परिचय
जनवरी का महीना रबी मौसम में अधिक पैदावार लेने के लिए आवश्यक कृषि कार्यों की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण होता है। समय पर बोई गयी रबी फसलें अब अपने प्रजननीय अवस्था में आने वाली होती हैं। इस महीने में अधिकतर फसलें अपनी क्रांतिक बढ़वार की अवस्था में होती हैं। इस समय तापमान में तीव्र गिरावट होने के कारण पाला कोहरा एवं ओले की आशंका बनी रहती है। रबी फसलों का उत्पादन मिट्टी परिक्षण के आधार पर संतुलित पोषण, उचित जल एवं खरपतवार प्रबंधन पर ही निर्भर करता है। देर से बोई गयी गेहूं की फसल में क्रांतिक चंदेरी जड़ अवस्था में होती है जिसके कारण सिंचाई आवश्यक हो जाती है। इस माह में कम तापमान और धुप न होने के कारण कई प्रकार की व्याधियों से भी फसलों को बचाना आवश्यक होता है।
फसलोत्पादन
गेहूं और जौ
- समय से बोये गये गेहूं में दूसरी सिंचाई बुआई के 40 – 45 दिन बाद कल्ले निकलते समय और तीसरी सिंचाई बुआई के 60 – 65 दिन बाद गांठ बनने की अवस्था पर करें। सिंचाई के बाद जब खेत में पैर न चिपके तब नाइट्रोजन की शेष एक तिहाई मात्रा का छिड़काव करें। भारी मृदा में प्रति हे. 132 किग्रा. यूरिया (60 किग्रा. नाइट्रोजन) की टॉप ड्रेसिंग पहली सिंचाई के 4 – 6 दिन बाद करें। बलुई दोमट मृदा में 88 किग्रा. यूरिया (40 किग्रा. नाइट्रोजन) की टॉप ड्रेसिंग पहली सिंचाई पर और प्रति हे. 40 किग्रा. नाइट्रोजन की दूसरी टॉप ड्रेसिंग सिंचाई के बाद प्रयोग करें।
- देर से बोये गये गेहूं में पहली सिंचाई बुआई के 18 – 20 दिनों बाद तथा बाद की सिंचाई 15 – 20 दिनों के अंतराल पर करते रहें। वहां भी सिंचाई के बाद एक तिहाई नाइट्रोजन का छिड़काव करना आवश्यक होगा ।
- गेहूं की फसल में संकरी पत्ती वाले खरपतवारों में जंगली जई एवं गेहूंसा (गेहूं का मामा) एवं चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार जैसे खरतुवा, हिरनखुरी, कन्तेली, बथुआ, कृष्णनील चटरी- मटरी, सेंजी आदि प्रमुख हैं। बुआई के तुरंत बाद खरपतवारों के नियंत्रण के लिए सल्फोसल्फ्यूरान 75 प्रतिशत + मैटसल्यूरान मिथाइल 5 प्रतिशत (टोटल) की 40 ग्राम या क्लोडिना कॉप 15 प्रतिशत मैटसल्यूरान मिथाइल एक प्रतिशत वेस्ट 15 डब्ल्यू पी. की मात्रा 500 – 600 लीटर पानी में घोलकर पहली सिंचाई के बाद, परंतु 30 दिन के बाद अवस्था से पूर्व प्रति हे. छिड़काव मिल सकती है। खेत में चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार की रोकथाम के लिए 2.4 – डी सोडियम साल्ट (80 प्रतिशत) की 625 ग्राम या 1.5 लीटर 2.4 – डी एस्टर प्रति हे. की दर से 600 लीटर पानी में घोलकर बुआई के 30 – 35 दिन बाद छिड़काव करें।
- मृदा जाँच के आधार पर यदि बुआई के समय जिंक एवं लोहा नहीं डाला गया हो तो पत्ती पर इनकी कमी के लक्षण दिखाई देते ही जिंक सल्फेट आयरन सल्फेट का 0.5 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें। कम तापमान के कारण बीमारियों का खतरा कम रहता है, परंतु फफून्दजनित रोग के लक्षण दिखाई देने पर प्रोपिकोनोजोल 0.1 प्रतिशत अथवा मैंकोजेब 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव किया जा सकता है।
- गेहूं की फसल को चूहों से बचाने के लिए जिंक फ़ॉस्फाइड या एल्यूमिनियम फ़ॉस्फाइड की टिकिया से बने चारे का प्रयोग कर सकते है।
