है। इससे पौधों की मवेशियों के चरने से भी रक्षा होगी।
पोलीथीन थैलियों में उगायी गई पौध की रोपाई करते समय, थैली को निकाल लेना चाहिए लेकिन ध्यान रहे कि जड़ों के चारों तरफ लिपटे हुए मिट्टी के गोले को कोई हानि न पहुंचे। थैले को दोनों खड़ी तरफ से ब्लेड से काट दें।
रोपाई के समय सिंचाई
रोपाई से ठीक पहले सबसे पहली सिंचाई करनी चाहिए। अधिकतर लोग रोपाई के ठीक बाद सिंचाई करने की गलती करते हैं। हालांकि दोनों समय पानी बराबर मात्रा में लगता है लेकिन ज्यादा महत्व पौध के जमाव पर असर पड़ने का है। सबसे अच्छा तरीका तो यह है कि गड्ढे में 1-2 लीटर पानी डालें और पौध की जड़ वाले भाग का तत्काल गड्ढे में डुबा दें। इसके बाद पौध में थोड़ी गीली मिट्टी लगा दें। इसके बाद, गड्ढे की गीली सतह में सूखी मिट्टी भर दें। सूखी मिट्टी का बहुत दबाना जरूरी नहीं है।
इस तरीके के लाभ ये हैं:
- जड़ के क्षेत्र की सभी खली शुष्क जगहों में पानी भर जाता है और गीली मिट्टी उसे ठोस रूप देती है।
- जड़ें तत्काल ही पानी के सम्पर्क में आ जाती हैं और नमी को सोखना शुरू कर देती हैं।
- गीली मिट्टी के ऊपर सूखी मिट्टी डालने से, सूखी मिट्टी की पलवार बन जाता है और अवमृदा तथा ऊपरी मिट्टी के बीच के गीले भाग में केशिका ट्यूब निर्माण की निरंतरता भंग हो जाती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि जड़ क्षेत्र से नमी का उड़ना रुक जाता है।
रोपाई के बाद सिंचाई करने से, मिट्टी की ऊपरी सतह गीली रहती है और जड़ क्षेत्र के साथ कोशिका सम्पर्क बना लेती है। वाष्पोत्सर्जन की प्रक्रिया में, अंदर की नमी जड़ क्षेत्र से भी खिंच कर बाहर आती है।
अगर बारिश में देर हो जाये तो दूसरी बार 10-15 दिन के बाद सिंचाई करनी चाहिए।
उर्वरक
बंजर भूमियों में प्राय: बड़े पोषक तत्वों और सूक्ष्म मात्रिक पोषक तत्वों की कमी पाई जाती है। बेहतर यह है कि अलग-अलग खेतों की मिट्टी के नमूने लिए जायें और उनका विश्लेष्ण कराया जाये ताकि पता चल सके कि नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश जैसे बड़े तत्वों और मैंगनीज, जस्ता, ताबा, मोलिब्डेनम जैसे अल्प तत्वों में किन-किन की कमी है।
सामान्य स्थितियों में, पौध लगाने के बाद या पौध लगाने के दो सप्ताह बाद एन. पी. के (15:15:15) या (10:20:20) की लगभग 25-20 ग्राम मात्रा की मूल खाद डाली जाये। पौध लगाने से पहले उर्वरक देने का लाभ है क्योंकि इसका कारगर प्रभाव होता है। लेकिन इसमें खतरा यह है कि जड़ों से उर्वरक का सीधा सम्पर्क हो सकता है। इसलिए पौध लगाने के दो सप्ताह बाद उर्वरक देना सुरक्षित है।
उर्वरक को या तो पौध के चारों ओर थाले में दिया जाये या पौध से 10-15 सें.मी. की दूरी पर पौध के दोनों ओर 10-15 सें.मी. गहरे गड्ढों में दिया जाये। कुछ मिट्टियों में पोषक तत्व मिल जाते है और पौधों को नहीं मिलपाते। इस समस्या का समाधान काफी हद तक गड्ढों में उर्वरक डाल कर किया जाता है। जहाँ समस्या गंभीर हो, वहाँ पत्तियों पर उर्वरक का घोल छिड़का जा सकता है। अम्लीय मिट्टियों में फास्फोरस की उपलब्धता समस्या होती है। ऐसे क्षेत्रों के लिए, उर्वरक देने से पहले चूने के साथ सुपर फास्फेट (1:1) मिला कर देना चाहिए। एन.पी.के. उर्वरक का मिश्रण देने से पहले, इसके साथ अल्पमात्रिक पोषक तत्व को भी (लगभग 1 कि. मिश्रण प्रति हैक्टर) मिलाना बेहतर है।
