परिचय
भारत वर्ष में विश्व की लगभग 17% जनसंख्या मात्र 2.5% भौगोलिक क्षेत्र पर निवास करती है। हर वर्ष जनसंख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है। लगातार शहरी व औद्योगिकीकरण के कारण कृषि योग्य उपजाऊ भूमि कम हो रही है। एक अनुमान के अनुसार हमारे देश में वर्ष 2025 तक प्रतिवर्ष 315 मिलियन टन खाद्यान (वर्तमान में लगभग 210 मिलियन टन पैदावार प्रतिवर्ष) की आवश्यकता होगी। अर्थात खाद्यान उत्पादन में प्रतिवर्ष लगभग 5-6 मिलियन टन बढ़ोतरी की आवश्यकता है। अतः इसके लिए कम उपजाऊ व् समस्याग्रस्त भूमि का सही प्रबन्धन कर कृषि उपज बढ़ाने की जरूरत है। अम्लीय भूमि भी एक ऐसी समस्याग्रस्त भूमि है, जिसका सही प्रबन्धन कर पैदवार में उचित बढ़ोतरी कि जा सकती है।
भारत वर्ष में लगभग 490 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि अम्लीय है, जिसमें लगभग 269 लाख हेक्टेयर भूमि की पी.एच. मान 5.5 से भी कम है। देश में अम्लीय भूमि अधिकतर उड़ीसा, असम, त्रिपुरा, मणिपुर, नागालैण्ड, मेघालय, अरुणाचल, सिक्कम, मिजोरम, झारखण्ड, केरल, कर्नाटका, हिमाचल प्रदेश एवं जम्मू कश्मीर के कुछ भाग में पाई जाती है।
झारखण्ड में लगभग 10 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि अम्लीय भूमि के अंतर्गत आती है, जो मुख्यतः दुमका, जामताड़ा, पूर्वी सिंहभूम, रांची, गुमला एवं गढ़वा जिलों में पायी जाती हैं अम्लीय भूमि को समस्या ग्रस्त भूमि कहते हैं, क्योंकि इसमें अम्लीयता के कारण इसकी उपजाऊ शक्ति में कमी आ जाती है। ऐसी भूमि से उत्पादन की पूर्ण क्षमता दोहन करने के लिए रासायनिक खादों के साथ-साथ चूने का सही प्रयोग सबसे सरल व् उपयोगी उपाय हैं।
भूमि की अम्लीयता का कारण
मिट्टी की अम्लीयता एक प्राकृतिक गुण है, जो कि फसलों की पैदावार पर महत्वपूर्ण असर डालता है। जहाँ अधिक वर्षा के कारण भूमि की ऊपरी सतह से क्षारीय तत्व जैसे-कैल्शियम, मैग्नीशियम आदि पानी में बह जाते हैं जिसके परिणाम स्वरुप मृदा पी.एच. मान 6.5 से कम हो जाता है, ऐसी भूमि को हम अम्लीय भूमि कहते है। जंगली क्षेत्रों में पेड़ों से पत्तियां गिरने से उपरान्त सड़न प्रकिया में कार्बनिक अम्ल निकलता है तथा भूमि में अम्लीयता पैदा करता है। अम्लीयता के कारण भूमि में हाइड्रोजन व एल्युमिनियम की घुलनशीलता बढ़ जाता है, जो पौधों की सामान्य बढ़ोतरी पर प्रतिकूल असर डालता है। औद्योगिक क्षेत्र में यह अम्लीयता सल्फर, नाइट्रोजन एंव अन्य गैसों के कारण होती जो वर्षा (एसिड रेन) द्वारा भूमि में प्रवेश होती है।
अम्लीयता भूमि की समस्याएं
- अम्लीयता भूमि में हाइड्रोजन व एल्युमिनियम की अधिकता से पौधों की जड़ों की सामान्य वृद्धि रुक जाती है, जिसके कारण जड़ें छोटी, मोटी और इकट्ठी रह जाती है।
- भूमि में मैगनीज और आयरन की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे पौधे कई प्रकार की बिमारियों से ग्रस्त हो जाते हैं।
- अम्लीयता के कारण फास्फोरस व मोलिब्डेनम की घुलनशील ता कम हो जाती है, जिससे पौधों को इसकी उपलब्धता कम हो जाती है।