- जौ की फसल में दूसरी सिंचाई बुआई के 55 – 60 दिन बाद गांठ बनने की अवस्था में करनी चाहिए।
- पत्ती व तनाभेदक की रोकथाम के लिए इमिडाक्लोरोप्रिड 200 ग्राम प्रति हे. या क्यूनालफास 25 ई. सी. दवा 250 ग्राम प्रति हे. का प्रयोग करें या प्रोपिकोनोजोल 0.1 प्रतिशत के घोल का छिड़काव करें।
- मोल्या – रोगग्रस्त पौधे पीले व बौने रहते हैं। इनमें फूटाव कम होता है तथा जड़ें छोटी व झाड़ीनुमा हो जाती हैं। जनवरी – फ़रवरी में छोटे – छोटे,गोलाकार सफेद चमकते हुए मादा सूत्रकृमि जड़ों पर साफ दिखाई देते हैं, जो इस रोग की खास पहचान है। यह रोग समय पर बोये गये गेहूं पर नहीं आता है। संभावित रोगग्रस्त खेतों में 6 किग्रा. एल्डिकार्व या 13 किग्रा. कार्बोफ्यूरान बुआई के समय खाद में मिलाकर डालें। पाले से बचाव के लिए खेतों के आस – पास धुंवा करें। इससे तापमान बढ़ जाता है तथा पाला पड़ने का असर कम हो जाता है। अधिक सर्दी वाले दिनों में शाम के समय सिंचाई करने से भी पाले से बचाव होता है।
चना, मटर और मसूर
- चने की फसल में दूसरी सिंचाई फलियों में दाना बनते समय की जानी चाहिए। यदि जाड़े में वर्षा हो जाये जो दूसरी सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। लंबे समय तक वर्षा न हो तो अच्छी पैदावार लेने के लिए हल्की सिंचाई करें। अनावश्यक रूप से सिंचाई करने पर पौधों की वानस्पतिक वृद्धि ज्यादा हो जाती है जिसका उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। चने की फसल से भरपूर हेतु जल निकास की उचित व्यवस्था होनी चाहिए अन्यथा फसल हानि का अंदेशा रहता है।
- नवीनतम प्रयोगों से यह सिद्ध हुआ है कि 2 प्रतिशत यूरिया के घोल का दो पर्णीय छिड़काव 10 दिनों के अंतराल पर फली में दाना बनते समय करने से उपज में निश्चित रूप से 15 – 20 प्रतिशत तक की वृद्धि होती है।
- शुष्क जड़ गलन रोग यह रोग बड़े पौधों में फूल एवं फलियाँ बनते समय दृष्टिगोचर होता है। इसकी रोकथाम के लिए शुष्क जड़ गलन सहिष्णु प्रजातियाँ जैसे एच. 355 तथा आई.सी.सी.वी. 10 अपनाएं। इस रोग से बचाव के लिए बुआई के समय कार्बेन्डाजिम + थीरम (1:2 ग्राम प्रति किग्रा. बीज) या वीटावैक्स अता ट्राईकोडरमा विरडी 4 ग्राम प्रति किग्रा. बीज में मिलाकर या बेनोमिल (2 ग्राम प्रति किग्रा. बीज) द्वारा उपचार करना चाहिए।
- चने के खेत में चिड़िया बैठ रही हो तो यह समझ लें कि चने में फली छेदक का प्रकोप होने वाला है। चने की फसल में फली छेदक कीड़े की गिडारें हलके भूरे रंग की होती हैं, जो बाद में भूरे रंग की हो जाती हैं। ये फलियों को छेदकर अपने सिर को फलियों को अंदर डालकर दानों को खा जाती हैं। इसकी रोकथाम के लिए फली बनना प्रारंभ होते ही मोनोक्रोटोफ़ॉस 36 ई. सी. की 750 मिली. या फेनवेलरेट 20 ई. सी. की 500 मिली मात्रा 500 से 600 लिटर पानी में घोलकर प्रति हे. खेत में छिड़काव करें। फसल में पहला छिड़काव 50 प्रतिशत फूल आने के बाद करें। यदि छिड़काव के लिए रसायन उपलब्ध नहीं हो तो मिथाइल पैराथियान 2 प्रतिशत धूल की 25 किग्रा. मात्रा का बुरकाव करें।
- चने की फली छेदक के लिए न्यूक्लियर पॉलीहेड्रोसिस वाइरस (एनपीवी) 250 से 350 शिशु समतुल्य 600 लीटर प्रति पानी में घोलकर प्रति हे. की दर से छिड़काव करें। चने में 5 प्रतिशत एन.एस.के.ई. या 3 प्रतिशत नीम ऑइल तथा आवश्यकतानुसार कीटनाशी का प्रयोग करें।
