परिचय
उत्तरी भारत के विभिन्न राज्यों में लगभग एक लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल पर बासमती धान की खेती की जाती है जिसका घरेलू एवं अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में उच्च मूल्य मिलता है। किसी भी कीट–रोग के प्रति पूर्ण प्रतिरोधक न होने के कारण बासमती प्रजातियों जैसे पूसा बासमती–1, तरावडी बासमती तथा देहरादूनि बासमती की ऊपज क्षमता में विभिन्न जैविक तनाव के कारण पर्याप्त बाधा उत्पन्न होती है। राष्ट्रीय समेकित नाशीजीव प्रबंधन अनुसंधान केंद्र की धान टीम द्वारा बासमती उत्पादक विभिन्न क्षेत्रों के दौरे के परिणामस्वरूप सामने आया है कि किसानों द्वारा बासमती धान की फसल में अत्याधिक कीटनाशकों एवं उर्वरकों का प्रयोग से कीट–रोग के प्रकोप से अप्रत्याशित हानि, मृदा जल एवं पर्यावरण का प्रदूषित होना तथा चावल के दानों में प्रयुक्त किए गये कीटनाशकों के अवशेषों के कारण अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चावल की खेप की अस्वीकृति आदि स्थितियां सामने आई। इन समस्याओं को ध्यान में रखते हुए केंद्र के वैज्ञानिकों द्वारा उत्तर प्रदेश, हरियाणा एवं उत्तराखंड में क्रमशः पूसा बासमती –1 तरावड़ी बासमती तथा देहरादून बासमती में आईपीएम मॉड्यूल विकसित कर वैधीकरण किया गया। इसी क्रम में पूसा बासमती–1121 जो कि वर्ष 2005 में रिलीज की गई और बासमती धान के कुल क्षेत्रफल के लगभग 80 प्रतिशत क्षेत्र में उगाई जा रही है, में बकाने (झंडा) रोग के प्रकोप के कारण किसानों को भारी हानि होती देखी गई। केंद्र के वैज्ञानिकों ने इस चुनौती को स्वीकार कर इस रोग के प्रबंधन हेतु समग्र आईपीएम रणनीति बनाई जिसका गाँव बम्बावड (उ. प्र.) में सफलतापूर्वक वैधीकरण किया गया।
क्षेत्रों का चयन
सर्वप्रथम वर्ष 1997–98 में बागपत जिले के बड़ोत क्षेत्र में पूसा बासमती–1 में 10 हेक्टेयर क्षेत्रफल में आईपीएम पद्धति का सफल वैधीकरण किया गया। इस क्षेत्र का चयन आधारभूत जानकारी के आधार पर किया गया जिससे पता चला कि इस क्षेत्र के किसानों द्वारा कीट–रोग के नियंत्रण के लिए जहरीले कीटनाशकों (फोरेट, मोनोक्रोटोफास, इन्डोसल्फान इत्यादि) के 4–5 छिड़काव किये जाते हैं। वर्ष 1999 में वैधीकरण परिक्षण पास के गाँव शिकोहपुर में 40 हेक्टेयर में स्थानांतरित कर अगले आने वाले वर्षों में 120, 160 तथा 180 हेक्टेयर तक प्रसारित किया गया। गाँव शिकोहपुर में लगातार सफलतापूर्वक आईपीएम तकनीक का वैधीकरण पूसा बासमती–1 में करने के पश्चात् आईपीएम तकनीकी का वैधीकरण हरियाणा के पानीपत में गाँव छाजपुर में ताराबाड़ी बासमती में किया गया इसके अंतर्गत वर्ष 2002, 2003 एवं 2004 में क्रमशः 28, 80 एवं 140 हेक्टेयर क्षेत्रफल लिया गया। धीरे–धीरे यह तकनीक आसपास के लगभग 25 गाँवों में किसानों द्वारा ग्रहित कर ली गई। वर्ष 2005–2010 के दौरान आईपीएम तकनीक का वैधीकरण एवं क्रियान्वयन देहरादूनी बासमती एवं शरबती प्रजाति में उत्तराखंड के गाँव तिलवाड़ा एवं दूधली में किया गया।
