परिचय
भारत में सिट्रोनेला की खेती असोम, पश्चिम बंगाल, जम्मू – कश्मीर, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, गोवा, केरल तथा मध्य प्रदेश में हो रही है। विश्व में भारत, चीन, श्रीलंका, ताईवान, ग्वाटेमाला, इंडोनेशिया इत्यादि देशों में इसकी खेती व्यवासायिक तौर पर की जा रही है इस कारण भारत सहित अन्य देशों में इसकी व्यवासायिक स्तर पर खेती में वृद्धि हुई है।
वर्तमान समय में देश के विभिन्न भागों में सिट्रोनेला की व्यापक स्तर पर सफलतापूर्वक खेती की जा रही है। भविष्य में इसके और अधिक प्रसार की संभावनाएं हैं। भारत में लगभग 8500 हे. क्षेत्रफल में इस फसल की बुआई की जाती है। उत्तर – पूर्वी क्षेत्रों में देश भर में होने वाली पूरी पैदावार का 80 प्रतिशत उत्पादन होता है। वर्तमान समय में सिट्रोनेल तेल की कीमत लगभग 1000 – 1200 रूपये तथा बुआई के प्रथम वर्ष में 150 – 200 कि. ग्रा. तथा दुसरे से पांचवें वर्ष तक 200 – 300 कि. ग्रा. की पैदावार प्रति हे. होती है। लागत पर खर्च बिलकूल ही कम होता है। इससे किसान का शुद्ध लाभ लगभग 50 – 70 प्रतिशत होता है। इस फसल में कीट व बीमारियों का प्रकोप बहुत कम होता है। अत: जावा सिट्रोनेला की उन्नत खेती से किसानों की आय परंपरागत फसल से हटकरज्यादा हो सकती है। पिछले साल माननीय प्रधानमंत्री द्वारा सीएसआईआर के स्थापना दिवस पर जावा सिट्रोनेला के उन्नत प्रभेद जोर लैब सी – 5 को देश की किसानों को समर्पित किया गया था। इस किस्म की खास बात यह है की इसका तेल प्रतिशत औसतन 1.20 प्रतिशत है।
उपयोगी एवं रासायनिक संघटक
जावा सिट्रोनेला के तेल के प्रमुख रासायनिक घटक निम्नलिखित हैं:
सिट्रोलेल, सिट्रोनिलोल, जिरेनियाल, सिट्रोनिलेल एसिटेट, एलिमसिन इत्यादि। इसके तेल में 32 से 45 प्रतिशत स्ट्रोनिलेल, 12 से 18 प्रतिशत जिरेनियाल, 11 से 15 प्रतिशत सिट्रोनिलोल, 3.8 प्रतिशत जिरेनियल एसिटेट, 2 से 4 सिट्रोनेलाइल एसिटेट, 2 से 5 प्रतिशत एलमिसीन तथा अन्य रासायनिक घटक पाए जाते हैं। इन रासायनिक घटक पाए जाते हैं। इन रासायनिक घटक कोण का उपयोग साबुन, क्रीम जैसे सौन्दर्य प्रसाधनों के उत्पादन में किया जाता है। औडोमॉस, एंटीसेप्टिक क्रीमों के उत्पादन में भी इनका उपयोगी होता है। सुगंधित रसायनों जैसे जिरेनियाल तथा हाइड्रोक्सी सिट्रोनेलोल के निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
भूमि तथा जलवायु
जावा सिट्रोनेला की खेती के लिए दोमट तथा बलुई दोमट मिट्टी उपुक्त है। इसका पी – एच मान 6 से 7.5 वाली मृदा उपयुक्त मानी जाती है। अम्लीय मृदा, जिसका पी – एच मन 5.8 तक हो तथा क्षारीय मृदा जिसका पी – एच मान 8.5 तक हो, ऐसे क्षेत्र में भी इस फसल को सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। सिट्रोनेला की खेती के लिए समशीतोष्ण एवं उष्ण जलवायु अच्छी मानी जाती है। क्षेत्र का तापमान 9 से 350 सेल्सियस के बीच हो तथा जहाँ वर्ष भर 200 से 250 सें. मी. बारिश एवं आर्द्रता 70 से 80 प्रतिशत तक हो, वहां इस फसल को सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है।