जिन मिट्टियों में कुछ विशेष सूक्ष्म मात्रिक पोषक तत्वों की कमी पाई गई है, उनमें विशेष पोषक तत्व दिए जाने चाहिए। बुआई के 4-5 महीने बाद, विशेषरूप से गैर दलहनी किस्मों में, प्रति पौधा 10 ग्राम यूरिया का खड़ी फसल पफ छिड़काव करना चाहिए। कटाव वाली मिट्टियों में और खनिज क्षेत्रों में यूरिया के बदले अमोनियम सल्फेट का इस्तेमाल करना चाहिए और आवश्यक समझे जाने पर मात्रा को भी दुगुना किया जा सकता है।
सिंचाई और पानी का सरंक्षण
पेड़ के अधिकतम विकास के लिए 20-30 दिन के अंतर पर नियमित रूप से सिंचाई की जानी चाहिए। पेड़ की बढ़वार का सीधा अनुपातिक संबंध नमी की उपलब्धता से होता है जबतक कि खेत संतृप्त न हो जाये। अतएव, सूखे क्षेत्रों में सिंचाई करने के अधिक से अधिक यत्न करने चाहिए। जहाँ भारी वर्षा होती हो वहाँ भी, गर्मियों में कुछ सिंचाई करना लाभदायक है। लबालब सिंचाई नहीं करनी चाहिए क्योंकि इससे उपजाऊ मिट्टी का कटाव होता है और पानी भी ज्यादा लगता है।
सिंचाई के दूसरे साधन हैं:
- कुंडों से सिंचाई;
- हाथ से होजपाइप से सिंचाई;
- छिड़काव यंत्र (स्प्रिकलर) से सिंचाई;
- ड्रिप सिंचाई।
अलग-अलग पौधों की होजपाइप से सिंचाई करने से ज्यादा मेहनत पड़ती है। छिड़काव से पानी की बचत होती है पर इस पर होजपाइप की तुलना में आरंभ में ज्यादा पैसा खर्च होता है।
सबसे अच्छी ड्रिप विधि है जिससे पानी, पोषक तत्वों और मिट्टी सभी का संरक्षण होता है, लेकिन यह विधि खर्चीली है। पी.वी.सी. के दामों में कमी होने और बड़े पैमाने पर इनके उत्पादन से ड्रिप सिंचाई निश्चय ही खूब चल निकलेगी। विभिन्न क्षेत्रों में स्थलाकृति, मिट्टी की किस्म, पेड़ों की किस्म और पानी की उपलब्धता को ध्यान में रखते हुए ड्रिप और स्प्रिकलर विधि अपनाने का निश्चय करना चाहिए।
दूसरा महत्वपूर्ण पहलू खेत में नमी का संरक्षण करना है। पौधे के इर्द-गिर्द खरपतवारों को निकाल फेंकने और पौधे के थाले में पलवार सामग्री के उपयोग से यह काम हो सकता है। पलवार के लिए सूखी घास, खरपतवार या कंकड़ों का प्रयोग किया जा सकता है। घास की पलवार में यह खराबी है कि यह आग पकड़ सकती है या इसमें दीमक लग सकते हैं। अतएव, उपयुक्त सावधानी बरतनी चाहिए।
निराई-गुड़ाई
पेड़ों की कतारों के बीच में, जहाँ कहीं भी संभव हो, हैरों चलाना चाहिए। आरंभिक वर्षों में 1-2 बार चलाना उपयुक्त है। इसके बाद कंकड़-पत्थर इकट्ठे कर फेंक दें और तब अच्छी क्वालिटी के घास के बीज बो दें। दो साल के अंदर ही, खेत में अच्छी खासी घास जम जायगी। बड़ी होने पर घास को मवेशियों के लिए काटा जा सकता है। लेकिन मवेशियों द्वारा सीधी चराई हर्गिज न कराएं।
घास को काटो और ले जाओ’ प्रणाली से घास भी अधिक पैदा होगी और मवेशी पेड़ों को हानि भी नहीं पहुंचाएंगे। गिनी घास छाया में भी उग सकती है और यदि वन-चरागाह प्रणाली के अंतर्गत उगायी जाये तो उपज भी अधिक देती है। स्टाइलो और सिराटो जैसे दलहनी पौधे पेड़ों के बीच में भली भांति जम सकते हैं और चारे की गुणवत्ता को भी सुधार सकते हैं।