वर्ष 2005 के दौरान भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा बासमती की नई प्रजाति पूसा बासमती–1121 कृषकों को उपलब्ध कराई गई। इस प्रजाति की अच्छी ऊपज के कारण यह किसानों के मध्य अत्यधिक प्रचलित हुई साथ ही यह प्रजाति बकाने रोग के प्रति बहुत संवेदनशील भी पाई गई। इस प्रजाति की लोकप्रियता एवं क्षेत्रफल में बढ़ोतरी के कारण बकाने रोग की गंभीरता अधिक देखी गई। बकाने रोग के प्रकोप एवं अन्य कीट–रोग को ध्यान में रखते हुए आईपीएम मॉड्यूल को परिष्कृत कर इसका वैधीकरण 2006 – 2010 के दौरान अटेरना एवं सिवोली (हरियाणा) में 40 हेक्टेयर क्षेत्रफल में किया गया। आईपीएम मॉड्यूल की अत्यधिक सफलता का वर्ष 2010–16 के मध्य उ. प्र. के बम्बावड एवं आस–पास के गाँव 400 हेक्टेयर (1000 एकड़) से अधिक क्षेत्रफल पर सफलतापूर्वक क्रियान्वयन किया गया।
आधारभूत जानकारी
- इन क्षेत्रों में कीटों में पीला तना बेधक, भूरे फूद्के, पत्ती लपेटक अता रोगों में ब्लास्ट, जीवाणु जनित अंगमारी (बीएल बी) तथा शीथ ब्लाईट मुख्य कीट – रोग पाए गये।
- इस क्षेत्र के किसानों द्वारा सामान्यत: हरी खाद (ढेंचा/मूंग) का प्रयोग न करना।
- किसानों के द्वारा किसी भी प्रकार का बीजोपचार न करना।
- रोपाई के समय हरियाणा एवं उ. प्र. में एक स्थान पर केवल एक ही पौधे की रोपाई करना।
- हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश के किसानों द्वारा नत्रजन उर्वरकों की संस्तुति मात्रा से अधिक का प्रयोग जबकि उत्तराखंड के किसानों द्वारा संस्तुति से कम मात्रा का प्रयोग करना तथा जिंक का प्रयोग न करना।
- किसानों द्वारा कीट रोग एवं मित्र कीट में अंतर न करना तथा फसल में कीट – रोग निगरानी न करना।
- कीट – रोग प्रबंधन के लिए पूर्णतया कीटनाशक विक्रताओं पर निर्भर रहना तथा 4 – 6 जहरीले कीटनाशकों का छिड़काव करना।
- किसानों द्वारा सामान्यतया फोरेट, फिप्रोनिल, इन्डोसल्फान, मोनोक्रोटोफास, डाईक्लोरावास, मिथाइल पेराथियान तथा एम – 45 इत्यादि का अविवेकपूर्ण प्रयोग करना।
- किसानों का आईपीएम के प्रति जानकारी न होना।
आईपीएम मॉड्यूल प्रयुक्त करना
समग्र आईपीएम मॉड्यूल सस्य क्रियाओं जैसे हरी खाद का प्रयोग, संतुलित उर्वरकों का प्रयोग तथा पोटाश एवं जिंक उर्वरकों के प्रयोग के साथ – साथ जैविक तनाव प्रबंधन पद्धति जैसे मित्र कीटों का संरक्षण निरंतर फसल निगरानी, जैविक कीटनाशकों का प्रयोग तथा आवश्यक होने पर रासायनिक कीटनाशकों के प्रयोग पर आधारित था।
फसल अवस्था | लक्ष्य |
समेकित फसल प्रबंधन विकल्प (कीट–रोग प्रबंधन सहित) |
खरीफ की फसल से पूर्व |
मृदा पोषक तत्वों में वृद्धि हेतु |
