परिचय
मेन्था की उत्पत्ति स्थान चीन माना जाता है। चीन से यह जापान ले जाया गया, वहां से यह संसार के विभिन्न देशों में पहुंचा। मेन्था भारत में जापान से लाया गया है। इसलिए इसे जापानी पुदीना भी कहते हैं। यह फैलने वाला, बहुवर्षीय शाकीय पौध है, जिसकी ऊंचाई 1 मीटर तक हो जाती है। पत्तियों के किनारे कटे-फटे होते हैं, जिन पर सफेद रोंये पाये जाते हैं। इसमें पुष्प सफेद या हल्के बैंगनी रंग के गुच्छों में आते हैं। इसकी जड़े गूदेदार सफेद रंग की होती है जिन्हें भूस्तारी (स्टोलन) कहते हैं। मेन्था का प्रसारण इन्हीं भूस्तारी से होता है। मेन्था लेमिएसी कुल का अत्यंत उपयोगी औषधीय पौधा है। इसका वानस्पतिक नाम मेन्था आर्वेन्सिस है। इसके ताजा शाक से तेल निकाला जाता है। ताजा शाक में तेल की मात्रा लगभग 0.8-100 प्रतिशत तक पायी जाती है। इसके तेल में मेंथॉल, मेन्थोन और मिथाइल एसीटेट आदि अवयव पाये जाते हैं। लेकिन मेन्थाल तेल का मुख्य घटक है। तेल में मेन्थाल की मात्रा लगभग 75-80 प्रतिशत होती है। इसके तेल का उपयोग कमरदर्द, सिरदर्द, श्वसन विकार के लिए औषधियों के निर्माण में किया जाता है। इसके अतिरिक्त इसके तेल का उपयोग सौन्दर्य प्रसाधनों, टुथपेस्ट, शेविंग क्रीम लोशन, टॉफी, च्यूंगम, कैन्डी, आदि बनाने में भी किया जाता है। इस प्रकार से कई प्रकार के उद्योगों में काम आने के कारण इसकी मांग बढ़ रही है।
वितरण
मेन्था की खेती विश्व के कई देशों में की जा रही है। मुख्य रूप से भारत, चीन, जापान, ब्राजील और थाइलैण्ड में इसकी खेती की जा रही है। भारत में इसकी खेती, जम्मू कश्मीर, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़ और उत्तर प्रदेश में विशेष रूप से की जा रही है। राजस्थान में भी इसकी खेती संभव है।
जलवायु
पुदीना की खेती पर जलवायु का विशेष प्रभाव पड़ता है। अगर जलवायु अनुकूल नहीं है तो पैदावार के साथ-साथ तेल की गुणवत्ता पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। इसकी खेती के लिए समशीतोष्ण जलवायु उपयुक्त समझी जाती है। ऐसे क्षेत्र जहां सर्दी के मौसम में पाला और बर्फ पड़ने की संभावना रहती है। वहां इसकी खेती संभव नहीं हैं, क्योंकि इससे पौधे की बढ़वार कम हो जाती है तथा पौधों की पत्तियों मे तेल और मेन्थॉल की मात्रा भी प्रभावित होती है।
कैसी हो मिट्टी
मेन्था की खेती कई प्रकार की मृदाओं, जिसकी जल धारण क्षमता अच्छी हो, में की जा सकती है। लेकिन बलुई दोमट मृदा जिसका पी-एच मान 6.0-7.0 हो, इसकी खेती के लिए सर्वोत्तम होती है। ऐसी मृदा जिसमें जीवांश पदार्थ प्रचुर मात्रा में हों, उसमें अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। इसकी खेती के लिए उचित जल निकास वाली मृदा का ही चुनाव करें। जहां पानी भरता हो ऐसी मृदा इसकी खेती के एि बिल्कुल उपयुक्त नहीं है।
खेत की तैयारी
