परिचय
कोको दक्षिणी अमेरिका के आमजोन क्षेत्र मूल के हैं। बहुतायत में इसकी खेती अफ्रीका भूखंड के उष्णकटिबंधीय इलाके में की जाती है। इसके लगभग 20 से अधिक प्रजातियाँ है, लेकिन बहतायत में थियोब्रोमा काकाओ को ही बागानों में उगाये जाते है।
कोको एक उष्णकटिबंधीय फसल होने के कारण भारत में इसके विकास की काफी संभावनाएं हैं। कोको मुख्यत: केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडू में उगाये जाते हैं।
महत्व
कोको चाय या कॉफी से पहले ही एक पेय के रूप में जाना जाता था, लेकिन भारत के लिए यह एक नया फसल है। कोको मुख्यत: कोन्फेक्शनरी उद्योग में प्रयोग किए जाने वाला एक उत्पाद है और उसे अधिकतर नारियल और सुपारी के बागानों में अंतर फसल के रूप में ही लगाए जाते हैं। कोको एक बागानी फसल के रूप में जाना जाता है, लेकिन केवल कोको के बागान भारत में नहीं देखे जाते हैं। वाणिज्यिक रूप में कोको उगाने का कार्य केवल 1960 के दशक में ही आरंभ किया गया था। विभिन्न कोको के उत्पाद मिठाई के रूप में उपलब्ध है और उसे काफी स्वाद के साथ उपभोग में लाये जाते हैं। अंतराष्ट्रीय तौर पर विकसित राज्यों में इसकी खपत बहुत अधिक है। कोको के बीज और उसके उत्पाद के निर्यात से भारत ने वर्ष 1995-96 में लगभग 9.00 करोड़ और 1996-97 में 6.00 करोड़ की विदेशी मुद्रा कमाई थी। इस समय कोको के भौगोलिक उत्पादन लगभग 27.00 लाख टन है, उसके मुक़ाबले भारत का उत्पादन केवल 10,000 मे. टन मात्र है।
जलवायु
बरसात
औसत बरसात 1250-3000 मी मी प्रति वर्ष और अधिमानत: 1500-200 मी मी के साथ 3 महीने से कम गर्मी का महीना और 100 मी मी बरसात प्रति माह आदर्श स्थिति है, लेकिन मात्रा का उतना महत्व नहीं है जितना की वितरण का । सूखे के मौसम में बरसात की कमी को सिंचाई से पूरा किया जा सकता है।
तापमान
तापमान अधिकतम 30-32 डिग्री सें और न्यूनतम 18-20 डिग्री सें हो लेकिन 25 डिग्री सें आदर्श माना जाता है। जिस इलाके में तापमान 10 प्रतिशत सें से नीचे चला जाता है और वार्षिक औसत तापमान 21 डिग्री सें से कम हो, वहाँ इसे वाणिज्यिक तौर पर उगाया नहीं जा सकेगा।
नमी
कोको उगाने वाले इलाकों में यह अधिक रहता है, साधारणत: रात में 100% सें, दिन को गिरकर 70-80% सें, और गर्मी के मौसम में कभी कम। इसका मुख्य प्रभाव पत्तों पर देखा गया है, कम नमी वाले इलाकों में (50-60% सें) उगने वाले पौधों के पत्ते बड़े बड़े और व्यापक पत्ता क्षेत्र के होते हैं, जबकि मध्यम (70-80% सें) और उच्च (90-95% सें) के क्षेत्र के पौधों में पत्ते छोटे छोटे और घुमावदार तथा सिरे से मुड़े हुए होते हैं। नमी से होने वाले दूसरे प्रभाव में कबकीय बिमारियाँ और सुखाने और भंडारण की परेशानियाँ है।
मिट्टी
