वर्तमान मे देश की बढ़ती जनसंख्या को भोजन उपलब्ध कराने के लिये सघन खेती ही एकमात्र विकल्प बनता जा रहा है, क्योकि बढ़ती जनसंख्या के दबाव के कारण खेती की भूमि अन्य कार्यो के लिये परिवर्तित हो रही है एवं खेती का रकबा बढ़ाना अब संभव प्रतीत नही होता है। देश मे बहुत से क्षेत्र ऐसे है जहां की कृषि पूरी तरह से वर्षा पर आधारित है तथा सिंचार्इ के सीमित साधन के कारण ही रबी मौसम में खेत खाली पड़ी रहती है अत: ऐसे क्षेत्रों के लिए सघन खेती के रूप मे उतेरा खेती एक महत्वपूर्ण विकल्प साबित हो सकती है। इस खेती का मुख्य उद्देश्य खेत में मौजूद नमी का उपयोग अगली फसल के अंकुरण तथा वृद्धि के लिए करना है। इस प्रकार की खेती मे किसी भी प्रकार की कर्षण क्रियाये नही की जाती है।
क्या है उतेरा खेती
यह फसल उगाने की वह पद्धति है जिसमे दूसरी फसल की बुंवार्इ, पहली फसल के कटने के पूर्व ही कर दी जाती है।
खेत का चुनाव
उतेरा खेती के लिए कन्हार या मटियार दोमट जैसी भारी मृदा वाली खेत उपयुक्त रहती है। अत: मध्यम तथा निचली (बहरा) भूमि का चुनाव करना चाहिए। भारी मृदा में जलधारण क्षमता अधिक होती है साथ ही काफी लम्बे समय तक इस मृदा में नमी बनी रहती है। टिकरा या उच्च भूमि उतेरा खेती के लिए उपयुक्त नहीं होती है क्योंकि यह जल्दी सूख जाती है।
लगाने का समय एवं तरीका
उतेरा खेती सामान्यत: धान की फसल मे की जाती है। धान की फसल कटार्इ के 15-20 दिन पहले जब बालियां पकने की अवस्था मे हो अर्थात अक्टूबर के मध्य माह से नवम्बर के मध्य के बीच उतेरा फसल के बीज छिड़क दिये जाते है। बोआर्इ के समय खेत में पर्याप्त नमी होना चाहिए। नमी इतनी होनी चाहिए की बीज गीली मिट्टी में चिपक जाए। यहाँ ध्यान दें कि खेत में पानी अधिक न हो अन्यथा बीज सड़ जाएगी। आवश्यकता से अधिक पानी की निकासी कर देना चाहिये।
फसल का चुनाव
मुख्य फसल तथा उतेरा फसल के बीच समय का सामंजस्य अति आवश्यक है। अत: मुख्य फसल के लिए मध्यम अवधि वाली धान की फसल अर्थात 100 से 125 दिनों में पकने वाली उन्नत प्रजाति का चुनाव करना चाहिए। लम्बे अवधि वाले धान फसल का चुनाव करने से उतेरा फसल को वृद्धि के लिए कम समय मिलता है तथा नमी के अभाव के कारण उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। धान की उन्नत तथा मध्यम अवधि वाली किस्में जैसे- समलेश्वरी, दंतेश्वरी, आर्इ. आर.-36, आर्इ. आर.- 64, चंद्रहासिनी, इंदिरा राजेश्वरी, पूर्णिमा, एमटीयू-1010, पूसा बासमती इत्यादि की खेती खरीफ में मुख्य फसल के रुप में की जानी चाहिए। उतेरा फसल के रूप में अलसी, तिंवड़ा, मसूर, चना, मटर, लूसर्न, बरसीम आदि का चुनाव किया जा सकता है।
बीज दर एवं उपज
उतेरा फसल के लिए बीज दर उस फसल के सामान्य अनुशंसित मात्रा से लगभग डेढ़ से दुगना अधिक होता है। उदाहरण के लिए तिंवड़ा का अनुशंसित बीज दर 40-45 किलो प्रति हेक्टेयऱ है वही उतेरा खेती हेतु 90 किलो प्रति हेक्टेयर बीज दर लगता है। प्रति हेक्टेयर क्षेत्रफल पैदावार बढ़ाने के लिए उन्नत किस्मों का चुनाव अत्यन्त जरूरी है। किसान बंधु यदि मुख्य फसल धान जैसा ही उतेरा फसल के खेती पर ध्यान दें तो निशिचत रूप से प्रति इकार्इ क्षेत्रफल मे पैदावार बढ़ेगी। उतेरा खेती अपनाकर काफी कम लागत में निम्नलिखित उपज प्रति हेक्टेयर प्राप्त किया जा सकता है-
उतेरा फसल
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बीजदर (कि.ग्रा./ हेक्टे.) |
उपज (किंवट/हेक्टे.) |
तिंवड़ा | 80-90 | 5-7 |
चना | 100-110 | 4-5 |
मसूर | 40-50 | 3-4 |
मटर | 140-150 | 6-8 |
अलसी | 40-50 | 3-4 |
खाद एवं उर्वरक
