भूमिका
झारखंड की मिट्टी एवं जलवायु पपीता की खेती के लिए अत्यंत ही उपयुक्त है। पपीते का प्रयोग पके फलों को खाने एवं उनसे अनेक परिरक्षित पदार्थ जैसे – जैम, कैन्डी, नेक्टर, पेय पदार्थ आदि बनाने के लिए किया जाता है। इसके कच्चे फलों को सब्जी, मिठाईयाँ आदि बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है। बहुत कम ही लोगों को यह पता है कि पपीते के फलों से निकलने वाले दूध से पपेन का भी निर्माण किया जा सकता है जिसका अनेक औषधीय महत्व है। पपीते से बनने वाले पपेन का क्या प्रयोग होता है और इसकी क्या उपयोगिता है इसी विषय पर चर्चा करेंगे तथा इनसे हम पपेन की पैदावार और उसके उपयोग के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त करेंगे।
प्रश्न: पपेन क्या होता है और इसके लिए किसान भाइयों को कैसे पपीते की खेती करनी चाहिए?
उत्तर: कच्चे परन्तु परिपक्व पपीते के फलों से निकलने वाले दूध को सुखाकर पपेन बनाया जाता है। पपेन उत्पादन के लिए किसान भाइयों को सही किस्म का चुनाव करना चाहिए और उसकी खेती साधारण पपीते की तरह ही करनी चाहिए। पपेन उत्पादन के लिए मुख्य रूप से फलों की अवस्था का ध्यान रखना होता है जिस समय उससे अधिक-से-अधिक पपेन मिल सके।
प्रश्न: पपेन में क्या-क्या गुण हैं और उसका उपयोग कहां-कहां पर होता है?
उत्तर: पपेन एक प्रोटियोलिटिक एन्जाइम (पाचक एन्जाइम) है जो पेपसीन की तरह से काम करता है। इसका उपयोग मुख्य रूप से मांस को मुलायम करने, च्यूंगगम बनाने, सौन्दर्य प्रसाधन के सामान बनाने, त्वचा के दाग दूर करने, अनेक औषधि निर्माण आदि में किया जाता है। पेट का अल्सर दस्त, एक्जिमा, यकृत के रोग, कैंसर के इलाज में पपेन से निर्मित औषधियाँ उपयोगी होती हैं। इसके अतिरिक्त पपेन का प्रयोग मंजन, ऊन की सफाई इत्यादि में भी किया जाता है। पपेन एक पाचकीय औषधि के रूप में कार्य करता है इसीलिए कच्चे पपीते का प्रयोग पेट की परेशानियों को दूर करने में सहायक पाया गया है
प्रश्न: पपेन का उत्पादन किसान भाई कैसे करें?
उत्तर: पपेन उत्पादन के लिए किसान भाई साधारण तरीके के पपीते की खेती करें। पौधों में लगने वाले फल जब 2-3 माह के हो जाएं तब उन फलों पर लम्बाई में 3-4 चीरे लगायें। ध्यान रहे चीरे ज्यादा गहरे न हों और उनसे दूध निकलना चाहिए। चीरे स्टेनलेस स्टील की काँटों या बांस की खपच्चियों से लगायें। चीरा लगाने का सबसे उचित समय सुबह से 12 बजे तक होता है। एक फल में 4-5 दिनों के अंतराल पर 2-3 बार चीरे लगायें जिससे उसका पूरा दूध निकल सके। जब दूध निकलने लगे तब उसे काँच या एल्युमिनियम के बर्तन में इक्ट्ठा कर लें। धातु के बर्तन के प्रयोग से पपेन की गुणवत्ता प्रभावित होती है अत: उसका प्रयोग न करें। दूध को इक्ट्ठा करके पॉलीथीन की चादर पर धूप में (38 डिग्री सेंटीग्रेट) सुखा लें। सुखाने से पहले दूध में 350 पीपीएम (एक लीटर दूध में 350 मि.ग्रा.) पोटैशियम मेटाबाइसल्फाइट को अच्छी तरह मिला दें। इससे तैयार पपेन की भंडारण क्षमता बढ़ जाती है। सूखने के बाद पपेन पतली चादर की परत जैसा हो जाता है अत: इसे चूर करके पॉलीथीन की थैलियों में भरकर भण्डारित करें।
प्रश्न: पपेन के उत्पादन को कौन-कौन सी बातें प्रभावित करती हैं?
उत्तर: पपेन उत्पादन को जो बातें प्रभावित करती है, उनमें मुख्य हैं –
(1) फल का आकार – अण्डाकार फल जिसकी लम्बाई 14-15 सें.मी. और चौड़ाई 10-11 सें.मी. अधिक पपेन मिलता है।
(2) फल की परिपक्वता – 75 दिन पुराने फल से अधिक पपेन।
(3) मौसम – 10 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान उपयुक्त होता है। अक्टूबर माह सबसे अच्छा।
(4) एथरेल का प्रभाव – 200 पीपीएम एथरेल के छिड़काव से पपेन उत्पादन 1.5 गुना बढ़ जाता है।
(5) प्रजाति – CO-2, कुर्ग हनी यू, CO-4, CO-5, Pusa Majesty सबसे अच्छी किस्में।
प्रश्न: अगर सब कुछ अच्छी तरह से किया जाय तो एक पौधे से कितना पपेन निकलता है?
उत्तर: एक पौधे से तीन वर्षों तक पपेन उत्पादन किया जा सकता है। पहले साल एक पौधे से 500-600 ग्राम पपेन पौदा किया जा सकता है। यदि हम 1 हेक्टेयर में देखें तो पहले साल 200-250 कि.ग्रा., दूसरे साल 100-150 कि.ग्रा., तीसरे साल 50-75 कि.ग्रा. पपेन प्रति हेक्टेयर से पौदा होता है।
प्रश्न: पपेन उत्पादन के बाद फलों का क्या उपयोग होता है?
उत्तर: पपेन निकालने के बाद फलों को पेड़ पर पकने के लिए छोड़ दिया जाता है और पके हुए फलों का प्रयोग परिरक्षित पदार्थ बनाने के लिए किया जा सकता है।
स्रोत: समेति तथा कृषि एवं गन्ना विकास विभाग, झारखंड सरकार