खेत की तैयारी
सिट्रोनेला एक बहुवर्षीय फसल है। इसे एक बार लगा देने के उपरांत यह पांच वर्षों तक अच्छी पैदावार देती है। इसके लिए यह आवश्यक है कि खेत की तैयारी अच्छी होनी चाहिए। इसके लिए दो – तीन बार आड़ी – तिरछी (क्रॉस) तथा गहरी जुताई करनी चाहिए। इसमें गोबर की अच्छी तरह सड़ी हुई खाद अथवा कम्पोस्ट खाद या 20 से 25 टन गोबर की खाद अथवा कम्पोस्ट खाद प्रति हे. खेत जुताई के समय डालनी चाहिए। फसल को दीमक आदि से सुरक्षित रखने की दृष्टि से अंतिम जुताई के समय लगभग 20 कि. ग्रा. 2 प्रतिशत मिथाइल पेराथियान पाउडर प्रति हे. बिखेरना चाहिए। रासायनिक खाद की डोज भी जुताई में देनी आवश्यक है। यह डोज नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाश (एनपीके) क्रमश: 160, 50, 50 कि. ग्रा. प्रति हे. की दर से देनी चाहिए।
बुआई हेतु बीज
जावा सिट्रोनेला की बुआई स्लिप्स से की जाती है। स्लिप्स बनाने के लिए एक वर्ष अथवा उससे पुरानी फसल से जूट्ठों को निकालकर उनमें से एक – एक स्लिप्स अलग – अलग कर ली जाती है इसके बाद स्लिप्स के ऊपर के पत्ते को काटकर तथा नीचे के सूखे हुए पत्तों को अलग कर दिया जाता है। इस प्रकार से स्लिप्स तैयार हो जाती है। स्लिप्स लगाते समय यह ध्यान देना आवश्यक है कि इसका जमाव 80 प्रतिशत तक ही हो पाता है। लगभग 20 प्रतिशत स्लिप्स मर जाती है। इसलिए खाली बची हुई जगह को दोबारा नई स्लिप्स से भर देना चाहिए।
बुआई की विधि
सिट्रोनेला की बुआई के लिए जूलाई – अगस्त अथवा फरवरी – मार्च का समय सर्वाधिक उपयुक्त माना जाता है। स्लिप्स को खेत में 5 से 8 इंच गहरा लगाया जाता है। पौधों से पौधों के बीज की दूरी 60 x 45 सें. मी. पर लगाना उपयुक्त है। बुआई के उपरांत खेत में पानी छोड़ देना चाहिए। यह ध्यान रखना चाहिए कि खेत में जल भराव न हो। प्राय: बुआई से लगभग 2 सप्ताह के भीतर स्लिप्स से पत्तियां निकलनी शुरू हो जाती है।
सिट्रोनेला की फसल हेतु सिंचाई
जावा सिट्रोनेला की जड़ें ज्यादा गहरी न होने तथा शाकीय प्राकृत की फसल होने के कारण फसल को जल की काफी मात्रा में आवश्यकता होती है। सिंचाई की आवश्यकता मिट्टी की प्रकृति पर निर्भर करती है प्राय: गर्मी में 10 से 15 दिनों के अन्तराल पर तथा सर्दियों में 20 – 30 दिनों के अंतराल पर तथा सिंचाई करना फसल के लिए लाभप्रद होगा। इस प्रकार फसल को वर्ष भर में औसतन 10 -12 सिंचाई की आवश्यकता होती है। वर्षा होने पर सिंचाई नहीं करनी चाहिए।
फसल की निराई – गुड़ाई
सिट्रोनेला की फसल में खरपतवार को नियंत्रित करना आवश्यक होता है। विशेष रूप से फसल की रोपाई के प्रथम 30 दिनों से 45 दिनों की अवधि में फसल में खरपतवार नहीं पनपने देना चाहिए। अत: प्रथम बार में हाथ से निराई – गुड़ाई करना आवश्यक है। इसके उपरांत फसल की प्रत्येक कटाई के उपरांत हाथ से गुड़ाई करवानी चाहिए। रासायनिक तौर पर खरपतवार को नियंत्रित करना आर्थिक रूप से सही होता है। इसके लिए खरपतवार नियंत्रण के लिए 200 लीटर पानी के साथ 250 ग्राम ओक्सीफ्लूरोलीन का स्प्रे करना चाहिए। स्प्रे पौधों की बुआई से पहले करना चाहिए।
