परिचय
वर्ष 2002 में बीटी ट्रांसजेनिक कपास के व्यवसायीकरण से कपास के उत्पादन की क्रांतिकारी बदलाव हुए जिसके परिणामस्वरूप वर्ष 2009 – 10 में कपास के अंतर्गत विश्व में सर्वाधिक क्षेत्रफल (10.33 मिलियन हेक्टेयर) तथा उत्पादन 29.5 मिलियन गांठ हो गया। विश्व स्तर पर भारत कपास उत्पादन में दुसरे स्थान पर आ गया जिसमें बीटी कपास अंतर्गत लगभग 90 प्रतिशत क्षेत्रफल (8.4 मिलियन हेक्टेयर) रहा। बालगार्ड – 1 (क्राई 1 एसी एवं क्राई 2 एबी) के कारण कपास में लेपिड़ोपटेरस कीटों का लगभग सफाया हो गया एवं रासायनिक कीटनाशकों के प्रयोग में 69 प्रतिशत तक की कमी देखि गयी। वर्ष 2010 तक बीटी कपास के छ: ट्रांसजेनिक भारत में व्यवासायिक खेती के लिए अनुमोदित किए गये जिनकी संख्या में बाद में वृद्धि होती गई।
ट्रांस जेनिक बीटी कपास को अपनाने से विशिष्ट लेपिड़ोपटेरस प्रजाति के कीटों के प्रभावी रूप से प्रबंधन में सहायता मिली, परिणामस्वरूप इस प्रौद्योगिकी के प्रयोग से रासायनिक कीटनाशकों के इस्तेमाल में महत्वपूर्ण कमी आई संकर बीटी कपास द्वारा कपास की फसल की बालवर्म से संरक्षित करने में प्रभावी सफलता मिली। लेकिन बीटी ट्रांसजेनिक संकर प्रजातियों में रस चुसक कीटों के प्रति प्रतिरोधकता में कमी, कीट – रोग प्रबंधन युक्तियों में बदलाव एवं रासायनिक कीटनाशकों के उपयोग में कमी के कारण रस चुसक प्रजाति के कीटों में महत्वपूर्ण रूप से बढ़ोतरी हुई। भविष्य में रसचूसक कीटों के प्रकोप में बढ़ोतरी भारत में बीटी कपास के टिकाऊपन में बाधक हो सकती है।
गुजरात में बीटी कपास में पहली बार वर्ष 2004 में मिलीबग कीट का प्रकोप देखा गया जो की वर्ष 2006 तक गुजरात के साथ साथ अन्य कपास उत्पादक राज्यों में प्रमुख कीट के रूप में सामने आया। भारत में कपास उत्पादक राज्यों में मिलीबग कीट का प्रकोप, उसका फैलाव एवं प्रबंधन वर्ष 2006 – 200 9 के दौरान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा। इस दौरान मिलीबग कीट के प्रबंधन में भा.कृ.अनु.प- राष्ट्रीय समेकित नाशीजीव प्रबंधन अनुसंधान केंद्र की महत्वपूर्ण भूमिका रही जिसमें विभिन्न संस्थाओं ने भी पूर्ण सहयोग दिया। इस अध्याय में मिलीबग कीट के प्रबंधन हेतु कपास उत्पादक क्षेत्रों में जागरूकता अभियान, जींद (हरियाणा) एवं निहालखंड (फाजिल्ड) पंजाब में हाल में ही में बीटी कपास में समेकित नाशीजीव प्रबंधन (आई पी एम) एवं मित्र कीटों के संरक्षण के सन्दर्भ में चर्चा की गयी है।
मिलीबग कीट (फेनाकोकास सोलेनोप्सिस) जो पूर्व में कभी भारत में कपास में रिपोर्ट नहीं हुआ था प्रथम बार गुजरात में बीटी कपास में वर्ष 2004 में देखा गया तथा जो 2005 – 06 तक बीटी कपास के लिए खतरा बन गया। यह कीट 2006 में पंजाब में प्रवेश कर्फ़ गया तथा वर्ष 2007 में पंजाब के आठ कपास उत्पादक जिलों में फ़ैल कर मुख्य कीट के रूप में सामने आया जिसके कारण पंजाब में ही कुल रू. 