- कैल्शियम, मैग्नीशियम, पोटाश व बोरोन की कमी हो जाती है।
- पौधों के लिए आवश्यक पोषक तत्वों में असंतुलन आ जाता है, जिससे पैदावार कम हो जाती है।
- अम्लीयता के कारण सूक्ष्म जीवियों की संख्या व कार्यकुशलता में कमी आ जाती है, जिसके परिणाम स्वरुप नाइट्रोजन कि स्थिरीकरण व कार्बनिक पदार्थों का विघटन कम हो जाता है।
अम्लीयता भूमि का प्रबन्धन
वास्तव में जिस भूमि का पी.एच. 5.5 से नीचे हो, इसमें हमें अधिक पैदावार हेतु प्रबन्धन की आवश्यकता होती है। झारखण्ड राज्य में लगभग 4 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि का पी.एच. 5.5 से नीचे है। अम्लीय भूमि से अधिक पैदावार लेने के लिए आवश्यक है कि इसमें ऐसा पदार्थ डाला जाए जो भूमि की अम्लीयता को उदासीन कर विभिन्न तत्वों की उप्ल्ब्धलता बढ़ा सके। देश भर में अम्लीय भूमि पर हो रहे वैज्ञानिक शोधों से अब यह बात बिलकुल तय हिया कि चूने के प्रयोग से भूमि की अम्लीयता खत्म कर इसकी पैदावार में बढ़ोतरी की जा सकती है। इसके लिए बाजारू चूना खेतों में डालने से काम लाया जा सकता है। राज्य के दुमका जिला के जामा एवं जरमुंडी प्रखंड एक कुछ गाँवों के किसानों को अपनी अम्लीय भूमि का प्रबन्धन द्वारा फसलोंत्पादन में बढ़ोतरी पाई गई है।
बाजारू चूना का पर्याप्त मात्रा में सभी अम्लीय क्षेत्रों में उपलब्ध न होना, अम्लीय मिट्टी के प्रबन्धन में सबसे बड़ा बाधक है। अम्लीय क्षेत्रों पर किये गये शोधों के निष्कर्ष पर यह सिद्ध हो चूंका है कि बाजारू चूना के अलावे अन्य क्षेत्रों में आसानी से उपलब्ध बेसिक स्लैग, प्रेस मड, लाईम शेल, पेपर मिल स्लज इत्यादि का प्रयोग सफलतापूर्वक किया जा सकता है।
चूना का मृदा पर प्रभाव
चूना भूमि की रसायनिक, भौतिक एवं जैविक गुणों में सुधार का कृषि उत्पादन बढ़ाने में सहायता करता है। चूना का मृदा पर प्रभाव निमानंकित है-
रसायनिक प्रभाव
- हाइड्रोजन की मात्रा कम कर मिट्टी का पी.एच. मान बढ़ाता है।
- एल्युमिनियम, मैगनीज व् लोहा की घुलनशीलता को कम करता है।
- कैल्शियम, मैग्नीशियम और पोटाशियम की मात्रा को बढ़ाता है।
भौतिक प्रभाव
- चूना का प्रयोग भूमि की बनावट को अच्छा करता है।
- जड़ों की वृद्धि में योगदान देता है।
जैविक प्रभाव
- चूना डालने से सभी प्रकार के जीवाणुओं में वृद्धि होती है, जो नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करते हैं।
- चूना डालने से हानिकारक कीटाणु समाप्त हो जाते हैं।
- सूक्ष्म जीवियों कि कार्य क्षमता में बढ़ोतरी होने से नाईट्रेट और सल्फेट बनने की क्रिया में वृद्धि होती है।
चूना के सही मात्रा का निर्धारण
अम्लीय भूमि को अच्छा बनाने हेतु चुना की कितनी मात्रा डाली जाए, यह प्रयोगशाला में मिट्टी परीक्षण द्वारा तय होती है। चूना की मात्रा का निर्धारण मुख्यतः चूना के रूप में प्रयोग किये जाने वाले पदार्थ के कणों का व्यास, मृदा पी.एच एवं मिट्टी की संरचना पर न्रिभर करता है। साधारणतः अम्लीय भूमि की पी.