हरी खाद के रूप में ढेंचा/मूंग की बुवाई, ढेंचा/मूंग की 45–50 दिन पश्चात् मृदा में गहाई |
नर्सरी |
स्वस्थ नर्सरी हेतु क्यारी बनाना |
10 X 1.5 वर्ग मीटर की उठी हुई क्यारियों में बुवाई तथा क्यारी के मध्य 30 से. मी. की दूरी रखना,गोबर की खाद एवं उर्वरक की संतुलित मात्रा का प्रयोग |
रोग |
प्रमाणित बीज की बुआई, बीज का 2 प्रतिशत नमक के घोल से 15 मिनट तक उपचार तत्पश्चात साफ़ पानी से धुलाई एवं 2 ग्रा. कि. ग्रा. की दर से कार्बेन्डाजिम से बीज शोधन कर बुआई करना |
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खरपतवार |
निराई – गुड़ाई |
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ब्लास्ट |
कार्बेन्डाजिम 50 डब्ल्यू पी का 250 – 500 ग्रा/ हे. अथवा आइसोप्रोथियोलन 40 ई सी. 750 मिली/ हे. अथवा ट्रायसायक्लोजाल 75 डब्ल्यू पी 300 – 400 ग्रा/हे. का छिड़काव |
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बैक्टीरियल लीफ ब्लाईट |
स्ट्रेप्टोमायासिन सल्फेट 9 प्रतिशत + टेट्रासायक्लिन हाइड्रोक्लोराइड 1 प्रतिशत एसपी 100 – 150 पीपीएम घोल का छिड़काव |
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रोपाई के समय |
संतुलित उर्वरक (संस्तुति मात्रा) |
नत्रजन फास्फोरस, पोटास 25:50:50 तथा जिंक 25 किग्रा./हे. (फास्फोरस उर्वरक के एक सप्ताह बाद) का प्रयोग। |
तना बेधक, पत्ती लपेटक, मृदा जनित रोग |
पत्तियों की आवश्यकतानुसार छंटाई, स्यूडोमोनास फ्लोरेसेंस (3.0×1010) 5 मिली./लीटर पानी में पौध की जड़ों को 30 – 40 मिनट तक डूबोना। एक स्थान पर 2 – 3 पौधों की रोपाई तथा 20×15 सेन. मी. की दूरी बनाये रखना। |
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खरपतवार |
निराई- गुड़ाई |
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कल्ले निकलने की अवस्था |
तना बेधक कीट की निगरानी, मकड़ियों का संरक्षण तना बेधक, पत्ती लपेटक |
फेरोमोन ट्रैप 5/हे, अनुसार लगाना। धान अथवा गेहूं के पुआल के निश्चित आकार के बंडलों का प्रत्यार्पण (मकड़ियों के संरक्षण हेतु) ट्राईकोग्रामा जेपोनिकम (अंडा परजीवी( 1.5 लाख प्रति हे. अनुसार कार्ड लगाना (निगरानी के आधार पर ही) आवश्यक होने पर क्लोरएंट्रानीलोप्रोल 0.4 प्रतिशत दाने 10 किग्रा./हे. अथवा कारटाप हाइड्रोक्लोराइड 4 जी 18 – 25 किग्रा./हे, का प्रयोग करना। |
भूरा फूद्का |
डाईनोंटफूरान 25 एस. जी. 150 ग्रा./हे. अथवा ब्यूप्रोफेजिन 25 एस सी 800 मि. ली./हे. अथवा ईथोफेनाप्रोक्स 10 ईसी 50 मि. ली./हे. अथवा इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्ल्यू जी 30 – 35 मि. ली./हे. अथवा एसिफेट 75 एस पी 750 मि. ली./हे. का प्रयोग करें। (एक ही कीटनाशक का दोबारा प्रयोग न करें) |
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शीथ क्लाईट |