15900 लाख का नुकसान हुआ। पंजाब में महामारी के कारण इसे पड़ोस के राज्यों हरियाणा एवं राजस्थान के लिए भी चुनौती के रूप में देखा गया। मिलीबग संकट को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय समेकित नाशीजीव प्रबंधन अनुसंधान केंद्र द्वारा आईपीएम तकनीक विकसित की गई जिसे मिलीबग जागरूकता कार्यक्रम – पंजाब (कृषि विभाग, भारत सरकार द्वारा प्रायोजित) के माध्यम से एवं पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, पंजाब कृषि विभाग तथा सी. ई. पी. एम. सी. केंद्र जालंधर के सहयोग से कपास उत्पादक पंजाब के आठ जिलों में सफलतापूर्वक वर्ष 2008 – 09 में क्रियान्वित किया गया। इसके अंतर्गत पंजबके आठ जिलों फिरोजपुर, मोगा, फरीदकोट, मुक्तसर, भटिंडा. मानसा, बरनाला एवं सगरूर के 320 गांवों का निश्चित चयन तथा 160 गांवों का अनियमित चयन कर उनमें साप्ताहिक सर्वेक्षण एवं निगरानी कार्यक्रम लागु किया गया। वर्ष 2008 – 09 में कपास सीजन के दौरान मिलीबग कीट की प्रजातियों के संयोजन एवं कपास में उसके प्रकोप तथा द्वीतीय पोषक पार्थिनियम को ध्यान में रखते हुए निगरानी गतिविधियां की गई। इसके अनुसार संबंधित जिलों के मुख्य कृषि अधिकारीयों को उपयुक्त चेतावनी जारी की गई जिससे कि इस कीट के अन्य प्रसार एवं प्रमुख हॉट स्पॉट का उचित प्रबंधन किया जा सके।
प्रशिक्षण एवं प्रसार
मिलीबग की पहचान, जीवन चक्र, प्रसार एवं प्रबंधन रणनीतियों के बारे में जानकारी देने के लिए पंजाब राज्य के आठ कपास उत्पादक जिलों के कृषि विभाग अधिकारीयों को मुख्य प्रशिक्षक के तौर पर केंद्र द्वारा प्रशिक्षित किया गया। प्रशिक्षण कार्यक्रम के दौरान सभी प्रशिक्षणार्थियों को प्रसार पत्रक एवं पोस्टर सामग्री उपलब्ध कराई गयी जिसे किसानों में बांटा गया। इन किसानों द्वारा अपने – अपने गांवों के अन्य किसानों को प्रशिक्षण दिया गया। इस सदंर्भ में राष्ट्रीय समेकित नाशीजीव प्रबंधन अनुसंधान केंद्र, नई दिल्ली द्वारा एक वीडियो फिल्म कपास में मिलीबग के समेकित प्रबंधन (13 मिनट) भी बनी गई। सीआईपीएमसी, जालंधर के सहयोग से इस फिल्म का पंजाबी स्वरुप कपास चे मिलीबग डा सर्वपक्खी प्रबंधन भी विकसित किया गया। इस फिल्म की 1000 डीवीडी हिंदी एवं पंजाबी में विकसित कर देश के सभी कपास उत्पादक क्षेत्रों में प्रसारकर्ताओं को वितरित की गई। पंजाबी डीवीडी 320 गांवो के सरपंचों को भी दी गई तथा पंचायत घरों के माध्यम से संबंधित गांवों के किसानों में इस तकनीकी का प्रसार किया गया। मिलीबग कीट के बारे में जानकारी, उसके प्रकोप एवं प्रबंधन रणनीति की जानकारी का प्रसार अधिकांशत: किसानों में किया गया जिससे कि वर्ष 2008 – 09 में कपास मिलीबग से होने वाली हानि से बचा जा सके।
प्रबंधन रणनीतियाँ
- मिलीबग प्रभावित पार्थेनियम एवं ट्रायंथिमा इत्यादि खरपतवारों से युक्त उपेक्षित खाली खेतों में क्लोरापायरिफोस का छिड़काव करना।
- जून से सितंबर माह के दौरान घरों, रास्तों एवं रेलवे लाईनों के पास खड़े पार्थेनियम एवं खरपतवारों को उखाड़ कर अन्य स्थान पर दबा देना तथा वर्तिसिलियम/ क्लोरापायरिफोस का छिड़काव करना।