कोको विभिन्न प्रकार की मिट्टी में उगाई जाती है और कोको के लिए उपयुक्त मिट्टी भी भिन्न भिन्न है। कोको के पेड़ अन्य उष्णकटिबंधीय फसलों के मुक़ाबले नमी के प्रति काफी संवेदनशील होता है। इसके अलावा कोको के पेड़ पानी जमा होने के प्रति भी काफी संवेदनशील है, जबकि वे बाढ़ को सहन कर लेगी। वे पानी रुके रहने को और जमा होने की स्थिति को सहन नहीं कर सकती है। मिट्टी की गहराई 1.5 मी होने चाहिए। कोको के लिए सबसे अच्छी मिट्टी हयूमुस से भरपूर वन की मिट्टी है। मिट्टी ऐसी होनी चाहिए जिसमे जड़ आसानी से भीतर को जाए और गर्मी के मौसम के दौरान नमी को रोकने में भी सक्षम हो और वायु और नमी के परिचालन में भी सहायक हो। चिकनी मिट्टी और बालूई मिट्टी उपयुक्त है। छिछला मिट्टी उपयुक्त नहीं है। कोको बागान के लिए न्यूनतम आवश्यकता 3.5% जैविक खाद यानि ऊपर के 15 से मी में 2% कार्बन उपयुक्त है। कोको विविध प्रकार के मिट्टी जिसमें पी एच श्रेणी 6 – 7.5 तक प्रमुख उर्वरक और सूक्ष्म तत्व हो, उगाई जा सकती है। कोको तटीय इलाकों में जहां बालुई मिट्टी हो और नारियल उगता हो फल फूल नहीं सकेगा।
रोपण समग्रियों का चयन
कोको को बीज के द्वारा या कायिक माध्यम से बढ़ाया जा सकता है। पौध तैयार करने के लिए उन्नत उत्पादन वाले मातृ वृक्ष से पके हुए फलियों से बीज को इकठ्ठा किया जाता है। चयनित मातृ वृक्ष की उपज प्रतिवर्ष 100 फलियों, जो कि माध्यम व बड़े आकार की हरी फलियाँ हो व बीज का भार न्यूनतम एक ग्राम से कम न हो। उत्तम प्रकार की रोपण सामग्रि का उपयुक्त तरीका है कि संकर बीजों को बाइक्लोनिकल या पोलिक्लोनिकल बागान से एकत्र किया जाये। जिनमें उच्च क्षमता असंगत जनक हो।
सामन्यत: बीज फसलन से लेकर सात दिन के भीतर अपनी जीवनक्षमता खो देती है। लंबे समय तक के भंडारण में इस प्रकार की जीवनक्षमता खोने से बचने के लिए प्राप्त किए गए बीजों को नमी वाले कोयले में रखा जाए और उसके बाद उसे पोलिथीन की थैली मैं पैक किया जाना चाहिए।
मिश्रण तैयार करना और रोपण का समय
कोको के बीजों को बोने के लिए साधारणत: गमलन मिश्रण में बागान खाद, मिट्टी और बालू समान मात्रा में मिलाया हुआ उत्तम माना जाता है। कोको के बीज किसी भी समय में उग सकते हैं, फिर भी नर्सरी में बीजों को बोने के लिए सबसे अच्छा समय दिसंबर-जनवरी है, ताकि मॉनसून के आरंभ होने तक बागान के लिए चार से छह महिने आयु के पौध उपलब्ध हो सके।
बोने का तरीका
बीजों को निचला सिरा नीचे करके या लिटाकर बोना चाहिए। बीजों को मिट्टी में बहुत गहरे में नहीं बोने चाहिए। बीज एक सप्ताह के भीतर अंकुरित होना शुरू हो जाता है, लेकिन इस प्रक्रिया एक और सप्ताह तक रह सकता है। साधारणत: 90% तक बीज अंकुरित हो जाते हैं। मिट्टी को नरम रखने के लिए बराबर पानी देते रहना जरूरी है। बीमारियों से बचाए रखने के लिए अधिक पानी देने से बचना चाहिए।
बागान में रोपण के लिए बीजू पौधों का चयन
सामान्य तौर पर चार से छह महीने की आयु के बीजू पौध रोपने में प्रयोग में लाए जाते हैं। चूँकि पौध की ओजस्वता और उपज दोनो एक दूसरे से जुड़े हैं, इसलिए पौध को उसके ओजस्वता के आधार पर चुनना चाहिए। पौध की ओजस्वता उसकी ऊँचाई और शाखाओं की परिधि के आधार पर निर्धारित कर सकते हैं।
प्रवर्धन
कायिक प्रवर्धन: कोको में बड़ी मात्रा में प्रवर्धन सामग्रियों को तैयार करने में कलिकायन और कलमन जैसी कायिक प्रवर्धन तकनीक द्वारा संभव है जिसमें की कलिकायन सबसे आसान है। विभिन्न तरीकों में टी, उलट टी, चित्ती व फोरकेट कलिकायन प्रयोग में लाए जाते हैं। सूक्ष्म कलिकायन का भी अनुसरण किया जाता है।