बाद की देख-रेख
लोग प्राय: छोटे-छोटे पेड़ों को साधने (ट्रेन करने) और काट-छांट के कामों में बहुत खर्चा करते हैं। जहाँ पौधों को बहुत पास-पास लगाया गया हो, वहाँ पेड़ों को साधने की कोई आवश्यकता नहीं है, हाँ वहाँ आवश्यकता पड़ती है जहाँ मालिक खंभों के लिए या इमारती लकड़ी के लिए पेड़ उगाते हैं। पेड़ों को पास-पास लगाने से पेड़ों की शाखाओं का फैलाव अपेक्षाकृत कुछ नियंत्रित हो जाता है। जब पेड़ की ऊँचाई कम से कम 2 मी. हो तो अगल-बगल की शाखाओं की कटाई-छंटाई की जा सकती है। जहाँ पेड़ों को बहुत ही घना लगाया गया हो वहाँ काट-छांट आवश्यक नहीं है क्योंकि बगल की शाखाओं को रोशनी नहीं मिलती और शनै: वे खुद ही सूख कर नीचे झड़ जाती हैं। हाँ, चारे के पेड़ों की बगल की शाखाएं नियमित रूप से काटी-छांटी जा सकती हैं ताकि उन्हें मवेशियों को खिलाया जा सके।
कुछ मामलों में, जब अंतिम कलिका आग, सूखे, पाले या चराई से क्षतिग्रस्त हो गई हो तो मुकुट या कक्ष से नई कोंपल भारी संख्या में निकलती है। ऐसे खेतों में, नई कोंपलें निकलने के दो-तीन महीने बाद काट-छांट करनी चाहिए और केवल 1-2 मजबूत और सीधी कोंपलों को रखे रहना चाहिए।
मिट्टी
हर साल खेत में मिट्टी को उलट-पुलट के लिए हैरो चलाना चाहिए जिसका पेड़ों की बढ़वार पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा क्योंकि इससे:
- आहार पहुँचाने वाली जड़ें सक्रिय होंगी;
- मिट्टी में खेत का कचरा व छीजन मिल जायेंगे;
- हवा मिट्टी में आ-जा सकेंगी और पानी अंदर जा सकेगा;
- जो खरपतवार होंगे, वे निकल जायेंगे;
- मिट्टी छोटे पौधे को सहारा देगी और पौधा सीधा बढ़ेगा और
- मिट्टी की पलवार बनने से मिट्टी की नमी भाप बनकर नहीं उड़ेगी, लेकिन जहाँ पेड़ बहुत घने हों वहाँ हैरों चलाना संभवत: उपयुक्त न हो, लेकिन एक बैल से चलने वाले हैरो का इस्तेमाल वहाँ किया जा सकता है।
पौध रक्षा
पौधों की रक्षा महत्वपूर्ण पहलू है। बगीचों या खेतों में चरने वाले पशुओं या जबरन घुसने वाले व्यक्तियों का प्रवेश वर्जित होना चाहिए। आमतौर पर जिन पेड़ों का चारा पशु नहीं खाते उनके बीच उगनेवाली घास को चराने के लिए लोग अपने मवेशी छोड़ देते हैं। इस काम को बंद कर देना चाहिए। मवेशी न केवल पेड़ों को हानि पहुँचाते हैं बल्कि मिट्टी को दबा कर ठोस कर देते हैं और इस प्रकार पौधों की बढ़वार को रोकते हैं। मवेशी कभी-कभी जोर से जड़ सहित घास को उखाड़ते हैं और इससे मिट्टी का कटाव हो सकता है।
बाड़ों और खाइयों व टीलों के अतिरिक्त, पौधों पर बराबर निगरानी रखने की भी व्यवस्था होनी चाहिए। बेहतरीन विकल्प तो यह है कि निगरानी के लिए कुछ आदमी रख लिए जायें। ऐसे लोग न केवल निगरानी रखेंगे बल्कि पहले दो सालों में बाड़ों की देखभाल भी कर सकते हैं।
दूसरे और बाद के वर्षों में देखभाल
दूसरे वर्ष के दौरान पेड़ों और छोटे-छोटे पौधों के इर्दगिर्द घास और खरपतवार को काटना आवश्यक है।
अगर मिट्टी का उपजाऊपन कम हो तो दूसरे और तीसरे वर्षों में 50-100 ग्राम मिले-जुले उर्वरक का खड़े पेड़ों पर छिड़काव किया जाये।
