परिचय
कटहल का पौधा एक सदाबहार, 8-15 मी. ऊँचा बढ़ने वाला, फैलावदार एवं घने क्षेत्रकयुक्त बहुशाखीय वृक्ष होता है जो भारत को देशज है। भारत वर्ष में इसकी खेती पूर्वी एवं पश्चिमी घाट के मैदानों, उत्तर-पूर्व के पर्वतीय क्षेत्रों, संथाल परगना एवं छोटानागपुर के पठारी क्षेत्रों, बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं बंगाल के मैदानी भागों में मुख्य रूप से की जाती है। कटहल के वृक्ष की छाया में कॉफी, इलाइची, काली मिर्च, जिमीकंद हल्दी, अदरक इत्यादि की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है।
स्वाद एव पौष्टिकता की दृष्टि से कटहल का फल अत्यंत ही महत्वपूर्ण माना जाता है। इसके फल बसंत ऋतु से वर्षा ऋतु तक उपलब्ध होते हैं। बसंत ऋतु में जब प्राय: सब्जी की अन्य प्रजातियों का अभाव रहता है, कटहल के छोटे एवं नवजात मुलायम फल एक प्रमुख एवं स्वादिष्ट सब्जी के रूप में प्रयोग किये जाते हैं। जैसे-जैसे फल बड़े होते जाते है इनमें गुणवत्ता का विकास होता जाता है एवं परिपक्व होने पर इसके फलों में शर्करा, पेक्टिन, खनिज पदार्थ एवं विटामिन ‘ए’ का अच्छा विकास होता है। कटहल के फल एवं बीज में पाये जाने वाले विभिन्न पोषक तत्वों को नीचे की सारणी में दिया गया है:
पोषक तत्व
(प्रति 100 ग्राम) |
कच्चे फल |
पके फल |
बीज |
नमी (प्रतिशत) |
84.0 |
77.2 |
64.5 |
कार्बोहाइड्रेड (ग्रा.) |
9.4 |
18.9 |
25.8 |
प्रोटीन (ग्रा.) |
2.6 |
1.9 |
6.6 |
कुल खनिज पदार्थ |
0.9 |
0.8 |
1.2 |
कैल्शियम (मि.ग्रा.) |
50.0 |
20.0 |
21.0 |
फ़ॉस्फोरस (मि.ग्र.) |
97.0 |
30 |
20.1 |
लौह तत्व (मि.ग्रा.) |
1.5 |
500.0 |
20.1 |
विटामिन ‘ए’ (आइ.यू.) |
0.0 |
540.0 |
17.0 |
थायमिन (मि.ग्रा.) |
0.3 |
30.0 |
17.0 |
भूमि एवं जलवायु
कटहल के पौधे लगभग सभी प्रकार के भूमि में पनप जाते हैं परन्तु अच्छी जल निकास की व्यवस्था वाली गहरी दोमट मिट्टी इसके बढ़वार एवं पैदावार के लिए उपयुक्त होती है। मध्यम से अधिक वर्षा एवं गर्म जलवायु वाले क्षेत्र कटहल के खेती के लिए उपयुक्त होते है। यह देखा गया है कि छोटानागपुर एवं संथाल परगना तथा आस-पास के क्षेत्रों की टांड जमीन जिसमें मृदा पी.एच.मान सामान्य से थोड़ा कम, संरचना हल्का तथा जल का निकास अच्छा है, कटहल की खेती के लिए उपयुक्त पायी गयी है।
उन्नत किस्में
कटहल एक परपरागित फल वृक्ष होने तथा प्रमुखत: बीज द्वारा प्रसारित होने के कारण इसमें प्रचुर जैव विविधता है। अभी तक कटहल की कोई मानक प्रजाति का विकास नहीं हुआ था परन्तु फलन एवं गुणवत्ता का आधार पर विभिन्न शोध केन्द्रों द्वारा कटहल की कुछ उन्नतशील चयनित प्रजातियाँ इस प्रकार हैं:
संस्थान |
विकसित प्रजातियाँ |