जावा सिट्रोनेला का महत्व
जावा सिट्रोनेला अथवा सिट्रोनेला का वैज्ञानिक नाम सिम्बोपोगन बिंटेरियनस है। यह पोयेसी कुल की एक बहुवर्षीय घास है, जिसके पत्तों से तेल निकाला जाता है। यह घास लेमनग्रास (नींबू घास) तथा जामारोज जैसी ही है। परंतु इसके जूट्ठे अपेक्षाकृत ज्यादा भरे – मोटे तथा फैले होते हैं। इसकी पत्तियां जामरोज तथा लेमनग्रास की तुलना में अपेक्षाकृत ज्यादा चौड़ी तथा स्लिप्स भी मोटी होती हैं।
जावा सिट्रोनेला की प्रमुख प्रजातियाँ
जोर लेब सी – 5: यह जावा सिट्रोनेला की सबसे नवीनतम किस्म है। इसे उत्तर – पूर्व विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी संस्थान, जोरहाट, असोम द्वारा सन 2016 में विकसित किया गया है। इस किस्म का जननद्रव्य पंजीकरण भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली में पंजीकरण भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद्, नई दिल्ली में पंजीकरण संख्या आईएनजीआर – 16021 के तहत हो चुका है। इसकी खेती मुख्यतया तेल के लिए जाती है। इसमें तेल की मात्रा लगभग 1.20 प्रतिशत है। इसमें सिट्रोनेल की मात्रा लगभग 35 प्रतिशत है। बीएसआई मानक के अनुसार सिट्रोनिलेल की मात्रा 30 प्रतिशत से ज्यादा होनी चाहिए।
जोर लैब सी – 2 : यह भी एक पुरानी किस्म है। इसमें तेल की मात्रा लगभग 0.90 प्रतिशत है।
बायो – 13: (बीआईओ – 13) यह सबसे पुरानी किस्म है। इसमें तेल की मात्रा लगभग 0.80 से 0.90 प्रतिशत है। इसमें सिट्रोनिलेल की मात्रा लगभग 35 – 38 प्रतिशत है।
सिट्रोनेला तेल की बढ़ती मांग
जावा सिट्रोनेला एक व्यवासायिक फसल होने के साथ – साथ भूमि सुधारक फसल भी है। उत्तर – पूर्वी राज्यों एवं पश्चिम बंगाल तथा देश के वे क्षेत्र जहाँ भूमि की कम उर्वरता है, ऐसे क्षेत्रों के लिए यह काफी लाभदायक है। खासकर चाय बागानों को पुनर्जीवित करने में भूमि सुधारक के रूप में जावा सिट्रोनेला की खेती की जाती है। यह फसल कम लागत में अधिक से अधिक मुनाफा देती है। सिट्रोनेला के तेल की मांग बढ़ने और इसकी ज्यादा खेती होने से किसानों की निर्भरता परंपरागत फसलों से हटकर व्यवसायिक फसल पर होगी। इससे किसानों की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होगी।
प्रमुख रोग एवं कीट
सिट्रोनेला की फसल में होने वाले प्रमुख रोग एवं हानिकारक कीट – पतंगे निम्नलिखित हैं –
तना छेदक कीड़ा
तना छेदक कीट का प्रकोप जावा सिट्रोनेला की फसल पर प्राय: अप्रैल से जून तक महीने में अधिक होता है। ये कीट सिट्रोनेला के तने से लगी पत्तियों पर अंडा देती हैं और इनसे सूंडी निकलती है। इन अंडों से वह तने के मुलायम भाग से पौधे में प्रवेश करती है। इससे पौधों की वृद्धि रूक जाती है। सिट्रोनेला के खेत में इस बीमारी के फलस्वरूप पत्तियां सूखी हुई दिखाई देती हैं। इसको निकालने पर उनके निचले भाग में सड़न तथा छोटे – छोटे कीट भी दिखाई देते हैं। जिसे डेड हार्ट कहा जाता है। इस कीट से छुटकारा पाने के लिए निराई – गुड़ाईके उपरांत 10 से 15 किग्रा. प्रति हे. की दर से कार्बोफ्यूरोन 3 – जी का भुरकाव करना लाभदायक है।