मूलवृंत व कलिकाठ का चयन: 60-90 दिन तक के बीजू पौधों को सामान्यत: मूलवृंत के तौर पर प्रयोग में लाया जाता है। मूलवृंत चयन करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि मूलवृंत और सांकुर शाख (सायन) एक ही मोटाई के हो और दोनों की उम्र बराबर ही हो। माध्यमिक प्ररोह (चूपन) की भी कलिकाठ के रूप में कलिकायन हेतु लिया जा सकता है। जो चित्ती लिया जाय वह 2.5 सें.मी. लंबाई व 0.5से.मी. चौडाई का हो जिसमें एक सशक्त कली विद्यमान होनी चाहिए। उसी आकार की छाल मूलवृंत से हटाकर उसपर कली चित्ती चढा देनी चाहिए। इसके बाद उसे कलमन टेप से बॉंधना चाहिए। चयन किए गया चित्ती पर कली नंगी ऑंख से दिखनी चाहिए परंतु उसमें कोई प्रफलन नहीं होना चाहिए। ताजा काटे कलिकाठ को भी कलिकायन के लिए प्रयोग में ला सकते हैं। लेकिन पूर्व संसाधित कलिकाठ का प्रयोग करने से सफलता की प्रतिशत में वृद्धि हो सकती है। ऐसं पूर्व संसाधित चयन कि गए भाग से कलि ठूंठ से सभी पत्तों के पटल भाग को हटाया जात है, यह वृंत ठूठ 10 दिन में गिर जाएगा व नए कलि निकलनी शुरू हो जाएगा। कलियों का निर्ष्कषण पूर्व संसाधित भाग से किया जा सकता है। यदि मूलवृंत 4 महीने से कम हो तो चयन किए गए कली काठ को हरे या भूरे रंग का होना चाहिए।
रोपण के बाद का रखरखाव
कलिकायन के तीन सप्ताह के बाद ग्राफ्टिंग टेप को हटा दिया जाता है। यदि कली जोड़ सफल है तो एक बड़ा काट कली से ऊपर की शाखा में आधे तक लगाया जाता है व वृन्त को वहाँ से नीचे मोड देते हैं। ऐसे मुड़े मूल वृन्त के हिस्से को उपयुक्त वृद्धि व उस पर दो पत्तियों के कठोर होने के बाद अलग कर दिया जाता है। उसके चार से छह महीने के बाद वे बागान में रोपण के लिए तैयार हो जाता है। मूल स्टोक से नए अंकुरों को निकालने के बारे में ध्यान देने चाहिए।
छाया
कोको के पौदों को प्रकृतिक तौर पर छाया की आवश्यकता होती है। कोको के छोटे पौधे 50% सूरज की रोशनी में बहुत अच्छी तरह से बढ़ती है। ज्यों ज्यों पौधे बढ़ते हैं उनकी छाया की आवश्यकता कम होती जाती है।
प्रजातियाँ
इसके तीन मुख्य प्रजातियाँ हैं यथा; क्रिओल्लो, फोरेस्टरो, त्रिनिटारिओ। इनमें से फोरेस्टरो को ही पूरे विश्व में उगाया जाता है। यह उन्नत पैदावार, कीट और रोग के प्रति अधिक रोधक क्षमता वाले और क्रिओल्लो के मुक़ाबले सूखे के मौसम के प्रति क्षमता वाले हैं। विकसित किए गए कुछ महत्वपूर्ण प्रजातियों के बारे में अलग से विवरण दिये गए हैं।
रोपण का तरीका
कोको को अकेले या मिली जुली फसल या अंतर फसल के रूप में रोपण कर सकते हैं। जब उसे अकेला रोपा जाये तो छाया के लिए दादप को 3 x3 मी दूरी पर रोपा जाता है दादप को हर वर्ष छाँटने की आवश्यकता है। अधिक स्थाई छाया के लिए अल्बिजिया स्टिपुलेट को 9 x 9 मी या 12 x 12 मी की दूरी पर रोपा जा सकता है। पर्याप्त छांव हेतु विकसित होने के लिए इसको 4 से 6 वर्ष तक लग सकते हैं। उत्तर पूर्वी हवा को रोकने के लिए हवा रोधी लगाना भी जरूरी है। नारियल के बगानों में कोको को अंतर फसल के रूप में रोपा जा सकता है, बशर्ते कि नारियल के वृक्ष की दूरी छाया के लिए पर्याप्त हो और मिट्टी भी उपयुक्त हो। सुपारी के बागान में भी कोको को अंतर फसल के रूप में रोपा जा सकता है। सुपारी के पेड़ों की दूरी 2.7 x 2.7 मी हो। रोपने का गड्डा कम से कम उस आकार के होने चाहिए ताकि जिस पोलीथीन की थैली में उसे बोया गया है उसे रख सके। रोपने का समय मॉनसून को ध्यान में रखकर करें, लेकिन जहां सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है, वहाँ वर्ष में कभी भी रोपण किया जा सकता है।