दलहनी फसलों में नाइट्रोजन की आवश्यकता पौधे के शुरूवाती अवस्था में ही होती है। अत: यूरिया 5 किलो, डी.ए.पी. 50 किलो तथा पोटाश 15 किलो प्रति हेक्टेयऱ बोवार्इ के समय देना चाहिए। 5 किवंटल गोबर की सड़ी खाद भी अच्छी तरह से भूरकाव कर देना चाहिए। तिलहनी फसलों के लिए नाइट्रोजन की अतिरिक्त मात्रा देने की आवश्यकता होती है। अतिरिक्त 20 किलो यूरिया का छिड़काव बुंवार्इ के 25-30 दिन बाद करना चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण
तिलहनी फसलो में खरपतवार नियंत्रण के लिये आक्साडाइजोन (500 ग्राम सकि्रय तत्व) की 2 लीटर मात्रा को बोने के 3 दिन के अंदर छिड़काव करना चाहिये या आइसोप्रोटयूरान की 2 लीटर मात्रा को अंकुरण के 15 दिन बाद प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिये। दलहनी फसलो जैसे मटर, चना, मसूर, तिंवड़ा आदि मे खरपतवार नियंत्रण के लिये पेंडीमेथलीन (30 र्इ.सी.) की 1 लीटर मात्रा को बोने के 3 दिन के अंदर छिड़काव करना चाहियेे।
पौध संरक्षण
उतेरा फसलों मे ज्यादातर रोगो मे मुख्य रूप से उकटा एवं भभूतिया का प्रकोप होता है। रोगो से बचाव के लिये बीजो को ट्राइकोडर्मा विरडी (5 ग्राम/किलो बीज) या कार्बेंडाजिम (3 ग्राम/किलो बीज) से उपचारित करके बोना चाहिये। रोग प्रतिरोधी जातियो का चुनाव करना चाहिये। भभूतिया रोग से बचाव के लिये घुलनशील गंधक (3 ग्राम) या बाविसिटन (1 ग्राम) या केलेकिसन (1 ग्राम) मे से किसी एक दवा को प्रति लीटर पानी मे घोलकर छिड़काव करना चाहिये।
कीटो मे मुख्य रूप से पत्ती खाने वाली इलिल्यां या फली भेदक इलिलयां, माहो एवं थि्रप्स का प्रकोप होता है। इलिल्यो के नियंत्रण के लिये मेलाथियान 2 मि.ली.ली. पानी के हिसाब से घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिये। माहो एवं थ्रिप्स के नियंत्रण के लिये रोगार या मेथाइल आक्सी डेमेटान की 2 मि.ली. मात्रा प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिये।
उतेरा खेती से लाभ
उतेरा खेती सेे निम्नलिखित फायदे है –
- इस पद्धति से खेत में मौजूद नमी का पूर्ण उपयोग हो जाता है एवं खेत भी परती नही रहता जिससे भूमि का सदुपयोग हो जाता है।
- उतेरा खेती अन्य सघन खेती की विभिन्न प्रणालियो से कम लागत वाली सस्ती व सरल विधि है।
- कम लागत मे ही दलहनी एवं तिलहनी उतेरा फसल का अतिरिक्त उपज प्राप्त होता है। अर्थात अधिक आर्थिक लाभ प्राप्त होता है।
- उतेरा खेती के अन्तर्गत दलहनी फसलों के नत्रजन सिथरीकरण के कारण खेत में नत्रजन की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे किसान को अन्य फसल के खेती में अपेक्षाकृत कम नत्रजन खाद देने की आवश्यकता होती है।
- तिलहनी फसलों से तेल के साथ-साथ कार्बनिक खाद के रूप मे खली की प्रापित होती है।
ध्यान देने योग्य बातें
उतेरा खेती के अन्तर्गत कुछ सावधानियाँ बरतने की आवश्यकता होती है जैसे-
- उतेरा फसल के बीज अंकुरण के समय खेत में पानी का जमाव नहीं होना चाहिए। पानी के जमाव से बीज के सड़ जाने का खतरा रहता है। अत: जल निकासी की समुचित प्रबंध करना चाहिये।
- बीज बोवार्इ के समय फसल, किस्म तथा भूमि के प्रकार पर ध्यान देना चाहिए।
- मुख्य फसल मध्यम अवधि मे तैयार होने वाली एवं उन्नत किस्म की होनी चाहिए।
- मुख्य फसल की कटार्इ सावधानी पूर्वक करना चाहिये ताकि उतेरा फसल को हानि न हो।
- चना तथा तिंवड़ा उतेरा फसल की शीर्ष कलिका भाग को तोड़ देना चाहिए ताकि अधिक शाखाएं एवं फलियां आ सके।
- खरपतवारनाशी का प्रयोग तभी करे जब मृदा मे पर्याप्त नमी हो अन्यथा हाथो से निंदार्इ करे।
- पौध सरंक्षण दवाओ का प्रयोग तभी करे जब समस्या आर्थिक क्षति स्तर से ऊपर चला जाये।
- दलहनी फसलो मे राइजाबियम एवं पी.एस.बी. कल्चरो से बीज उपचार करने से अतिरिक्त लाभ मिलता है।
निष्कर्ष
उतेरा खेती से प्राय: सभी किसान भार्इ पहले से परिचित होंगे, लेकिन इनसे जुड़े वैज्ञानिक पहलूओं तथा आधुनिक जानकारियों के अभाव के कारण उनका पैदावार काफी कम है। अत: पैदावार बढ़ाने के लिए वैज्ञानिक उन्न्त तरीकों व जानकारियों का ज्ञान एवं व्यापक उपयोग अति आवश्यक है।