एच मान उदासीन स्तर पर पहुंचाने के लिए लगभग 30-40 क्विंटल चूना प्रति हेक्टेयर आवश्यकता पड़ती है। इसे बोआई से पहले छिंट कर खेत में अच्छी तरह मिला देना चाहिए। इसका असर 4-5 साल तक जमीन में रहता है। अतः जहाँ चूना की मांग के हिसाब से चूना भूमि में डाला गया हो वहां 4-5 साल तक इसे डालने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। इस विधि द्वारा चूना डालने से किसानों को एक बार अधिक खर्च करना पड़ता है। नई खोजों के अनुसार यह पाया गया कि मात्रा 3-4 क्विंटल प्रति हेक्टेयर चूना प्रतिवर्ष बरसात के मौसम में फसल की बोआई के समय नालियों में डालने से पैदावार में वृद्धि की जा सकती है। क्योंकि चूना कम घुलनशील होता है, इसलिए बारीक बढ़ाई जा सकती है। चूना प्रयोग की यह विधि कम खर्चीला है, इसे हर साल डालना होता है, जब तक भूमि का पी.एच. मान 6.0 तक न पहुँच जाए।
चूना का फसलों की पैदावार पर असर
सभी फसलों पर मृदा अम्लता का हानि कारक प्रभाव समान रूप से नहीं पड़ता है। कुछ फसलें अम्लीय मिट्टी में सुचारू रूप से उग तथा पनप सकती है। फसलों द्वारा मृदा अम्लता का प्रभाव को सहन करने की क्षमता के आधार पर निम्नलिखित वर्गों में बांटा जा सकता है-
क. अधिक अम्लता सहन करने वाली फसलें-धान, आलू, राई, जई, शकरकंद, अंडी तथा मिट्टी में बैठने वाली फसलें।
ख. औसत अम्लता पोषक फसलें- गेहूँ, राई, घास, जौ, शलगम इत्यादि।
ग. अम्लता को कुछ-कुछ सहन करने वाली फसलें- लुसर्न, बरसीम, सेम, खरबूजा, फूलगोभी, पातोगोभी, ज्वार, प्याज आदि।
बिरसा कृषि विश्विद्यालय, रांची, झारखण्ड में पिछले लम्बे समय से चल रहे शोध कार्यों से यह बात सामने आई है कि रसायनिक खादों के संतुलित प्रयोग के साथ-साथ अम्लीय भूमि में चूना का सही प्रयोग करने से 3 से 4 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज में बढ़ोतरी की जा सकती है।
रसायनिक उर्वरकों के साथ चूना का प्रयोग से फसलों का उत्पादन पर पर प्रभाव
खादों का प्रयोग | औसत पैदावार क्विंटल/हे. | |||
मक्का अरहर मक्का+अरहर मटर हरी छिमी |
||||
कंट्रोल (बिना खाद) |
17.1 |
07.4 |
24.5 |
28.6 |
कंट्रोल +चूना |
21.5 |
10.0 |
31.5 |
32.5 |
100% ना. फा. पो. |
25.1 |
12.0 |
37.1 |
42.6 |
100% ना. फा. पो. +चूना |
29.6 |
15.2 |
44.8 |
51.2 |
50% ना. फा. पो. +चूना |
28.0 |
12.4 |
40.4 |
50.8 |
50% ना. फा. पो.+कम्पोस्ट +चूना |
31.4 |
17.0 |
48.4 |
69.8 |
खादों के प्रयोग के बिना मक्का+अरहर की मिश्रित खेती में मक्का का उत्पादन 17.1 व अरहर का उत्पादन 7.4 क्विटंल प्रति हेक्टेयर हुई है। केवल चूना (4 क्विंटल/हे.) का प्रयोग से मक्का व अरहर की उपज में क्रमशः 4.4 व 26 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उत्पादन में बढ़ोतरी हुई है। लेकिन जहाँ रसायनिक खादों के संतुलित प्रयोग के साथ चूना का प्रयोग भी किया गया तो मक्का व अरहर का क्रमशः 29.6 व क्विटंल/हे. उपज किसानों को मिला है।