- हल्की दोमट मिट्टी में फूल आने से पहले ही दूसरी सिंचाई कर दें, क्योंकि भारी भूमि में फूल आने के पहले एक सिंचाई करना लाभप्रद होता है। सिंचाई के लगभग एक सप्ताह बाद ओट आने पर हल्की गुड़ाई करना लाभदायक होता है।
- झुलसा रोग की रोकथाम के लिए प्रति हे. 2 किग्रा. जिंक मैंगनीज कार्बामेंट को ६०० लीटर पानी में घोलकर फूल आने से पूर्व व 10 दिन के अंतराल पर दूसरा छिड़काव करें।
- मटर की फसल में बुकनी रोग (पाउडरी मिल्ड्यू), जिसमें पत्तियों, तनों तथा फलियों पर सफेद चूर्ण सा फ़ैल जाता है, की रोकथाम के लिए 3 किग्रा. घुलनशील गंधक 600 लीटर पानी में घोलकर गंधक 600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हे. की दर से 10 – 12 दिन के अंतराल पर छिड़काव करें। मटर में 10 – 15 दिन के अंतर पर फलियाँ तोड़ी जाती हैं।
- मसूर की फसल में व्हील हैण्ड – हो की सहायता से खतपतवार निकाल दें। इससे फसल में वृद्धि होगी। मसूर की फसल में बुआई के 45 – 50 दिनों के बाद हल्की सिंचाई करें, लेकिन ध्यान रहे कि खेत में पानी न भर पाए।
राई सरसों, असली एवं सूरजमुखी
- सरसों – राई की फसल में सिंचाई, जल की उपलब्धता के आधार पर कर सकते हैं। यदि एक सिंचाई उपलब्ध है तो 50 – 60 दिनों की अवस्था पर करें। दो सिंचाई उपलब्ध होने की अवस्था में पहली सिंचाई बुआई के 40 – 50 दिनों के बाद एवं दूसरी सिंचाई 90 100 दिनों के बाद करें। यदि तीन सिंचाई उपलब्ध हैं तो पहली सिंचाई 30 – 35 दिनों बाद व अन्य दो 30 – 35 दिनों का अंतराल पर करें।
- सरसों कि फसल में सफेद रतुआ की रोकथाम के लिए एप्रान 35 एड.डी. 6 ग्राम या बैविस्टिन 2 ग्राम/किग्रा. बीज पानी के हिसाब से 600 – 800 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें। आवश्यकता पड़ने पर 15 दिन बाद इंडोफिल का छिड़काव करें। झुलसा रोग का प्रकोप हो तो जिंक मैंगनीज कार्बामेंट 75 प्रतिशत की 2.0 किग्रा. या जीनेब 75 प्रतिशत की 2.5 किग्रा. मात्रा को 600 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।
- सरसों के पत्ते के धब्बा रोग की रोकथाम के लिए बोने से पूर्व बीज का उपचार बैविस्टिन या थीरम दवा की 2.5 ग्राम मात्रा/किग्रा. बीज दर से करें। बीमारी दिखाई दाने पर ही फफूंदीनाशक ब्लाइटाक्स – 50 या डायथेन एम – 45 की 500 – 600 ग्राम मात्रा को 200 लीटर पानी में घोलकर/एकड़ फसल पर 10 – 15 दिनों के अंतराल पर 2 – 3 छिड़काव करें।
- तोरिया की फसल पक जाने पर समय का कटाई करें, क्योंकि देर करने पर फलियों से दाने गिरने का डर रहता है।
- अलसी की फसल में पाउडरी मिल्ड्यू रोग नियंत्रण के लिए 3 ग्राम सल्फेक्स प्रति लीटर पानी में घोल कर 15 दिनों के अंतराल पर 2 – 3 बार छिड़काव करें।
- अलसी की फसल में फली मक्खी कीट के नियंत्रण के लिए एमिडाक्लोरोप्रीड 17.8 का 500 मिली प्रति हे. की दर से 500 लीटर पानी के घोल बनाकर फली बनने से पहले 15 दिनों के अंतराल पर दो बार छिड़काव करें।
- सूरजमुखी की बिजाई जनवरी में भी हो सकती है। दिसंबर में बोई फसल में नाइट्रोजन की दूसरी व अंतिम क़िस्त तथा एक बोरा यूरिया बीजाई के 30 दिनों के बाद इसके साथ ही पहली सिंचाई भी करें व फसल उगने के 17 से 20 दिनों के बाद गुड़ाई करके खरपतवार निकाल दें।