पोषण और सिंचाई
प्रारम्भ में जैविक खाद देना उचित रहेगा। लेकिन तीन से पाँच वर्ष के बाद इसकी जरूरत नहीं पड़ेगी, क्योंकि कोको के पत्तापशिष्ट जैविक खाद का प्रचुर और उच्च स्रोत है। प्रति वर्ष एक बार 100 ग्राम नाइट्रोजन, 40 ग्राम पी 205 और 140 ग्राम के2o प्रति पेड़ दो खुराकों में देने की सिफ़ारिश की जाती है। रोपण के प्रथम वर्ष में उपर्युक्त खुराक की एक तिहाई दी जाए दूसरे वर्ष और तीसरे वर्ष में दो तिहाई उर्वरक का पूरी खुराक दी जाए। उर्वरक और खाद देते समय यह ध्यान रखें कि पेड़ों के चारों ओर थावले छिछले हो (वयस्क पेड़ के लिए जिनका घेरा 1.5 मी हो) ताकि सतही पोषण से जड़ों को कोई नुकसान न हो। नए पेड़ के लिए थावले का घेरा अनुपात में छोटे होने चाहिये। उचित सिंचाई देने से एकल और अंतर फसल दोनों उपज में 30% तक की वुद्धि हो सकती है। शुष्क मौसम में सप्ताह में एक बार सिंचाई दी जाए।
काँट छांट
काँट छांट कोको के लिए महत्वपूर्ण और अनवरत क्रिया है। कोको विभिन्न तल पर बढ़ता है। मध्य प्ररोह (चुपोन) या खड़ी शाख एक जोरकेट पर खत्म होती है तब उससे 4-5 और शाखाएँ निकलती है। उसके आगे एक और चुपोन विकसित होता है। जारकट नीचे लगातार सीधा बढ़ता है और एक और जारकट बनता है। जब पहले जारकट 1.5 मीटर ऊंचाई पर बनता है और तब एक ऊंचाई पर वितान बन जाता है जो कि फसल होने व अन्य क्रियाओं के लिए बिलकुल सहज है। पेड़ की ऊंचाई को एक स्तर पर बनाए रखने के लिए समय समय पर चुपोन को हटाना पड़ता है। दूसरा जोरकट का बनना यदि जरूरी हो तभी उसे बढ्ने दिया जाये। फसलन, छिडकाव आदि तभी आसान हो सकता है, जब पेड़ों की ऊंचाई द्वितीय तल तक रखी जाए। सामन्यत: एक जारकेट से 3-5 तक शाखाएँ विकसित होती है। यदि ज्यादा फैन (पंखा नुमा) शाखाएँ विकसित होती है तो एक दो कमजोर शाखाओं को निकाल दें। इस प्रकार बहुत अधिक फैले हुए शाखाओं को हटा देना चाहिए, ताकि एक समान रोशनी वितान के हर हिस्से में प्रवेश कर सके।
सगर्भता अवधि
जहां पर जलवायु और मिट्टी अनवरत विकास के लिए अनुकूल है, वहाँ रोपण से लेकर 6-9 महीनों में जारकेट निकल आते हैं और 18 महीनों में वितान 3 x 3 मी के अंतरालल पर मिलते हैं और पहला फसल दूसरे साल के अंत से ही प्राप्त होने लग जाता है।
फसल प्राप्त करना
शिब के विकास में फूल से लेकर फल हने और उसके पकने तक 5-6 महीने का समय लगता है। फसल प्राप्त करने में पेड़ से पके हुए फलों को तोड़ना और कच्चे बीजों को प्राप्त करना भी शामिल है। पकने पर शिब अपना रंग बदल देता है, हरे रंग का शिब नारंगी रंग का हो जाता है, पीला और लाल रंग का शिब नारंगी रंग का हो जाता है। प्रत्येक शिब में 25 से 45 तक बीज सफ़ेद पल्प में (म्युसीलेज) में रहता है। सामन्यत: वर्ष में सितंबर- जनवरी और अप्रैल- जून के महीने में कोको दो मुख्य फसल देती है। फिर भी विशेषकर सिंचाई अच्छी होने की स्थिति में वर्ष के सभी समय बे मौसम के फसल भी देखे जा सकते हैं।