सूखे के दौरान अगर पानी मिल सके तो सिंचाई की जानी चाहिए।
नाशी कीट और बीमारियाँ
अब तक नाशीकीट और बीमारियों से विकट समस्या पैदा नहीं हुई लेकिन पेड़ों पर कड़ी नजर रखनी चाहिए कि कही उनपर कीट-व्याधियों का प्रकोप न हो और ऐसा दिखाई देने पर उपयुक्त रोकथाम के उपाय करने चाहिए।
आग
आग से बचाव भी महत्वपूर्ण है। अगर कम से कम हद के चारों ओर की घास काट दी जाये तो आग से बचाव में मदद मिलेगी। बाड़ के लिए रामबांस लगाने से और खेतों के बांधों पर लगाने से काफी हद तक आग से रक्षा हो सकती है।
बिरलन (छितराना) और कटाई
अधिक घनत्व वाले और कम समय वाले समय-चक्र के वृक्षों से सबसे अधिक बायोमास यानी लकड़ी, पत्ती आदि सभी कुछ मिलता है। ईंधन की लकड़ी के लिए, सभी पेड़ों को तीन से लेकर पाँच साल के बाद काटा जा सकता है, हाँ कटाई बढ़वार पर निर्भर करती है मुख्य तने का व्यास बेहतर पैरामीटर (प्राचल) है। कटाई के समय 1.3 मीटर ऊँचे (डी.बी.एच) पौधे के मुख्य तने का व्यास 5 से.मी. होना चाहिए। जिन पेड़ों के तनों का व्यास इससे कम हो, उनकी लकड़ियाँ जल्दी जलेंगी और इससे ऊर्जा की भारी बरबादी होगी।
ईंधन की लकड़ी के दाम अन्य लकड़ियों के दामों की तुलना में सबसे कम होते हैं। इसलिए किसान यह भी चाहेंगे कि कुछ ऐसे भी पेड़ रखे जायें जिनसे बेहतर लकड़ी मिले और दाम भी अच्छे मिल सकें। पेड़ों से और भी चीजें मिलती है जैसे लकड़ी से लुगदी, खंभे और इमारती लकड़ी।
लुगदी वाले कारखानों को सप्लाई के लिए लकड़ी का न्यूनतम व्यास 4 से.मी. होना चाहिए। घटिया मिट्टियों में और जहाँ नमी की कमी हो, पेड़ दो साल के बाद धीरे-धीरे बढ़ते हैं और इस आकार तक पहुँचने के लिए उन्हें कई साल लग जाते है। इसी प्रकार अगर आपको खंभे के लिए पेड़ उगाने हों तो उनका कम से कम डी.बी.एच 10 सें.मी. हो और इस आकार तक पहुँचने में विशेष रूप से घने पेड़ों में तो कई साल लग जाते हैं। ऐसे मामलों में, पेड़ों की संख्या आधी कर देनी चाहिए। इसके लिए 2-3 साल बाद एक छोड़ कर एक पेड़ काट डालना चाहिए। इस प्रकार अधिक बायोमास (लकड़ी पत्ती आदि) उपलब्ध हो सकेगा। बाकी पेड़ों को सूरज की अधिक रोशनी और जगह मिल सकेगी और इस प्रकार वे और तेजी से बढ़ सकेंगे। जल्दी ही अधिक आमदनी मिलने में सहायता मिलेगी।
अधिक घने पेड़ लगाने के लाभ
आमतौर से वे किसान जो खंभों और इमारती लकड़ी के लिए पेड़ उगाते हैं, वे पहले ही पेड़ों के बीच में अधिक फासला रखते हैं, बजाय इसके कि वे बाद में घने पेड़ों को छितरा करें और इस प्रकार नीचे लिखी समस्याएं पैदा होती हैं:
- संभव है कि मुख्य तना सीधा न जाये।
- बगल की शाखाएँ खूब बढ़ती हैं और मुख्य तने से होड़ करती है।
- पानी और दूसरे निवेश (जैसे उर्वरक, कीटनाशी रसायन आदि) की आवश्यकता प्रति पेड़ अधिक होगी।
- खरपतवार अधिक उगेंगे और भाप भी अधिक उड़ेगी।
- प्रति यूनिट बायामास का कुल उत्पादन कम होगा।
घने पेड़ों वाले क्षेत्र में, पेड़ों की संख्या कम करने के बाद, ऐसी किस्मों पर कल्ले फूटेंगे जिनका कटाई के बाद अच्छा पुनर्विकास होता है। इन कल्लों को या तो चारे के लिए काटा जा सकता है या बायोमास के तौर पर बढ़ने दिया जाये जब तक कि दूसरे पेड़ खंभों या इमारती लकड़ी के लिए न काटे जायें।