खेत की पहली गहरी जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें, इसके बाद दो जुताइयां हैरो से करें । अन्तिम जुताई से पहले 20-25 टन प्रति हे0 के हिसाब से अच्छी प्रकार से सड़ी हुई गोबर की खाद खेत में मिलाएं तथा पाटा लगाकर खेत को समतल कर लें। ध्यान रहे कि गोबर की खाद अच्छी प्रकार से सड़ी हो, अन्यथा दीमक लगने का भय रहेगा।
उन्नत किस्में
अच्छी पैदावार प्राप्त कने के लिए उन्नत किस्मों का ही चुनाव करें, लेकिन जो किस्म आप ले रहे हैं। उसके बारे में पूरी जानकारी प्राप्त कर प्रामाणिक संस्था से खरीदें। अगर किस्म के चुनाव में चूक हो गयी तो निश्चित रूप से पैदावार कम मिलेगी। मेन्था की एम. ए. एस. 1 हाइब्रिड-77, कालका, गोमती, हिमालय, कोशी और शिवालिक आदि उन्नत किस्में विकसित की जा चुकी हैं।
कटाई से पहले
- क्षेत्र के अनुसार प्रस्तावित उन्नत किस्म का चुनाव करें।
- भूस्तारी (स्टोलन) हमेशा रोगरहित खेत से लें ।
- फसल चक्र अपनाएं
- हरी खाद के सूखें अवशेष जो सड़ नहीं सकते उन्हें खेत से बाहर निकालें
- अच्छी प्रकार से सड़ी हुई गोबर की खाद का ही उपयोग करें।
- भूस्तारी (स्टोलन) को बुआई से पहले फफूदनाशक दवा से उपचारित अवश्य करें।
- भूस्तारी (स्टोलन) 5 से0मी0 से अधिक गहराई पर न बोयें।
- फसल की कटाई उपरांत बचे हुए अवशेष जला दें।
- खाद और पानी समय पर दें।
- खेत को खरपतवार रहित रखें।
- कटाई हमेशा समय पर करें अन्यथा तेल के उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा
- हमेशा उन्नत कृषि तकनीक अपनाएं कटाई के बाद
- फसल की कटाई के बाद शाक को अधिक समय तक धूप में न सुखाएँ
- वैसल में शाक की निर्धारित मात्रा पूरी भरें।
- शाक को वैसल में अच्छी तरह दबाकर भरें।
- तेल निकालते समय पानी का उचित प्रबन्ध हो ।
- वायलर में पानी की मात्रा बराबर रखें।
- कन्डेन्सर में पानी बराबर बढ़ता रहे।
बुआई का समय और विधि
मैदानी क्षेत्रों में इसकी बुआई 15 जनवरी से 15 फरवरी के मध्य करें। इससे पहले या बाद में बुआई करने पर अंकुरण पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। पहाड़ी क्षेत्रों में इसकी बुआई मार्च-अप्रैल में की जा सकती है। बुआई हमेशा लाइनों में 45 x 60 से0मी0 की दूरी पर करें ।
बुआई
मेन्था का प्रसारण भूस्तारी के द्वारा होता है। बुआई के लिए भूस्तारी ऐसे खेत से लें जो रोगरहित हो। मेन्था की बुआई दो प्रकार से की जा सकती है-
1)खेत में सीधे भूस्तारियों द्वारा
इस विधि में पहले से तैयार खेत में लाइनें बनाकर सीधे भूस्तारियों को लाइनों में 4-5 से0मी0 की गहराई पर बो देते हैं। भूस्तारी की लम्बाई लगभग 5-6 से0मी0 होनी चाहिए, जिसमें कम से कम 3-4 आंखें (गाउँ) होनी चाहिये । बुआई से पहले भुस्तारियों को 0.2 प्रतिशत बाविस्टीन के घोल में डुबोयें, जिससे फफूदी न लगे। बुआई के तुरन्त बाद सिंचाई करें। अनुकूल परिस्थितियां होने पर 15-25 दिनों में पूरा अंकुरण हो जाता है। एक हेक्टेयर क्षेत्र में सीधी बुआई के लिए 4-5 क्विंटल भूस्तारियों की आवश्यकता होगी, यह मात्रा भूस्तारियों की मोटाई और बोने की दूरी के आधार पर घट बढ़ सकती है।