पत्तों का पीला पड़ना (लीथल येलोइंग)
पत्तियों का पीला पड़ना अथवा लीथल येलोइंग इस फसल में एक प्रमुख समस्या है। इसके समाधान के लिए फेरस सल्फेट तथा अंत:प्रवाही कीटनाशकों का छिड़काव किया जाना आवश्यक है।
लीफ ब्लास्ट अथवा झुलसा रोग
प्राय: बरसात के मौसम में सिट्रोनेला के पौधों पर कुरवुलेरिया एंडोपोगनिस नाम फफूंदी का प्रकोप होता है। इससे पौधे के पत्ते सूखने के साथ –साथ काले पड़ जाते हैं। इससे बचाव के लिए फफूंदीनाशक डायथेन एम – 45 का छिड़काव 20 से 25 दिन के अंतराल पर किया जाना चाहिय।
फसल की कटाई
सिट्रोनेला की फसल एक बार लगा देने के पश्चात् पांच वर्षों तक इससे पर्याप्त तेल उत्पादित होता रहता है। बाद में धीरे – धीरे तेल की मात्रा घटने लगती है। बुआई के लगभग 120 दिनों में यह फसल कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसके बाद 90 से 120 दिनों में फसल की अगामी कटाईयां भी ली जा सकती हैं। इस प्रकार लगातर 5 वर्षों तक प्रतिवर्ष 3 से 4 फसलें ली जा सकती हैं। प्राय: तेल की मात्रा पहले वर्ष की तुलना आगामी वर्षों में काफी बढ़ जाती है, हालाँकि तीसरे, चौथे तथा पांचवें वर्ष में यह लगभग एक जैसी ही रहती है। पांचवें वर्ष के बाद तेल की मात्रा घटने लगती है। फसल की कटाई भूमि से लगभग 15 से 20 सें. मी. ऊपर से करनी चाहिए।
पत्तियों का आसवन
सिट्रोनेला की पत्तियों से वाष्प आसवन अथवा जल वाष्प आसवन विधि द्वारा सुगंधित तेल निकाला जाता है। प्राय: 3 से 4 घंटे से पत्तियों के बैच की आसवन की प्रक्रिया पूरी हो जाती है। यह आसवन उसी आसवन संयंत्र से किया जाता है, जिससे अन्य एरोमेटिक पौधे का तेल निकाल जाता है।
उपज एवं आमदनी
सिट्रोनेला की फसल से वर्ष भर में औसतन चार कटाइयों में लगभग 150 से 250 किग्रा. प्रति हे. सुगंधित तेल उत्पादित होता है। इस प्रकार यह फसल प्रथम वर्ष में लगभग 80,000 रूपये प्रति हे. का शुद्ध लाभ देती है, जबकि आगामी वर्षों से लाभ की मात्रा लगभग दोगुनी (160,000) हो जाती है या इससे अधिक भी हो सकती है।
तरबूज की खेती से मुनाफा
तरबूज की खेती कसे किसान अच्छा लाभ कमा सकते हैं। तमिलनाडु का थिरूवन्ना मई जिला इस प्रकार की लाभकारी खेती का बेहतरनी उदाहरण है। प्रेसिजन खेती, ड्रिप सिंचाई (टपक सिंचाई) और संवर्धित किस्मों ने किसानों को अधिक मुनाफा कमाने में सक्षम बनाया गया। इस खेती पद्धति के माध्यम से किसान लागत से सात गुना अधिक कमा रहे हैं मुरूगा पेरूमत, गाँव – वेप्पुचेक्कड़ी, थंदरपाथु (टी. के.), जिला तूरूवन्नामलाई, तमिलनाडु के निवासी हैं। उन्होंने प्रेसिजन खेती और ड्रिप सिंचाई विधि में माध्यम से अपने 2.2 हे. खेत में तरबूज की खेती की। उन्होंने एक हे. खेत में पुकीजा किस्म तथा 1.2 हे. खेत में अपूर्वा किस्म की खेती की।