- कपास की सूखी लकड़ियों के ढेर के चारों तरफ मेलाथियन धुल का छिड़काव करें ताकि मिलीबग के किट रेंग कर बाहर जाने पर मर जाएँ। क्योंकि किसानों के द्वारा कपास की सूखी लकड़ियों को ढेर के रूप में इकट्ठा कर जलाने में प्रयुक्त करने के कारण ऐसे ढेर मिलीबग को संरक्षण प्रदान करते हैं। सर्दी के मौसम में मादा मिलीबग इन सूखी लकड़ियों में संरक्षित रहती है तथा अनुकूल परिस्थिति होने पर जनवरी माह में रेंग कर नजदीकी फसल एवं खरपतवारों पर चली जाती है।
- मिलीबग कीट के लिए कपास की फसल की निरंतर निगरानी की गई तथा आवश्यक होने पर सिर्फ प्रभावित फसल पर ही प्रोफेनोपोस का छिड़काव किया गया जिससे सम्पूर्ण फसल पर कीटनाशी के छिड़काव से बचा गया, इसके कारण छिड़काव लागत में कमी के साथ साथ मित्र कीटों के संरक्षण में भी सहायता मिली।
- फसल सर्वेक्षण के दौरान उचित सावधानी रखी गयी जिससे की मिलीबग कीट शरीर के साथ या अन्य यंत्रों के साथ छिपकर अन्य दुसरे खेतों में ना जा पाए।
- अत्यधिक प्रभावित फसल पर ही आवश्यक होने पर उपयुक्त रासायनिक कीटनाशी का छिड़काव।
- मिलीबग कीट एवं उसके प्रबंधन हेतु किसानों में जागरूकता लाने के लिए नियमित बैठकों आयोजित की गयी।
- खेतों में मिलीबग कीट के परजीवी मिलने पर फसल के कीटनाशकों के छिड़काव से बचना।
मिलीबग कीट के प्राकृतिक शत्रु के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सर्वेक्षण
भा. कृ. अनु. प.- राष्ट्रीय समेकित नाशीजीव प्रबंधन अनुसंधान केंद्र की कपास टीम द्वारा वर्ष 2007 – 09 के दौरान नियमित अंतराल पर कपास के खेतों में फिल्ड सर्वेक्षण किये गये जिसमें हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, पंजाब, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र एवं गुजरात के कपास उत्पादक क्षेत्रों को शामिल किया गया। सर्वेक्षण के दौरान देखा गया की फेनाकोकास सोलेनोप्सिस उत्तरी तथा मध्य कपास उत्पादक क्षेत्र की मिलीबग का प्रकोप 10 – 60 प्रतिशत तक देखा गया। वर्ष 2007 में सर्वप्रथम मिलीबग पर प्रभावशाली प्राकृतिक जैविक कारक एनासियम बम्बावाले रिकार्ड किया गया। यह जैविक कारक कपास के अलावा विभिन्न खरपतवार जैसे – पर्थोनियम, जेंथिमम स्टरूमोनियम एवं एकाई रेंथेस एस्पेरा पर रिकॉड किया गया। यह परजीवी सर्वप्रथम दिल्ली में भा. कृ. अनु. प.- राष्ट्रीय समेकित नाशीजीव प्रबंधन अनुसंधान केंद्र द्वारा जुलाई 2008 में रिकार्ड किया था जो कि 2009 तक कपास उत्पादक उत्तरी एवं मध्य क्षेत्र में भी फ़ैल गया। इसके द्वारा मिलीबग की फेनाकोकस सोलेनोप्सिस प्रजाति का पर्जिविकरण विभिन्न स्थानों पर 90 प्रतिशत से भी अधिक पाया गया। विशिष्ट स्थानों पर तो इसके द्वारा मिलीबग के कम प्रकोप की स्थिति में भी परजीवीकरण देखा गया। मिलीबग कीट के जैविक नियंत्रण का यह अत्यंत सफल उदहारण है।
प्रभाव
निगरानी आधारित सलाह एवं किसानों में जागरूकता उत्पन्न करने के कारण मिलीबग कीट के नियंत्रण हेतु किये जाने वाले 2 – 3 कीटनाशक छिड़काव में काफी कमी हुई तथा इसका छिड़काव फसल के प्रभावित क्षेत्र तक ही सीमित रखा गया एवं अति आवश्यक होने पर ही सिर्फ एक छिड़काव किया गया।