बागवानी एवं कृषि-वानिकी शोध कार्यक्रम, राँची नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिकी वि.वि., फैजाबाद केरल कृषि वि.वि., तिरुअनन्तपुरम |
खजवा, स्वर्ण मनोहर, स्वर्ण पूर्ति (सब्जी के लिए) एन.जे.-1, एन.जे.-2, एन.जे.-15 एवं एन.जे.-3 मत्तमवक्का |
खजवा
इस किस्म के फल जल्दी पक जाते हैं। यह ताजे पके फलों के लिए एक उपयुक्त किस्म है।
स्वर्ण मनोहर
छोटे आकार के पेड़ में बड़े-बड़े एवं अधिक संख्या में फल देने वाली यह एक उम्दा किस्म हैं। इसके लगभग 15 वर्ष के पेड़ की ऊँचाई 5.5 मीटर, तने की मोटाई 86 सें.मी., क्षत्रक फैलाव 25.4 वर्ग मी. तथा पेड़ का आयतन 71.2 घन मी. होता है। मध्यम घने क्षत्रक वाले इस किस्म में फरवरी के प्रथम सप्ताह में फल लग जाते हैं जिनको छोटी अवस्था में बेचकर अच्छी आमदनी प्राप्त की जा सकती है। फल लगने के 20-25 दिन बाद इसके एक पेड़ से 45-50 कि.ग्रा. फल सब्जी के लिए प्राप्त किया जा सकता है। इस किस्म के पूर्ण रूप से विकसित फल की लम्बाई 45.2 सें.मी., परिधि 70 से.मी. तथा वजन 15-20 कि.ग्रा. होता है। इसके कोये (फलैक्स) का आकार बड़ा (6.0 x 3.9 सें.मी.), संख्या अधिक (280-350 कोये/फल) तथा मिठास ज्यादा (20 डि. ब्रिक्स) होता है। यह किस्म छोटानागपुर एवं संथाल परगना तथा आस-पास के क्षेत्र के लिए अधिक उपयुक्त पाई गई है। इसकी प्रति वृक्ष औसत उपज 350-500 कि.ग्रा. (पकने के बाद) है।
स्वर्ण पूर्ति
यह सब्जी के लिए एक उपयुक्त किस्म है। इसका फल छोटा (3-4 कि.ग्रा.), रंग गहरा हरा, रेशा कम, बीज छोटा एवं पतले आवरण वाला तथा बीच का भाग मुलायम होता है। इस किस्म के फल देर से पकने के कारण लंबे समय तक सब्जी के रूप में उपयोग किये जा सकते हैं। इसके वृक्ष छोटे तथा मध्यम फैलावदार होते हैं जिसमें 80-90 फल प्रति वर्ष लगते हैं। फलों का आकार गोल एवं कोये की मात्रा अधिक होती है।
पौधा प्रसारण
कटहल मुख्य रूप से बीच द्वारा प्रसारित किया जाता है एक समान पेड़ तैयार करने के लिए वानस्पतिक विधि द्वारा पौधा तैयार करना चाहिए। वानस्पतिक विधि में कलिकायन तथा ग्रैफ्टिंग अधिक सफल पायी गयी है। इस विधि से पौध तैयार करने के लिए मूल वृंत की आवश्यकता होती है जिसके लिए कटहल के बीजू पौधों का प्रयोग किया जाता है। मूल वृंत को तैयार करने के लिए ताजे पके कटहल से बीज निकाल कर 400 गेज की 25x 12x 12 सें.मी. आकार वाली काली पॉलीथीन को थैलियों में बुआई करना चाहिए। थैलियों को बालू, चिकनी मिट्टी या बागीचे की मिट्टी तथा गोबर की सड़ी खाद को बराबर मात्रा में मिलाकर बुवाई से पहले ही भर देना चाहिए। चूँकि कटहल का बीज जल्दी ही सूख जाता है अत: उसे फल से निकालने के तुरन्त बाद थैलियों में 4-5 सें.मी. गहराई पर बुआई कर देना चाहिए। उचित देख-रेख करने से मूलवृंत लगभग 8-10 माह में बंडिंग/ग्रैफ्टिंग योग्य तैयार हो जाते है।
