भूमिका
कालमेघ एक महत्वपूर्ण आयुर्वेदिक, होम्योपैथिक तथा देशी पद्धति में प्रयोग होने वाला औषधीय पौधा है। इसको कल्पनाथ,करियातु हरा चिरायता तथा उड़िया में भुईनिम्बा भी कहते है। अधिकतर इसको वनों से एकत्र किया जाता है। इसको चिरायता के स्थान पर भी दवा के रूप में लोग प्रयोग करते हैं। यह उत्तर प्रदेश से असम तक, मध्यप्रदेश, जम्मू, तमिलनाडु केरल तथा उड़ीसा आदि स्थानों में मैदानी भागों में विस्तृत रूप से वितरित है। इसकी खेती जल्दी ही प्रारंभ की गई है। इसकी गुणवत्ता को देखते हुए इसकी खेती का प्रसार करने की आवश्यकता है। इसके तने, पत्ती, पुष्पक्रम आदि सम्पूर्ण भागों का दवा में प्रयोग होता है। यह कफ पित्तशामक, यकृत उत्तेजक, लीवर के रोगों में प्रयुक्त, अग्निमंदता दूर करके यकृत वृद्धि कम करने वाला, कब्ज व कृमि रोगों में लाभकारी, पित्तसारक व रेचक औषधि है। तेज बुखार में भी लाभकारी है। अपने ज्वरधन रक्त शोधक गुण के कारण मलेरिया जन्य यकृत, प्लीहा वृद्धि तथा अल्कोहलिक व न्यूट्रीशनल सिरोसिस में प्रयुक्त होता है। ज्वर के बाद की दुर्बलता दूर करता है। डायबिटीज में भी लाभकारी है।
जलवायु
इसको गर्म नम तथा पर्याप्त सूर्य प्रकाश की आवश्यकता होती है। मानसून आने के बाद इसकी काफी वृद्धि होती है और सितम्बर के मध्य जबकि तापक्रम न ज्यादा गर्म और न ज्यादा ठंडा होता है तब फूल आने लगते हैं। फूल तथा फलियों का बनना दिसम्बर के मध्य तक होता है। इस समय उत्तरी भारत में तापक्रम कम हो जाता है। दक्षिण भारत क्षेत्र में इस तरह की जलवायु अवस्था मध्य अक्टुबर से अन्त फरवरी या मार्च के प्रथम सप्ताह तक होती है।
भूमि
मध्यम उर्वरता वाली उचित जल निकास युक्त विभिन्न प्रकार की भूमियों बलुई दोमट, दोमट भूमि में इसकी खेती की जा सकती है। इसको छायादार बेकार की भूमियों में भी उगाया जा सकता है।
भूमि की तैयारी
इसके खेत की तैयारी के लिए एक जुताई मिट्टी पलट हल से तथा 1.2 जुताई देशी हल या हैरो से करते हैं तथा पाटा लगाकर भूमि को समतल कर देते हैं। इससे भूमि भुरभुरी तथा समतल हो जाती है।
प्रवर्धन
प्रकृति में फलियों के कटने के बाद बीजों के बिखराव से इसके पौधे उगते है। इसका वर्षी प्रसारण विशेष परिस्थितियों में पौधों की गांठों पर लेयरिंग विधि द्वारा कर सकते है। इसका बीज छोटा होता है। तथा 5-6 महीने सुषुप्तावस्था में रहता है। इसके बीजों को नर्सरी में उगाते हैं। एक हेक्टेयर कालमेघ उगाने हेतु 10 X 2 मीटर नाप की तीन क्यारियों की आवश्यकता होती है। इस क्यारियों को अच्छी तरह मई में गुड़ाई करके भुरभुरी व समतल बनाते हैं। जीवांश पदार्थ अथवा सड़ी गोबर की खाद का प्रयोग स्वस्थ नर्सरी उगाने हेतु क्यारियों में करना चाहिए। मई के तीसरे सप्ताह में 250 से 300 ग्राम बीज जिसका अंकुरण 70-80 प्रतिशत हो को क्यारी की सतह पर मिट्टी मिलाकर छिड़क देना चाहिए। बीजों को हल्की मिट्टी से एक मुलायम परत से ढक देना चाहिए।
क्यारियों को उपयुक्त मल्व से ढ़क देना चाहिए तथा पानी वाले हजारे से क्यारी की आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना याहिए। जब बीज अंकुरित होकर पौधे निकल आये (6-7 दिन) तुरन्त मल्व को हटा देना चाहिए। यदि संभव हो तो सीडलिंग को छाया में मई-जून में उगाना चाहिए क्योंकि उस समय काफी गर्मी होती है।
रोपण