पंजाब में वर्ष 2008 – 09 एवं पश्चात के वर्षों में भी मिलीबग कीट का सफलतापूर्वक प्रबंधन किया गया तथा यह कीट कभी भी महामारी स्तर तक नहीं पहुँच पाया। जबकि वर्ष 2007 – 08 के दौरान मिलीबग नियंत्रण के लिए किसानों द्वारा कम से कम तीन छिड़काव किये गये जिनकी लागत लगभग रू. 1500/हे. रही। समेकित प्रबंधन रणनीति एवं निगरानी आधारित सलाह के कारण ही बाद के वर्षों में कीटनाशकों के छिड़काव में कमी आई तथा जो केवल फसल प्रभावित क्षेत्र में छिड़काव तक ही सिमित रहे। आगे भी प्राकृतिक परजीवी ए. बम्बावाली के वातावरण में स्थापित होने से मिलीबग कीट के नियंत्रण हेतु किसी भी कीटकनाशक के छिड़काव के आवश्यकता नहीं हुई क्योंकि इस परजीवी द्वारा ही मिलीबग कीट का सफल प्राकृतिक प्रबंधन देखा गया तथा धीरे – धीरे मिलीबग नियंत्रण में आने वाले लागत में भरी कमी आई जो की नगण्य रही।
किसान सहभागिता रूप में बीटी कपास में आईपीएम पद्धति/तकनीक का सफल क्रियान्वयन
वर्ष 2014 -15 में हरियाणा एवं पंजाब के कपास उत्पादक क्षेत्र में बीटी कपास पर सफेद मक्खी का भीषण प्रकोप बीटी तकनीक के टिकाऊपन के लिए गंभीर चेतावनी के रूप में सामने आया। समेकित नाशीजीव प्रबंधन (आईपीएम तकनीकी) जिसमें मित्र कीटों के संरक्षण के साथ आवश्यक होने पर ही उपयुक्त कीटनाशकों का छिड़काव शामिल है, से ही उत्पन्न समस्या का समाधान हो सकता है। भा. कृ. अनु. प.- राष्ट्रीय समेकित नाशीजीव प्रबंधन अनुसंधान केंद्र द्वारा वर्ष 2014 में जींद, हरियाणा में कुछ प्रगतिशील किसान जो कीट साक्षरता समूह से जुड़े हुए है, की पहचान की गई। इन किसानों द्वारा कपास के कीट रोग नियंत्रण हेतु वर्ष 2008 से किसी भी कीटनाशक का छिड़काव नहीं किया गया तथा केवल मित्र कीटों के संरक्षण से ही कपास के कीट रोग का प्रबंधन किया गया।
भा. कृ. अनु. प.- राष्ट्रीय समेकित नाशीजीव प्रबंधन अनुसंधान द्वारा इस कीट समूह के परस्पर सहयोग से किसानों की बीटी कपास में कीटनाशक रहित पद्धति की केंद्र द्वारा विकसित आईपीएम पद्धति से तुलनात्मक अध्ययन हेतु वर्ष 2014 में जनपद जींद (हरियाणा में) परियोजना आरंभ की गयी। इसके लिए चार गांवों के कीट साक्षरता समूह से जुड़े ऐसे किसानों की सामाजिक – आर्थिक संबंधित आधारभूत जानकारी एकत्रित की गई जिन्होंने बीटी कपास में कीट रोग प्रबंधन के लिए पिछले आठ वर्षों से किसी भी रासायनिक कीटनाशक का प्रयोग नहीं किया। इसके अतिरिक्त अन्य किसान ऐसे भी थे जो कि जैविक नियंत्रण एवं आईपीएम तकनीक से पूर्णत: अनभिज्ञ थे तथा बीटी कपास के कीट रोग नियंत्रण हेतु विभिन्न रासायनिक कीटनाशकों के 6 – 20 छिड़काव कर रहे थे।
बीटी कपास की बोलगार्ड – II प्रजाति बायोसिड 65 88 में एस केंद्र द्वारा विकसित आईपीएम तकनीक की तुलना गैर कीटनाशक किसान पद्धति एवं कीटनाशक आधारित पद्धति से करने हेतु वर्ष 2015 – 17 के दौरान जींद जिले के चार गांवों निडानी, अलेवा, मोहनगढ़, छपरा एवं राजपुरा भेंड में परिक्षण किये गये। वर्ष 2015 – 16 में गैर कीटनाशक आधारित किसानों की पद्धति में डी.ए.