2)पौधे लगाकर बुआई करना
यह विधि उन क्षेत्रों के लिए उपयोगी है जहां रबी में कोई अन्य फसल ली गयी हो, उसी खेत में मेन्था की बुआई करनी हो यह पहाड़ी क्षेत्रों के लिए उपयोगी है, क्योंकि जनवरी-फरवरी में वहां तापमान बहुत कम रहता है। कम तापमान होने से अंकुरण कम होता है। इस विधि में रोगरहित खेत से भूस्तारियों को खोदकर उनके छोटे-छोटे टुकड़े कर लेते हैं तथा नर्सरी में लगाकर पौधे तैयार करते हैं। 30-40 दिन बाद पौधे रोपने लायक हो जाते हैं। उस समय नर्सरी में सिंचाई करके पौधे नर्सरी से जड़ समेत उखाड़ कर चयनित खेत में लाइनों में मार्च-अप्रैल में रोप देते हैं। रोपने के बाद खेत में सिंचाई कर देते हैं। लेकिन ध्यान रहे कि देर से बुआई नहीं करें अन्यथा उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
उपरोक्त दोनों विधियों में सीधे भूस्तारियों द्वारा बुआई करना अधिक लाभकारी है।
खाद और उर्वरक
अच्छी पैदावार प्राप्त करने के लिए 15-20 टन प्रति हैक्टर अच्छी प्रकार से सड़ी हुई गोबर की खाद खेत की तैयारी के समय मिट्टी में मिलाएं तथा इसके अतिरिक्त 120-130 कि0ग्रा0 नाइट्रोजन, 50-60 कि0ग्रा0 फास्फोरस तथा 40-60 कि0ग्रा0 पोटास प्रति हैक्टर की दर से खेत में डालें। इसमें फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा तथा नाइट्रोजन की कुल मात्रा का 1/5 भाग बुआई से पहले तथा अन्तिम जुताई के समय खेत में मिलाएं। नाइट्रोजन की शेष मात्रा बाद में खड़ी फसल में दें। इसमें लगभग 20-25 कि0ग्रा0 बुआई के 35-40 दिन बाद इतनी ही मात्रा बुआई के 75-80 दिन बाद खड़ी फसल में दें, शेष मात्रा प्रथम कटाई और दूसरी कटाई के बाद खेत में डालें । लेकिन ध्यान रहे कि नाइट्रोजन देने के बाद सिंचाई अवश्य करें।
सिंचाई
प्रथम सिंचाई बुआई के तुरन्त बाद करें। बाद में 15-20 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करें लेकिन भूमि की किस्म के आधार पर सिंचाई का समय आगे पीछे हो सकता है। गर्मी के मौसम (अप्रैल-जून) में सिंचाई 8-10 दिन के अंतराल पर करें। नमी के अभाव में उत्पादन प्रभावित हो सकता है। कटाई केबाद सिंचाई अवश्य करें।
तेल कैसे निकलें
मेन्था का तेल आसवन संयंत्र के द्वारा निकाला जाता है। इस संयंत्र से तेल निकालने के लिए वैसल (गोल आकार का पात्र) में ताजे शाक को भर दिया जाता है। शाक को वैसल के अन्दर अच्छी तरह से दबाकर भर देते है। यह वैसल माइल्ड स्टील (एम.एस.) या स्टेनलेस स्टील (एम.एस.) के हो सकते हैं। इसमें एस. एस. के वैसल एम.