श्री पेरुमत ने खेत तैयार करने के लिए चार जुताइयां की। चौथी जुताई से पहले उन्होंने 25 टन प्रति. हे. की दर से गोबर की सड़ी हुई खाद खेत में डाला। उन्होंने 300 किग्रा. डी. पी. ए. तथा 150 किग्रा. पोटाश का प्रयोग खेत तैयार करने में किया। उन्होंने पौधों की रोपाई के लिए 1.5 मीटर चौड़ाई और 60 सें. मी. की दूरी पर क्यारियाँ बनाई। बुआई के पहले, उन्होंने कुछ मिनटों के लिए क्यारियों की सिंचाई की। उनहोंने कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम प्रति किग्रा. दर से बीज को उपचारित कर एक हे. 3.5 किग्रा. बीज का इस्तेमाल किया। श्री पेरू ने नवंबर में बीज रोपाई की तथा प्रत्येक ड्रिपर की जगह बीज बोया। साथ ही ड्रिप सिस्टम के माध्यम से एक घंटे प्रति दिन खेत की सिंचाई की।
श्री पेरूमत ने वेप्पुर चेक्क्डी सहकारी सोसाइटी से 49,000 रूपये का ऋण एक हेक्टयर खेत के लिए और इस ऋण का कुछ हिस्सा अपने खेत में ड्रिप सिंचाई सिस्टम स्थापित करने में लगाया। सरकार पहली बार किसानों द्वारा प्रेसिजन फार्मिंग अपनाएं जाने पर 50 प्रतिशत उर्वरक सब्सिडी देती है। इसके तहत उन्हें 258 किग्रा. पोटेशियम नाइट्रेट की खरीद पर बागवानी विभाग से सब्सिडी मिली। उनके द्वारा 5 किग्रा पोटेशियम नाइट्रेट तथा 5 किग्रा. यूरिया तीन दिनों के अंतराल पर फर्टिगेशन विधि के माध्यम से फसल की – पूरी अवधि तक दिया गया। पौध रोपाई के 15 दिन बाद 40 महिला श्रमिकों द्वारा पहली बार हाथ से निराई की गई। इसके बाद लेटरल पाइप को इस प्रकार से व्यवस्थित किया कि गड्ढों के ऊपर सिंचाई हो सके। पौध रोपाई के 35 दिन बाद 150 किग्रा. कैल्शियम अमोनियम नाइट्रेट का प्रयोग कर खेत की सिंचाई ड्रिपर के माध्यम से की गई।
पहली फसल 70 दिनों बाद ली गई जिसमें 20 महिला श्रमिकों की जरूरत पड़ी। उन्होंने नुमहेम्स पुकिजा तरबूज किस्म से 55 टन और सेमिनिस अपूर्वा किस्म से 61 टन सउत्पादन प्राप्त किया। तरबूज के खेत की दूसरी तुड़ाई एक सप्ताह बाद 20 महिला श्रमिकों की सहायता से की गई। इस बार उन्होंने पुकीजा किस्म से 6 टन और अपूर्वा किस्म से 4 टन उत्पादन प्राप्त किया।
श्री पेरूमत ने पहली तुड़ाई को 3100 रूपये प्रति टन तथा दूसरी तुड़ाई को 1000 रूपये प्रति टन की दर से बेचा। उनके द्वारा खेत में खर्च की गई कुल लागत 45,575 रूपये थी। उन्होंने एक हे. के खेत में पाकीजा किस्म से 1,70,500 रूपये की आय अर्जित की। इसके साथ ही 1.2 हे. में अपूर्वा किस्म की खेती से 1,89,100 रूपये कमाए। इस प्रकार श्री पेरूमत ने प्रेसिजन फार्मिंग तथा ड्रिप सिंचाई को अपनाकर उपरोक्त दो किस्मों की खेती से कुल 3,24,025 रूपये की आय अर्जित की।
लेखन: सुदिन कुमार पाण्डेय, सुनीता मुंडा और मोहन लाल
स्त्रोत: कृषि, सहकारिता एवं किसान कल्याण विभाग, भारत सरकार
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