वेलिडामाइसिन 3 प्रतिशत एल 200 ग्रा./हे.अथवा प्रोपिकोनाजोल 10.7 प्रतिशत + ट्रायसायक्लोजोल 34.2 प्रतिशत एसई 500 मि. ली./हे. का छिड़काव |
|
बैक्टीरियल लीफ ब्लाईट |
स्ट्रेप्टोसायक्लीन 100 – 150 पीपीएम घोल का प्रयोग। नत्रजन की बची दो मात्राओं का रोपाई के 25 – 30 दिन एवं 45 – 50 दिन पश्चात् प्रयोग। |
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ब्लास्ट |
उपरोक्त (शीथ ब्लाईट के अनुसार) |
|
फूल आने की अवस्था ले पकने तक |
तना बेधक, पत्ती लपेटक, शीथ ब्लाईट, बैक्टीरियल |
उपर्युक्त अनुसार |
कीटनाशकों का छिड़काव
तना बेधक – 2 अंड समूह/वर्ग मीटर अथवा 10 प्रतिशत मृतगोभ अथवा 1 पतंगा/वर्ग मीटर अथवा 25 पतंगे/ट्रेप/सप्ताह। पत्ती लपेटक – एक झुंड में 2 पूरी तरह प्रभावित पत्ती सूंडी के अथ बैक्टीरियल लीफ ब्लाईट – 2 – 3 प्रभावित पत्ती/वर्ग मीटर, शीथ ब्लास्ट – 2 – 5 पौधे/वर्गमीटर।
नोट – वर्तमान में चल रहे परिक्षण में पत्ती लपेटक एवं तना बेधक कीट के लिए किसी भी कीटनाशक का छिड़काव नहीं किया गया क्योंकि इन कीटों का प्रकोप कभी भी आर्थिक हानि स्तर से अधिक नहीं पहुँच पाया। लेकिन इन कीटों का प्रकोप आर्थिक हानि स्तर से अधिक होता है तो क्लोरएंट्रानीलीप्रोल 0. 4 प्रतिशत दानेदार 10 कि. ग्रा./हे. कारटाप हाइड्रोक्लोराइड 4 प्रतिशत दानेदार 18 – 75 कि. ग्रा./हे. अथवा 50 एस. पी. 1000 ग्रा./हे. का प्रयोग किया जा सकता है।
तकनीकी का प्रभाव
कीट रोग के प्रकोप में कमी सभी आईपीएम खेतों में कीट रोगों का प्रकोप काफी कम रहा
कीटनाशकों के छिड़काव में कमी
आईपीएम क्षेत्रों में गैर–आईपीएम (एफ.पी.) क्षेत्रों की अपेक्षा रासायनिक कीटनाशकों के छिड़काव में काफी कमी पाई गई। आईपीएम क्षेत्रों में औसतन 0.62 छिड़काव (सक्रिय तत्व 53.65 ग्रा./हे.) हुए जबकि गैर–आईपीएम में 1.98 छिड़काव (सक्रिय तत्व 730.75 ग्रा..हे.) किया गया.
मित्र जीवों का संरक्षण
गैर – आईपीएम की अपेक्षा आईपीएम प्रणाली में मकड़ियों की संख्या में काफी वृद्धि पाई गई। मकड़ियों का भूरे फुदके के नियंत्रण में काफी योगदान होता है।
उपज एवं लाभ लागत अनुपात में वृद्धि
आईपीएम क्षेत्रों में औसतन उपज 37.835/ कु./हे. आंकी गई जबकि गैर–आईपीएम क्षेत्रों में औसतन उपज केवल 31.405 कु./हे. ही रही (तालिका 2 और तालिका 3। आईपीएम एवं गैर आईपीएम क्षेत्रों में औसतन लाभ लागत अनुपात क्रमश: 3.62 एवं 2.57 पाया गया।
तालिका 1 – बासमती चावल की विभिन्न किस्मों में आईपीएम और एफ पी (गैर आईपीएम) क्षेत्रों में कीटनाशक और बीमरियों का प्रकोप
कीट दृरोग/बीमारियाँ |
अटेरना (2008) |
सिबोला (2008 -2010) |
बम्बावाड़ (2010\ – 2016) |
|||
आईपीएम |
गैर –आईपीएम |
आईपीएम |
गैर -आईपीएम |
आईपीएम |
गैर -आईपीएम |
|
तना बेधक (प्रतिशत) |
3 -0 |
6-5 |
2 -62 |
10 – 9 |
0 – 99 |
2 – 98 |