झारखंड की अम्लीय भूमि में किसानों ने चूना का प्रयोग कर मात्र संतुलित खाद का 50% फसलों में प्रयोग कर लगभग 100% संतुलित उर्वरक के बराबर उत्पादन करने में सफलता पाई है किसानों द्वारा मक्का+अरहर की मिश्रित खेती में कम्पोस्ट (5 टन/हे.) तह चुना (4 क्विंटल/हे.) के साथ संतुलित खाद का मात्र 50% उर्वरक प्रयोग कर मक्का का 31.4 व अरहर का 17.0 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उत्पादन करने में क्रमशः 4 से 8 क्विंटल/हे. की बढ़ोतरी हुई है। किसानों द्वारा रसायनिक खाद का मात्र 50% के साथ कम्पोस्ट (5 क्विंटल/हे.) एवं चूना (4 क्विंटल.हे.) डालने से हरी मटर छिमि का 69.8 क्विंटल/हे. उत्पदान प्राप्त किया है।
आज के समय जब रसायनिक उर्वरक का मूल्य तेजी में बढ़ता जा रहा है, अम्लीय भूमि में कम्पोस्ट/भर्ती कम्पोस्ट के साथ चूना का प्रयोग कर किसानों द्वारा रासायनिक उर्वरक पर होने वाली खर्च को बचाया जा सकता है। जससे कृषि व्यवसाय को अधिक लाभकारी बनाया जा सकता है।
अम्लीय भूमि में चूना प्रयोग का आर्थिक गणना एवं लाभ खर्च का अनुपात
खादों का प्रयोग |
मक्का+अरहर की मिश्रित खेती |
मटर (हरी छिमी) |
||||
कुल लाभ रु./हे. |
खुल खर्च रु./हे. |
लाभ खर्च का अनुपात |
कुल लाभ रु./हे. |
खुल खर्च रु./हे. |
लाभ खर्च का अनुपात |
|
बिना खाद |
19.650 |
12.952 |
1.52 |
19.992 |
11.747 |
1.70 |
चूना (4 क्विंटल/हे.) |
25.685 |
13.852 |
1.85 |
22.757 |
1.147 |
1.87 |
100% ना. फा. पो. |
30.465 |
15.408 |
1.97 |
29.841 |
12,488 |
2,39 |
100% ना. फा. पो. +चूना |
37,510 |
15,808 |
2.37 |
35,868 |
12,888 |
2.78 |
50% ना. फा. पो. +चूना |
32,615 |
13,004 |
2.50 |
35,595 |
12,494 |
2.84 |
50% ना. फा. पो.+कम्पोस्ट +चूना |
41,235 |
16,004 |
2.58 |
48,818 |
14,494 |
2.37 |
मूल्य प्रति किलो:मक्का-5 रु. अरहर-15 रु, मटर (हरी छिमि)-7 रु. चुना-1 रु.
मक्का+अरहर की मिश्रित खेती व हरी छिमी के लिए मटर का उत्पादन का आर्थिक गणना तथा किसानों द्वारा प्रति रुपया खर्च पर होने वाली लाभ को दर्शाया गया है। मक्का+अरहर की मिश्रित खेती में 50% संतुलित उर्वरकों के साथ कम्पोस्ट तथा चूना का प्रयोग कर किसान एक रुपया व्यय कर 2.58 रुपया लाभ ले सकते हैं। इसकी तरह चूना व कम्पोस्ट का प्रयोग 50% संतुलित उर्वरकों के साथ मटर छिमी का अधिकतम उपज किसानों द्वारा लिया गया है, जिसका लाभ खर्च का अनुपात 3.37 है।
निष्कर्ष
उपरोक्त प्रयोगों से या कहा जा सकता है कि अम्लीय भूमि में चूना का प्रयोग से कृषि उपज में बढ़ोतरी की जा सकती है। जहाँ भूमि का पी.एच. 5.5 या इससे नीचे हो वहां चूना की मांग की उचित मात्रा मिट्टी परीक्षण प्रयोगशाल में निर्धारित कर उसका 1/10 भाग हर साल बुआई के समय पंक्तियों में डालने से कृषि उत्पादन में बढ़ोतरी की जा सकती है साथ ही भूमि की उर्वरा शक्ति को बनाये रखा जा सकता है। झारखण्ड राज्य में 10 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि में संतुलित उर्वरक के साथ चूना व कम्पोस्ट डालकर उचित प्रबन्धन के साथ प्रदेश में खाद्यान उत्पादन लगभग 10 लाख टन प्रतिवर्ष बढ़ाया जा सकता है।
स्त्रोत एवं सामग्रीदाता: कृषि विभाग, झारखण्ड सरकार
Source
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