कटहल के पौधे को पैच बडिंग या क्लेफ्ट ग्राफ्टिंग विधि द्वारा तैयार किया जा सकता है। पैच बडिंग के लिए मातृ वृक्ष से सांकुर डाली काटकर ले आते हैं जिससे 2-3 सें.मी. लम्बी कली निकाल कर मूलवृंत पर उचित ऊँचाई पर उसी आकार की छाल हटाकर बडिंग कर देते हैं। बडिंग के बाद कली को सफेद पालीथीन की पट्टी (100 गेज) से अच्छी तरह बांध देते हैं तथा मूलवृंत का ऊपरी भाग काट देते हैं। ग्रैफ्टिंग विधि से पौधा तैयार करने के लिए मातृ वृक्ष पर ही सांकुर डाली की पत्तियों को लगभग एक सप्ताह पहले पर्णवृंत छोड़कर काट देते हैं। जब पत्ती का पर्णवृंत गिरने लगे तब सांकुर डाली को काटकर ले आते है। मूलवृंत को उचित ऊँचाई पर काट देते हैं तथा उसके बीचो-बीच 3-4 सें.मी. लम्बा चीरा लगा देते हैं। सांकुर डाली के निचले भाग को दोनों तरफ से 3-4 सें.मी. लगा कलम बनाते हैं जिसे मूलवृंत के चीरे में घुसाकर 100 गेज मोटाई की सफेद पालीथीन की पट्टी से बांध देते है। छोटानागपुर क्षेत्र में बडिंग के लिए फरवरी-मार्च तथा ग्राफ्टिंग के लिए अक्टूबर-नवम्बर का महीना उचित पाया गया है।
पौधा रोपण एवं देखरेख
कटहल का पौधा आकार में बड़ा तथा अधिक फैलावदार होता है अत: इसे 10x 10 मी. की दूरी पर लगाया जाता है। पौध रोपण के लिए समुचित रेखांकन के बाद निर्धारित स्थान पर मई-जून के महीने में 1x 1x 1 मीटर आकार के गड्ढे तैयार किये जाते हैं। गड्ढा तैयार करते समय ऊपर की आधी मिट्टी एक तरफ तथा आधी मिट्टी दूसरी तरफ रख देते हैं। इन गड्ढों को 15 दिन खुला रखने के बाद ऊपरी मिट्टी दूसरी तरफ रख देते हैं। इन गड्ढों को 15 दिन खुला रखने के बाद ऊपरी मिट्टी में 20-30 कि.ग्रा. गोबर की सड़ी हुई खाद, 1-2 कि.ग्रा. करंज की खली तथा 100 ग्रा.एन.पी. के मिश्रण अच्छी तरह मिलाकर भर देना चाहिए। जब गड्ढे की मिट्टी अच्छी तरह दब जाये तब उसके बीचो-बीच में पौधे के पिण्डी के आकार का गड्ढा बनाकर पौधा लगा दें। पौधा लगाने के बाद चारों तरफ से अच्छी तरह दबा दें और उसेक चारों तरफ थाला बनाकर पानी दें। यदि वर्षा न हो रही हो तो पौधों को हर तीसरे दिन एक बाल्टी (15 लीटर) पानी देने से पौध स्थापना अच्छी होती है।
पौधा लगाने के बाद से एक वर्ष तक पौधों की अच्छी देख-रेख करनी चाहिए। पौधों के थालों में समय-समय पर खरपतवार निकाल कर निराई-गुड़ाई करते रहना चाहिए। पौधों को जुलाई-अगस्त में खाद एवं उर्वरक तथा आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना चाहिए। नये पौधों में 3 वर्ष तक उचित ढांचा देने के लिए काट-छांट करना चाहिए ढांचा देते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि तने पर 1.5-2.0 मी. ऊँचाई तक किसी भी शाखा को नहीं निकलने दें। उसके ऊपर 3-4 अच्छी शाखाओं को चारों तरफ बढ़ाने देना चाहिए जो पौधों का मुख्य ढांचा बनाती हैं। कटहल के पौधों के मुख्य तनों एवं शाखाओं से निकलने वाले उसी वर्ष के कल्लों पर फल लगता है। अत: इसके पौधों में किसी विशेष काट-छांट की आवश्यकता नहीं होती है। फल तोड़ाई के बाद फल से जुड़े पुष्पवृंत टहनी को काट दें जिससे अगले वर्ष अच्छी फलत हो सके। पुराने पेड़ों पर पनपने वाले परजीवी जैसे बांदा (लोरेन्थस), सूखी एवं रोगग्रस्त शाखाओं को समय-समय पर निकालते रहना चाहिए।