एस. की अपेक्षा महंगे होते हैं। लेकिन तेल की गुणवत्ता की दृष्टि से एस. एस. के वैसल अच्छे होते हैं। यह वैसल एक पाइप के द्वारा बॉइलर से जुड़ा रहता है। बॉइलर के ऊपरी भाग में पानी भरा रहता है तथा निचले भाग में आग जलायी जाती है, आग से यह पानी गर्म होकर भाप बनती है। यह भाप पाइप के द्वारा वैसल में प्रवेश करती है। इस भाप के द्वारा मेन्था का तेल पत्तियों और तनों से उड़कर वाष्प के रूप में इकट्ठा होता है। यह वाष्प वैसल से कन्डेन्सर में एक पाइप के द्वारा आती है। कन्डेन्सर में लगातार ठंडा पानी एक अन्य पाइप के द्वारा बहता रहता है। जो कन्डेन्सर को ठंडा रखता है। कन्डेन्सर में वाष्प ठंडी होती है, जिससे तेल और पानी अलग-अलग हो जाते हैं। कन्डेन्सर से पानी मिश्रित तेल एक नली के द्वारा एक स्टील के पात्र में एकत्रित होता है। चूंकि तेल पानी से हल्का होता है। अतः तेल पानी की ऊपरी सतह पर तैरता है। जो एक नली के द्वारा बाहर आता रहता है, जिसे एल्यूमीनियम के पात्र में इकट्ठा कर लिया जाता है। इस विधि से तेल निकालने में 4-6 घंटे लगते हैं। मेन्था की फसल से शाक और तेल के उत्पादन की मात्रा जलवायु, भूमि की उर्वरता, सिंचाई, कटाई का समय, तेल निकालने की विधि आदि पर निर्भर करती है।
भण्डारण
मेन्था के तेल को प्लास्टिक के डिब्बे या एल्युमीनियम के कनस्तरों (पात्र) में भण्डारण करें । भण्डारण करते समय इस बात का ध्यान रखें कि डिब्बे/पात्र में हवा नहीं रहे अन्यथा तेल खराब होने की संभावना रहती है। अतः अधिक समय के लिए तेल को भण्डारित करने के लिए डिब्बे को अच्छी पकार से बन्द करें ताकि इनमें हवा नहीं रहे तथा 2 ग्राम प्रति लीटर के हिसाब से सोडियम सल्फेट भण्डारित तेल में डालें ।
निराई-गुड़ाई
बुआई के बाद सिंचाई करने पर खरपतवार काफी मात्रा में उगते हैं उस समय खेत को खरपतवार रहित रखें अन्यथा उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। आवश्यकतानुसार निराई-गुड़ाई अवश्य करें। विशेष रूप से प्रथम कटाई के बाद कुदाली या फावड़े से खुदाई करें। फसल बड़ी हो जाने पर खरपतवारों का प्रभाव बहुत अधिक नहीं होता है।
प्रमुख कीट
मेन्था की फसल को निम्न कीट नुकसान पहुंचाते है
दीमक
दीमक द्वारा मेन्था की फसल को काफी नुकसान पहुंचाया जाता है। विशेष रूप से जब गोबर की खाद और हरी खाद भली प्रकार से सड़ी नहीं हो तथा सिंचाई का उचित प्रबंध न हो उस समय इसका प्रभाव और अधिक बढ़ जाता है। दीमक मेन्था के पौधे के तने को जो कि जमीन से लगा होता है उस भाग के सेल्युलोस को काटकर अन्दर घुस जाती है तथा अन्दर तने के भीतरी भाग को काटकर चबाती है, जिससे तने के ऊपरी भाग को भोजन नहीं मिल पाता है और धीरे-धीरे पौधा सूख जाता है।
रोकथाम
1)अच्छी प्रकार से सड़ी हुई गोबर की खाद खेत में डालें।
2)हरी खाद के सूखे अवशेष जो खेत में सड़ नहीं सकते, उन्हें खेत से बाहर निकालें ।
3)सिंचाई की समुचित व्यवस्था सुनिश्चित करें।