शीतकालीन मक्का
- मक्का में दूसरी निराई – गुड़ाई 40 – 45 दिनों के बाद करें। यदि मक्का को हरे भूट्टों के रूप में प्रयोग करना हो तो रसायनों का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
- मक्का में दूसरी सिंचाई बुआई के 50 – 55 दिनों दे बाद व तीसरी सिंचाई बुआई के 75 – 80 दिनों के बाद करनी चाहिए। मक्का और चारे हेतु एमपी चरी, सुडान घास की बुआई आरंभ कर दें।
- नाइट्रोजन की 40 किग्रा. मात्रा की टॉप ड्रेसिंग मंजरी निकलने के पूर्व करें। उर्वरक प्रयोग के समय खेत में पर्याप्त नमी का ख्याल रखें।
शरदकालीन गन्ने की फसल
- बसंतकालीन बुआई की तैयारी शुरू कर दें। इसके लिए मृदा परिक्षण कराकर ही उर्वरकों का प्रयोग करें। पाले से बचाव के लिए खड़ी फसल में जरूरत के अनुसार सिंचाई करें।
- बसंतकालीन बुआई हेतू कुल क्षेत्रफल का 1/3 भाग शीघ्र पकने वाली प्रजातियों के अंतर्गत रखें साथ ही बुआई हेतु स्वस्थ बीजों का चयन कर उसका विशेष बीजों का चयन कर उसका विशेष प्रबंध करें। अगेती खेत की फसल कटाई तापमान ज्यादा कम हो तो न करें। इससे पेड़ी गन्ने में फुटाव उत्तम नहीं होगा।
- शरदकालीन गन्ने के साथ ली गई विभिन्न अंतर फसलों जैसे मसूर,सरसों, तोरिया, आलू, लहसून, गेंदा, प्याज धनिया, मेथी तथा गेहूं आदि में जरूरत के अनुसार निराई, गुड़ाई, कीट प्रबंधन एवं संतुलित उर्वरकों का प्रयोग करें। अच्छी पेड़ी की फसल ली के लिए गन्ने की मुख्य फसल की कटाई 15 जनवरी से 25 फरवरी तक करें।
- तापमान कम होने के कारण दिसंबर – जनवरी में काटे गये गन्ने के जड़ से फुटाव कम होता है। अत: दिसंबर – जनवरी में गन्ने की कटाई जमीन की सतह से सटा कर करें। गन्ना काटने के तुरंत बाद ठूंठों पर 2 – 4 डी खरपतवारनाशक की मात्रा को 500 – 600 लीटर पानी में घोलकर करें तथा गन्ने की सूखी पत्तियों की 15 – 20 सें. मी. मोती तह सतह के ऊपर बिछा दें। इससे फुटाव अधिक होगा।
- गन्ने की तैयार फसल की कटाई की जाती है एवं कटाई के बाद गुड़ बनाया जाता है। गन्ने को विभिन्न प्रकार के तनाछेदक कीटों से बचाने के लिए प्रति हे. 30 किग्रा. फ्यूराडान का प्रयोग करें।
चारे वाले फसलें (जई और बरसीम)
- बरसीम, रिजका व जई की हर कटाई के बाद सिंचाई करते रहें। इससे बढ़वार तुरंत होगी तथा अच्छी गुणवत्ता का चारा मिलता रहेगा।
- बरसीम की फसल की कटाई व सिंचाई 20 – 25 दिनों के अंतराल पर करें। प्रत्येक कटाई के बाद भी सिंचाई करें।
- जई की फसल में 20 – 25 दिन के अंतराल पर सिंचाई करें। पहली कटाई बुआई के 55 दिनों के बाद करें और प्रति हे. 44 किग्रा. यूरिया (20 किग्रा. नाइट्रोजन) की टॉप ड्रेसिंग करें।
मेंथा
- मेंथा रोपाई के लिए खेत की तैयारी करते समय अंतिम जुताई पर प्रति हे. 10 टन सड़ी गोबर के खाद, 50 किग्रा., नाइट्रोजन, 60 किग्रा. फास्फोरस एवं 45 किग्रा. पोटाश खेत में अच्छी तरह से मिला दें। मेंथा के एक हे. में रोपाई कर लिए 2.5 – 5.0 क्विंटल बीज पर्याप्त होता है। मेंथा की उन्नतशील प्रजातियाँ कोसी, एच. वाई. – 77 एवं गोमती प्रमुख हैं। मेंथा की रोपाई 45 – 60 सें. मी. की दूरी पर पंक्तियों में 2 – 3 सें. मी. गहराई में करें।
लेखन: एल राजीव कुमार सिंह, विनोद कुमार सिंह, एस.एस. राठौर, प्रवीण कुमार उपाध्याय और कपिला शेखावत