खाद एवं उर्वरक
कटहल के पेड़ में प्रत्येक वर्ष फलन होती है अत: अच्छी पैदावार के लिए पौधे को खाद एवं उर्वरक पर्याप्त मात्रा में देना चाहिए। प्रत्येक पौधे को 20-25 कि.ग्रा. गोबर की सड़ी हुई खाद, 100 ग्रा. यूरिया, 200 ग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट तथा 100 ग्रा. म्यूरेट ऑफ़ पोटाश प्रति वर्ष की दर से जुलाई माह में देना चाहिए। तत्पश्चात पौधे की बढ़वार के साथ खाद की मात्रा में वृद्धि करते रहना चाहिए। जब पौधे 10 वर्ष के हो जाये तब उसमें 80-100 कि.ग्रा. गोबर की खाद, 1 कि.ग्रा. यूरिया, 2 कि.ग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट तथा 1 कि.ग्रा. म्यूरेट ऑफ़ पोटाश प्रति वर्ष देते रहना चाहिए। खाद एवं उर्वरक देने के लिए पौधे के क्षत्रक के नीचे मुख्य तने से लगभग 1-2 मी. दूरी पर गोलाई में 25-30 सें.मी. गहरी खाई में खाद के मिश्रण को डालकर मिट्टी से ढक देना चाहिए।
पुष्पण एवं फलन
कटहल एक मोनोसियस पौधा है जिसमें नर एवं मादा पुष्पक्रम (स्पाइक) एक ही पेड़ पर परन्तु अलग-अलग स्थानों पर आते हैं। नर फूल, जिसकी सतह अपेक्षाकृत चिकनी होती है, नवम्बर-दिसम्बर में पेड़ की पतली शाखाओं पर आते हैं। ये फूल कुछ समय बाद गिर जाते हैं। मादा फूल मुख्य तने एवं मोटी डालियों पर जनवरी-फरवरी में आते है। मादा फूल अधिक ओजपूर्ण वृंत, जिसे ‘फुटस्टॉक’ कहते है, पर एकल एवं गुच्छे में आते हैं जिनके साथ नर पुष्प भी निकलते हैं। कटहल एक परपरागित फल है जिसमें परागण समकालीन नर पुष्प से ही होता है। यदि मादा फूल में समान परागण नहीं होता है तो फल विकास सामान्य नहीं होता है। परागण के पश्चात पुष्पक्रम का आधार, अंडाशय और द्लाभ एक साथ विकसित होकर संयुक्त फल का विकास होता है। फल जनवरी-फरवरी से जून-जुलाई तक विकसित होते रहते हैं। इसी समय में फल के अंदर बीज, कोया इत्यादि का विकास होता है और अंतत: जून-जुलाई में फल पकने लगते हैं।
परिपक्वता एवं उपज
कटहल के फलों को विकास के साथ कई प्रकार से उपयोग में लाया जाता है अत: इसकी परिपक्वता एवं तोड़ाई को उपयोग के आधार पर कई वर्गो में बांटा जा सकता है। अतिनवजात एवं मध्यम उम्र के फल, जिसे सब्जी के लिए प्रयोग किया जाता है, को उस समय तोड़ना चाहिए जब उसके डंठल का रंग गहरा हरा, गूदा कठोर और कोर मलायम हो। इसके साथ-साथ बाजार में मांग के आधार पर तोड़ाई को नियंत्रित कर सकते हैं। कटहल