पी यूरिया एवं जिंक 2.5 किग्रा. + 0.5 किग्रा. मिश्रण प्रति 100 ली पानी तथा कीटनाशक आधारित किसानों की पद्धति में डायनोटफ्यूरोन 500 ग्रा./ हे. फ्लोनिकेमिड 200 ग्रा. डायफेनिथरोन 500 ग्रा./ हे. एकटामिरिड 200 ग्रा./हे. तथा थायोमिथाक्सन 25 ग्रा./हे. का छिड़काव शामिल किये गये हैं जबकि केंद्र द्वारा विकसित आईपीएम तकनीक में पीला चिपचिपा ट्रैप, निम्बीसाईड 1500 पीपी ए 3 ली./हे. लेकनिसिलियम 1X109 सीएफ यु. एफ. यु. प्रति मिली 3 ली./हे. डायफेनिथरोन 500 ग्रा./हे. तथा स्पयारोमेसिफेन 500 मि. ली./हे. का प्रयोग किया गया।
परीक्षण के प्रथम वर्ष में बीटी कपास में सफेद मक्खी, जेसीड एवं थ्रिप्स कीट की संख्या आईपीएम तकनीकी एवं गैर कीटनाशी किसान पद्धति में समान रही जो कि कीटनाशी आधारित किसान पद्धति की तुलना में काफी कम थी। क्योंकि इस वर्ष दोनों ही फिल्ड में पौधों की संख्या संस्तुति की गी संख्या से काफी कम थी, अत: किसी स्पष्ट निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा जा सका। परिक्षण के द्वितीय वर्ष में तीनों पद्धतियों में पौधों की उपयुक्त संख्या रही जिसके परिणाम के तुलनात्मक अध्ययन स्वरुप आईपीएम तकनीक एवं गैर कीटनाशक किसान पद्धति में रस चुसक कीटों की संख्या में कमी तथा मित्र कीटों की संख्या में बढ़ोतरी देखी गयी, साथ ही इन फिल्ड में लाभ लागत अनुपात भी अधिक रहा जबकि रासायनिक कीटनाशक आधारित किसान पद्धति में इस चूसक कीट का प्रकोप अधिक देखा गया तथा इसका लाभ लागत अनुपात भी कम रहा।
उत्तरी भारत में सफेद मक्खी प्रकेपित कपास क्षेत्र में आईपीएम तकनीक का सफल वैधीकरण
पिछले कुछ वर्षों में उत्तरी भारत का कपास उत्पादक क्षेत्र पंजाब एवं हरियाणा में सफेद मक्खी के प्रकोप में बढ़ोतरी को ध्यान में रखते हुए सफेद मक्खी के प्रबंधन हेतु इस केंद्र की कपास टीम द्वारा सफेद मक्खी द्वारा अत्यधिक प्रकोपित क्षेत्र फाजिल्का में निहालखेडा गाँव में आईपीएम तकनीक का वैधीकरण वर्ष 2016 -17 एवं 2017 – 18 में किया गया। आईपीएम तकनीकी में खरपतवारों का उन्मूलन, संस्तुति की गई बीटी शंकर कपास प्रजाति का चयन, समाय पर बुआई (15 से पूर्व), कीट रोग की साप्ताहिक निगरानी, पीले चिपचिपे ट्रैप लगाना, जैविक कीटनाशकों का प्रयोग, आवश्यक होने पर ही आर्थिक हानि स्तर पर करने पर सुरक्षित रासायनिक कीटनाशकों का प्रयोग तथा पूर्ण फसल स्वास्थ्य प्रबंधन शामिल किये गये। आईपीएम तकनीकी वाले फिल्ड का तुलनात्मक अध्ययन किसानों की कीटनाशक आधारित पद्धति से किया गया। वर्ष 2016 – 17 में आईपीएम तकनीकी अपनाने वाले फिल्ड में कीटनाशक आधारित किसान पद्धति में कुल 13 कीटनाशक छिड़काव किये गये। यही स्थिति वर्ष 2017 – 18 में भी देखी गई। परिणामस्वरुप 2016 – 17 में आईपीएस तकनीकी आधारित फिल्ड में कीटनाशक आधारित किसान पद्धति की तुलना में सफेद मक्खी एवं अन्य कीटों का प्रकोप कम रहा तथा आईपीएम आधारित फसल का लाभ लागत अनुपात भी अधिक रहा तथा आईपीएम फिल्ड में मित्र कीटों की संख्या में भी बढ़ोतरी देखी गयी।
लेखन: आर के तंवर, अजंता बिराह, अनूप कुमार एवं एस. पी. सिंह
स्त्रोत: राष्ट्रीय समेकित नाशीजीव प्रबंधन अनुसंधान केंद्र
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