पट्टी लपेटक (प्रतिशत) |
6-5 |
10- 0 |
5 -5 |
8 – 53 |
1 – 33 |
3 – 33 |
भरा फुदका (स. प्रति झुंड) |
17 – 5 |
35 – 0 |
8 – 09 |
25 – 67 |
3 – 28 |
8 -89 |
ब्लास्ट (प्रतिशत) |
7 -0 |
18 – 0 |
6 – 75 |
14 – 28 |
0 -03 |
0 -15 |
वैक्टीरियल ब्लाईट (प्रतिशत) |
5-0 |
9 -0 |
7 – 17 |
10 – 50 |
0 – 6 |
1 – 61 |
बकाने (प्रतिशत) |
3-50 |
8- 0 |
1 |
7 – 5 |
1 – 28 |
15 – 16 |
भूरा धब्बा रोग (प्रतिशत) |
– |
– |
– |
– |
0 – 25 |
0 – 43 |
शीथ ब्लाईट (प्रतिशत) |
– |
– |
0 -01 |
0 06 |
तालिका 2 – बम्बावाड़ और आस –पास के गाँव में आईपीएम और गैर आईपीएम क्षेत्रों में सामाजिक एवं आर्थिक विश्लेषण
खरीफ |
रासायनिक कीटनाशकों के छिड़काव (स.) * |
सक्रिय तत्व ग्रा./हे. * |
औसत लागत @ (रू.) |
कुल आय (रू.) |
औसत उपज (कु./हे. |
लाभ लागत अनुपात |
||||||
आईपीएम |
गैर -आईपीएम |
आईपीएम |
गैर -आईपीएम |
आईपीएम |
गैर -आईपीएम |
आईपीएम |
गैर -आईपीएम |
आईपीएम |
गैर -आईपीएम |
आईपीएम |
गैर -आईपीएम |
|
2013 |
1.3 |
2.9 |
75 |
1159 |
25,480 |
28,740 |
131.594 |
1,05, 222 |
34.63 |
27.69 |
5.16 |
3.66 |
2014 |
1.0 |
1.5 |
23 |
306 |
24,841 |
28,405 |
1,11,650 |
89,640 |
38.50 |
33.20 |
4.56 |
2.15 |
2015 |
0 |
0.72 |
20 |
306 |
30,183 |
33,930 |
69,264 |
48, 960 |
37.44 |
28.80 |
2.29 |
1.44 |
2016 |
0.18 |
2.8 |
96.6 |
394 |
31,990 |
36,810 |
87,540 |
75,433 |
40.73 |
35.93 |
2.73 |
2.04 |
औसत |
0.62 |
1.98 |
53.65 |
730.75 |
28123.5 |
31971.95 |
100012 |
79813.75 |
37.825 |
31.405 |
3.69 |
2.57 |
* आईपीएम में कार्बेन्डाजिम के साथ बीज उपचार शामिल है।
@ कुल लागत में जमीन की तैयारी, नर्सरी, बुवाई, रोपण, श्रम लागत, बीज उर्वरक कारक आदि सामग्री शामिल है।
बाजार में धान की कीमत – वर्ष 2013 में रू. 3800/- प्रति कु. वर्ष 2014 में आईपीएम में रू. 2900/- प्रति कु. (आईपीएम किसानों को रू. 200/- कु. का अतिरिक्त प्रीमियम भी मिला) जबकि गैर आईपीएम में रू. 2700/- प्रति कु. वर्ष 2015 में आईपीएम में रू. 1850/- प्रति कु. जबकि गैर आईपीएम में रू. 1700/- प्रति कु. वर्ष 2016 में रू. 2150/- प्रति कु.।
तालिका 3 विभिन्न स्थानों पर आईपीएम एवं गैर आईपीएम में किया गया आर्थिक विश्लेषण
पूसा बासमती – 1 |
तराबडी बासमती |
देहरादून बासमती |
||||||||||
शिकोहपुर (बागपत) ऊ. प्र. 2000 – 02 |
छाजपुर (पानीपत), हरियाणा 2002-04 |
तिलवाड़ा (देहरादून)उत्तराखंड 2005 -07 |
अटेरना (सोनीपत), हरियाणा 2008 |
सिबोला (सोनीपत) हरियाणा 2008-10 |
बम्बा वाड़ (गौतम बुध नगर) उ. प्र. 2013 – 16 |
|||||||
औसत उपज (कु./हे. |
55.68 |
45.77 |
27.09 |
22.32 |
22.72 |
18.98 |
41.0 |
35.8 |
4.6 |
37.53 |
36.01 |
26.24 |
लाभ लागत अनुपात |
2.85 |
2.01 |
2.80 |