के पूर्ण विकसित फल पेड़ पर एवं तोड़ने के बाद भी पकते हैं। अत: ताजा फल खाने के लिए फलों को पूर्ण परिपक्वता पर तोड़ना चाहिए। साधारणत: फल लगने के 100-120 दिनों बाद तोड़ने लायक हो जाते हैं। इस समय तक डंठल तथा डंठल से लगी पत्तियों का रंग हल्का पीला हो जाता है। फल के ऊपर के कांटे विरल हो जाते हैं एवं काँटों का नुकीलापन कम हो जाता है। कटहल के कच्चे फल को छड़ी से मारने पर खट-खट एवं पके फल से धब-धब की आवाज आती है। फलों को किसी तेज चाक़ू से लगभग 10 सें.मी. डंठल के साथ तोड़ने से दूध का बहाव कम हो जाता है। तोड़ते समय फलों के सीधा जमीन पर गिरने से फल फट जाते है इसलिए फल के वृंत को रस्सी से बांध कर धीरे-धीरे नीचे सावधानीपूर्वक उतार कर किसी छायादार स्थान पर रखना चाहिए। फलों के आपस में रगड़ से छिलके के भूरे होने का भय रहता है जिससे फल की गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। कटहल के बीजू पौधे में 7-8 वर्ष में फलन प्रारम्भ होता है जबकि कमली पौधों में 4-5 वर्ष में ही फल मिलने लगते है। रोपण के 15 वर्ष बाद पौधा पूर्ण विकसित हो जाता है। ऐसा देखा गया है कि जिन वृक्षों में छोटे आकार के फल लगते हैं उनमें संख्या अधिक एवं जिन वृक्षों के फल का आकार बड़ा होता है उनमें फलों की संख्या कम होती है। एक पूर्ण विकसित वृक्ष से लगभग 150 से 250 कि.ग्रा. फल प्रति वर्ष प्राप्त होता है।
कीट रोग एवं नियंत्रण
तना वेधक
इस कीट के नवजात पिल्लू कटहल के मोटे तने एवं डालियों में छेद बनाकर नुकसान पहुँचाते हैं। उग्रता की अवस्था में मोटी-मोटी शाखायें सूख जाती हैं एवं फसल को प्रभावित करती है। इसके नियंत्रण के लिए छिद्र को किसी पतले तार से साफ़ करके नुवाक्रान का घोल (10 मि.ली./ली.) अथवा पेट्रोल या किरोसिन तेल के चार-पाँच बूंद रुई में डालकर गीली चिकनी मिट्टी से बंद कर दें। इस प्रकार वाष्पीकृत गंध के प्रभाव से पिल्लू मर जातें हैं एवं तने में बने छिद्र धीरे-धीरे भर जाते है।
गुलाबी धब्बा
इस रोग में पत्तियों को निचली सतह पर गुलाबी रंग का धब्बा बन जाता है जिससे प्रकाश संश्लेषण की क्रिया प्रभावित होती है और फल विकास सुचारू रूप से नहीं हो पाता। इसके नियंत्रण के लिए कॉपर जनित फफूंद नाशी जैसे कॉपर आक्सीक्लोराइड या ब्लू कॉपर के 0.3: घोल का पणीय छिड़काव करना चाहिए।
फल सड़न रोग
यह रोग राइजोपस आर्टोकार्पी नामक फफूंद के कारण होता है जिसमें नवजात फल डंठल के पास से धीरे-धीरे सड़ने लगते हैं। कभी-कभी विकसित फल को भी सड़ते हुए देखा गया है। इसके नियंत्रण के लिए फल लगने के बाद लक्षण स्पष्ट होते ही ब्लू कॉपर के 0.3: घोल का दो छिड़काव 15-20 दिनों के अंतराल पर करें।
स्त्रोत: समेति, कृषि विभाग , झारखण्ड सरकार
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