फूलों के कुशन को नुकसान पहुंचाए बिना केवल पके हुए शिबों को ही तना से छूरी की मदद से काट लेने चाहिए। फसल को काटने का कार्य प्रत्येक पंद्रह दिन में एक बार करने चाहिए। खराब हुए, अनपके और रोग संक्रमित शिबों को अलग कर लेने चाहिए ताकि प्रक्रिया के बाद उत्तम प्रकार के बीज सुनिश्चित किया जा सके। खमीरीकरण के लिए तोड़ने से पहले प्राप्त किए गए शिबों को कम से कम दो दिन रख लेने चाहिए। यद्यपि शिबों को चार दिन से अधिक समय तक नहीं रखने चाहिए।
कोको के बीजों का इलाज वह प्रक्रिया है जिसमें बाजार में विपणन के लिए अच्छे स्वाद वाले, संभाव्यता और भंडारण करने लायक गुणों वाले बीजों को तैयार करना। इलाज में खमीरीकरण और सुखाना भी शामिल है। खमीरीकरण में अधिक मात्रा में कोको के बीजों को अच्छी तरह से इंसुलेट करना होता है ताकि गर्मी को रोक रखा जा सके, जबकि हवा को ढेर से पास करने के लिए छोड़ा जाता है। इस प्रक्रिया में 7 दिन तक का समय लगता है और उसके बाद तुरंत सुखाया जाता है। कोको के बीजों के ढेर को नियमित रूप से उलटते पलटते रहना है, ताकि गर्मी सभी ढेर के सब स्थानों पर समान रूप से पहुँच सके।
पुराने बगानों का पुनर्युवन करना
टॉप कार्य करना एक ऐसा तरीका है जिसमें कम फसल देने वाले कोको के पौधों को उच्च फसल देने वाले पौधों में बदला जाता है।इसतकनीक में पुराने और बिना फसल वाले कोको बागानों को पुनर्युवन करना होता है। कम फसल देने वाले किसी भी उम्र के कोको के पेड़ को टॉप कार्य की प्रक्रिया से उन्नत फसल देने वाले पेड़ के रूप में बदला जा सकता है। यह तरीका पौदों पर कलम लगाने की ही तरह है। जिस पेड़ पर टॉप कार्य करना होता है उसे जोरकेट के ठीक नीचे (जमीन से 1- 1.5 मी ऊपर) चौड़ाई के आधे में चीरकर स्फुटन लगाया जाता है। नए निकले ताकतवर तीन या चार चुपोन शूट पर चित्ती कलम लगाया जाता है और शेष चुपोनों को हटा दिया जाता है। जब शूट पेंसिल की मोटाई का हो जाये और उसकी पत्तियाँ बड़ी हो जाए तो कलम लगाया जाने चाहिए। कलम लगाने के लिए मुकुल काठ केवल उन्नत फसल देने वाले पेड़ के फैन शूट से ही लेने चाहिए। इस शूट्स पर चित्ती बड्डिंग तना के खाल से 2.5 मी लंबी और 0.5 से मी चौड़ाई को हटाकर उसके स्थान पर समान साइज़ के चित्ती मुकुल लगा दिया जाता है। इस कलम को सही स्थान पर लगाकर उसे पोलिथीन टेप से बांधकर सुरक्षित किया जाता है। बड्डिंग के तीन सप्ताह बाद टेप को काटकर हटाया जाता है और पौद के स्टोक भाग को पुन स्फुटित किया जाता है। जब पर्याप्त मात्र में शूट ताकतवर हो जाए तो मातृ वृक्ष के छत्रों को पूरी तरह हटाया जाता है। टॉप कार्य किसी भी मौसम में किया जा सकता है। फिर भी यदि यह कार्य सिंचाई वाले बागानों में वर्षा रहित समय में किया जाये ज्यादा सुविधाजनक होगा। वर्षा वाली स्थिति में यह कार्य पूर्व मॉनसून के बौछार मिलने के बाद किया जा सकता है। टॉप कार्य किए गए वृक्ष उसी उम्र के बड किए गए पौद के मुक़ाबले तेजी से बढ़ता है, क्योंकि उसमें स्थापित जड़ प्रणाली मौजूद होती है। वे दूसरे वर्ष से ही उन्नत फसल देने लगता है, जबकि उसी उम्र के बड किए गए कोको के पौधे पाँच वर्ष तक लगा सकते हैं।
स्त्रोत: काजू और कोको विकास निदेशालय, भारत सरकार