1.86 |
1.86 |
3.08 |
6.4 |
5.3 |
6.27 |
4.77 |
3.69 |
2.57 |
सफलता के प्रमुख घटक
किसान पाठशालाओं का आयोजन – कार्यक्रम के अंतर्गत आने वाले स्थानों पर निरंतर 10 -15 दिन के अन्तराल पर किसान पाठशालाओं का आयोजन किया गया जिसके फलस्वरूप तकनीकी को समझने एवं उसके क्रियान्वयन में सहायता मिली साथ ही किसानों एवं वैज्ञानिकों के मध्य महत्वपूर्ण संबंध स्थापित करने एवं विचार – विमर्श करने में सफलता मिली।
कीट – रोग की निगरानी – सभी स्थानों पर प्रगतिशील किसानों को कीट – रोग एवं उसके द्वारा हानि के लक्षणों की पहचान करने तथा कीट- रोग के आर्थिक हानि स्तर को जानने के लिए प्रशिक्षण दिया गया। इस प्रक्रिया द्वारा किसानों को आवश्यक होने पर ही सही कीटनाशकों के छिड़काव में स्वयं के निर्णय लेने में सहायता मिली।
गुणवत्ता युक्त जैविक कारकों की उपलब्धता – आईपीएम कार्यक्रम की सफलता के लिए गुणवत्ता युक्त जैविक कारकों की उपलब्धता स्थानीय बाजार/ब्लॉक स्तर पर होआ अति आवश्यक है। वर्तमान कार्यक्रम में राज्य कृषि विभाग/कृषि विश्वविद्यालय द्वारा स्थानीय ब्लॉक के माध्यम से स्वयं की जैव प्रयोगशालाओं द्वारा जैविक कारकों की उपलब्धता में सहायता की गई।
संचार व्यवस्था – आईपीएम कार्यक्रम के क्रियान्वयन के दौरान केंद्र की धान टीम के सभी सदस्यों के मोबाइल फोन नवंबर क्षेत्र के प्रगतिशील किसानों को दिए गये जिससे कि वह आवश्यकता होने पर टीम के वैज्ञानिकों से सम्पर्क कर सही जानकारी प्राप्त कर सकें।
आईपीएम किसानों का सशक्तिकरण एवं कौशल विकास: आईपीएम तकनीकी को अपनाने से किसानों में निम्नलिखित सशक्तिकरण हुआ।
- किसानों द्वारा आईपीएम के अंतर्गत समेकित फसल प्रबंधन के महत्व को समझा गया जैसे उर्वरकों का संतुलित प्रयोग तथा हरी खाद के रूप में ढेंच अथवा मूंग का प्रयोग।
- हानिकारक कीटों एवं मित्र कीटों के सम्बन्ध में जानकारी (इससे पहले किसान सभी प्रकार के कीटों को हानिकारक कीट मानते थे।
- प्रमुख रोगों की पहचान करना संभव (पूर्व में रोगों की पहचान करने में सक्षम नहीं थे)
- इन सभी गांवों के किसानों द्वारा निरंतर फसल निगरानी के महत्व को तथा कीट – रोगों के आर्थिक हानि स्तर की संकल्पना को समझा गया (पूर्व में सिर्फ कीट – रोग दिखाई पड़ने पर ही कीटनाशकों का अविवेकपूर्ण प्रयोग किया जाता था।
- मित्र कीटों (ट्राईकोकार्ड इत्यादि) के प्रयोग हेतु निर्णय लेने में सक्षम (पूर्व में सिर्फ कीटनाशकों पर ही निर्भर)
- किसानों द्वारा रोग के प्रकोप की अवस्था में फसल के सिर्फ प्रभावित क्षेत्र में ही रसायनों का प्रयोग (पूर्व में सम्पूर्ण फसल पर ही छिड़काव करना)
लेखन: आर. के. तंवर, एस. पी. सिंह, विकास कँवर एवं सतेन्द्र सिंह
स्त्रोत: राष्ट्रीय समेकित नाशीजीव प्रबंधन अनुसंधान केंद्र
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