गुल्म प्रबंध
ऐसी किस्मों को लगाने के लिए जिनका काटने पर अच्छा पुनर्विकास होता है, निराई-गुड़ाई की जानी चाहिए और मिट्टी पलटनी चाहिए। मिश्रित उर्वरक (15:15:15) की 100-200 ग्राम मात्रा मिट्टी में डालनी चाहिए। उर्वरक डालने के लिए मिट्टी में 20-25 सें.मी. गहरे गड्ढे खोद कर डालने चाहिए।
मुख्य पेड़ों को गिराने के बाद, सभी पुराने प्ररोहों को, अगर कोई हों, काट डालना चाहिए ताकि नये प्ररोह एक जैसे उग सकें।
अगर मिट्टी में नमी का स्तर कम हो, तो कटाई के बाद एक या दो सिंचाईयों से नये प्ररोहों के ओज को बढ़ाने में सहायता मिलेगी।
उपज का उपचार और बिक्री
बंजर भूमि में पैदा की गई वस्तुओं को नीचे लिखे वर्गो में उनके उपयोग के आधार पर बांटा जा सकता है:
उपज | उपयोग | |
लकड़ी
|
क. ईंधन |
जलाने की लकड़ी ब्रिकेट (इष्टिका) कोयला |
ख. इमारती लकड़ी |
खंभे व छड़ियाँ संदूक बढ़ई के प्रयोग की वस्तुएं तख्ते नक्काशी के लकड़ी नरम लकड़ी प्लाइउड |
|
ग. लुगदी |
कागज के लिए लुगदी रेयन के लिए लुगदी |
|
चारा
|
: |
हरा चारा सूखी घास पत्तियां रादिब |
आहार
|
: |
सब्जियाँ फल गिरीदार फल शहद/सीरप |
औषधीय वनस्पति
|
: |
घरेलू इस्तेमाल के लिए कच्चे माल |
तेल
|
: |
अखाद्य तेल खाद्य तेल |
तेल की खली |
पशु आहार खाद कीट व्याधि नियंत्रक |
|
दूसरी वस्तुएं
|
: |
गोंद, मोम, रेसिन, लाख, हरी खाद, साबुन के बदले विकल्प और सुगंध पदार्थ |
विपणन बिक्री जरूरी व्यवस्था
ईंधन, चारे, फल और सब्जियों की थोड़ी सी मात्रा को छोड़ कर, दूसरे जिन्सों को उपयोग करने से पहले और उपचारित या साफ़ करना पड़ता है। इसलिए अगर हम चाहते हैं किबंजर भूमि पर पेड़ लगाने के लिए किसानों को प्रेरणा मिले तो हमें उनकी उपज के बेचने और दाम भी ठीक दिलाने की निश्चित व्यवस्था करनी पड़ेगी।
बायोमास लेने वाली व्यवस्था के अंतर्गत लकड़ी को उपचारित करने का प्रबंध हो ताकि उसे मूल्यवान सामग्री में बदला जा सके। सहकारी आधार पर ब्रिकेटिंग मशीन की स्थापना, लकड़ी के परिरक्षण के उपचार संयंत्र, बढ़ईगिरी या ऐसे दूसरे कामों की यूनिटें स्थापित की जायें।
छोटी टहनियां, पत्तियाँ, झाड़ियाँ आदि जल्दी-जल्दी जलती हैं और इस प्रकार भारी ऊर्जा व्यर्थ जाती है। ये चीजे बहुत हल्की होती हैं और इन्हें लाने ले जाने में भी लागत अधिक आती है। इस प्रकार हल्के बायोमास को ब्रिक्रेट (कोयले की ईंटों) में परिवर्तित किया जा सकता है।
वन की उपज को संसाधित करना
वन में पैदा की गई उपज को गाँवों में ही सहकारी संस्थाओं या सरकारी निगमों के माध्यम से संसाधित किया जा सकता है ताकि गाँव वालों को अतिरिक्त रोजगार और अपने माल का उचित दाम मिल सके। सहकारी समितियों को चाहिए कि गाँव के कच्चे माल को इक्ट्ठा करने के काम में समन्वय करे और संसाधित माल के संसाधन और बिक्री की व्यवस्था करे। ऐसी व्यवस्था के ये लाभ होंगे:
- उपज के लिए अधिक दाम,
- लाने ले जाने और बिक्री दाम को कम करना,
- बिचौलिए को समाप्त करना,
- अतिरिक्त मांग पैदा करना,
- अतिरिक्त रोजगार के अवसर पैदा करना।
स्रोत: भारतीय कृषि उद्योग संस्थान