अच्छी तरह से तैयार की हुई क्यारियों में जून के दूसरे पखवारे से जुलाई तक (एक महीने की पौध) पौध का रोपण करते है। भूमि की उर्वरता के अनुसार पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30-60 सेमी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 30-45 से.मी. रखते है। साधारणतया 30X30 सेमी. दूरी भी रख सकते है। रोपाई के एक दिन पहले क्यारियों की सिंचाई कर देना अच्छा रहता है। रोपाई दोपहर के बाद करना चाहिए। तथा पौध पूर्णरूपेण स्थापित हो जाये इसके लिये रोपण बाद अवश्य सिंचाई करनी चाहिये।
खाद तथा उर्वरक
कालमेघ को कम तथा मध्य उर्वकता वाली भूमियों में उगाया जा सकता है। यदि उपलब्ध हो तो 10-15 टन सड़ी हुई गोबर की खाद को प्रयोग किया जा सकता है। साधरणतया इसको 80 किलो नत्रजन तथा 40 किलो फास्फोरस प्रति हेक्टेयर देने की आवश्यकता होती है। इसके शाकीय वृद्धि अच्छी होती है तथा उपज बढ़ जाती है। नत्रजन की मात्रा दो भागों में करके 30-45 दिन के अंतर पर डालना चाहिए। करीब 3-4 टन गोबर की खाद का प्रयोग नर्सरी में कर दिया जाता है। कम पोटाश वाली भूमि में 30 किग्रा. प्रति हेक्टयर पोटाश दिया जा सकता है।
सिंचाई
उत्तरी भारत में यदि उपयुक्त रूप से उचित अंतराल पर वर्षा हो रही हो तो इसकी फसल के लिए वर्षा पर्याप्त होती है। लेकिन नर्सरी में पहले 2-3 सिंचाई की अवश्यकता होती है। नवम्बर-दिसम्बर में सिंचाई करने विशेष लाभ नहीं होता है क्योंकि शाकीय पैदावार की वृद्धि रूक जाती है और फूल व फली बनते हैं।
निराई-गुड़ाई
फसल के उचित रूप से बढ़ने हेतु एक या दो निकाई गुड़ाई की आवश्यकता होती है। मानसून के समय फसल पर्याप्त रूप से बढ़ती है तथा जमीन को घेर लेती है जिससे खरपतवार दब जाते है और निराई गुड़ाई की आवश्यकता नहीं होती।
कटाई
अधिकतम शाक उपज प्राप्त करने हेतु 90-100 दिन बाद जब पत्तियाँ गिरना प्रारम्भ हों तो कटाई कर देनी चाहिए तथा 100-120 दिन में कटाई खत्म कर देना चाहिये। यदि एकवर्षीय रूप में फसल को मई-जून में उगाया गया हो तो उसकी कटाई सितम्बर में जब फूल आना प्रारम्भ हो जाये तब करना चाहिए। ऐसे स्थान जहाँ इस फसल को बेकार की भूमि में, मार्जिनल भूमि पर लगाना हो उसकी दो कटाई एक अगस्त में तथा दूसरी नवम्बर-दिसम्बर में ली जा सकती है। इसके लिए कृषि क्रियाओं का उचित प्रबन्ध आवश्यक है। जाड़े के मध्य फसल सुषुप्तावस्था में रहती है। फूल निकलने के समय पत्तियों में ऐंड्रोग्रफेलाइट की मात्रा अधिक होती है तथा यह पौधों के सम्पूर्ण भागों में पाया जाता हैं। इसलिए सम्पूर्ण पौधे के ऊपरी भाग को काट कर छाया में सुखाना चाहिए।
पैदावार
मानसून में अच्छी तरह कृषि क्रियाओं का प्रबन्ध करने से इस फसल की 3.5 से 4 टन सूखी शाक उपज प्राप्त की जा सकती है।
कीट तथा बीमारियां
इस फसल पर आर्थिक रूप से नुकसान करने वाले कीटों तथा बीमारियों का प्रकोप लगभग नहीं होता है।
आय-व्यय का विवरण
व्यय | रूपये |
1. बीज |
2000.00 |
2. नर्सरी का उगाना तथा प्रबन्ध |
500.00 |
3. खेत की तैयारी तथा क्यारी निर्माण |
3000.00 |
4. खाद तथा उर्वरक का प्रयोग |
2000.00 |
5.रोपण |
1000.00 |
6. सिंचाई |
2000.00 |
7. कटाई |
3000.00 |
8. सुखाई, भंडारण |
4000.00 |
9. विभिन्न व्यय एवं परिवहन |
8000.00 |
योग |
25,000.00 |
आय प्रति हेक्टेयर
3.0 टन शुष्क शाकीय पैदावार रू. 25,000.00 प्रति टन की दर से : 75,000.00
शुद्ध आय :75,000.00-25,000.00- 50,000.00 रूपये।
राज्य में कालमेघ की खेती भोजपुर, रोहतास, कैमूर, समस्तीपुर व अन्य कई जिलों में छिटपुट रूप से हो रही है। कालमेघ के सूखा पाचांग की माँग काफी अच्छी है। कालमेघ के फसल विस्तार की अच्छी सम्भावनाएं राज्य में हैं।
स्रोत- बिहार राज्य बागवानी मिशन, बिहार सरकार
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