4) दीमक का प्रकोप होने पर क्लोरोपाइरीफॉस 20 ई.सी. 4 लीटर/हेक्टेयर के हिसाब से खेत में सिंचाई के पानी के साथ डालें।
रोयेंदार सुंडी
रोयेंदार सुंडी का प्रकोप काफी क्षेत्रों में मेन्था की फसल पर देखा गया है। यह सुंडी पीले भूरे रंग की होती है। जिन पौधों पर इनका प्रभाव होता है, उनकी पत्तियां कागज की तरह सफेद जालीदार हो जाती हैं। पत्तियों के हरे भाग को इन सूड़ीयों के द्वारा खा लिया जाता है, जिससे पत्तियों के भोजन बनाने की क्षमता खत्म हो जाती है। पत्तियों का नुकसान होने के कारण तेल का उत्पादन भी कम होता है।
रोकथाम
इस सुंडी की रोकथाम के लिए फसल की प्रारंम्भिक अवस्था में 2 मि. लीटर/लीटर (१ ली./हैक्टर) की दर से इण्डोसल्फान (0.07 प्रतिशत) का छिड़काव करना चाहिए।
काला कीट
यह जापानी पुदीने पर लगने वाला प्रमुख काले रंग का बीटल या भुंग होता है। पूर्ण विकसित यह काला कीट 5 से 7 सें.मी. लम्बा होता है। इसके पंख नीले काले तथा बहुत कड़े होते हैं। इसके शरीर के ऊपरी भाग पर हल्क नीले रंग की गोल-गोल बिन्दियां होती है। इस कीट का प्रकोप विशेष रूप से पौधे की प्रारंभिक अवस्था में होता है और यह कीट पौधों की कोमल पत्तियों को खाता है। जैसे-जैसे पत्तियां निकलती हैं, यह कीट पत्तियों को खाता रहता है। कभी-कभी पौधे पर एक भी पत्ती नहीं रहती है, जिससे तेल के उत्पादन में कमी आती है।
रोकथाम
इस कीट की रोकथाम के लिए इण्डोसल्फान (0.07 प्रतिशत) 2 मि.ली. प्रति लीटर (1 ली. /हैक्टर) पानी में घोलकर खड़ी फसल पर छिडकाव करें।
सफेद मक्खी
जापानी पुदीने में इस कीट का प्रकोप विशेष रूप से मई में होता है। यह आकार में 1-1.5 मि.मी. लम्बी दूधियां सफेद रंग की होती है। यह मक्खी मेन्था के पौधों की निचली पत्तियों पर आक्रमण करके पौधों से रस-चुसती है, जिसके कारण पौधे की वृद्धि रूक जाती है। इस मक्खी के द्धारा एक विशेष प्रकार का पदार्थ भी विसर्जित किया जाता है, जिसे हनीडिव कहते हैं। इस पदार्थ पर सूटीमोल्ड नामक कवक विकसित हो जाता है। जो कि पौधों की प्रकाश संश्लेषण की क्रिया को प्रभावित करता है, जिससे पत्तियां भोजन नहीं बना पाती हैं तथा पौधे की बढ़वार और उत्पादन में कमी आती है।
रोकथाम
इस मक्खी की रोकथाम के लिए आक्सीडिमेटान मिथाइल 1 मि.ली./ली. (500 मि.ली.है.) या डाइमिथोएट-1 मि.ली./ली. (500 मि.ली. है.) की दर से पानी में मिलाकर खड़ी फसल पर छिड़काव करना चाहिए ।
कटाई
मेन्था से अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के लिए इसकी कटाई पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। अगर कटाई सही समय पर नहीं होती है, तो निश्चित रूप से तेल का उत्पादन तो कम होगा ही साथ ही साथ तेल की गुणवत्ता पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा । इसकी कटाई का उचित समय फूल आने की अवस्था होती है। फूल आने के बाद कटाई करने पर तेल और मेन्थाल दोनों की मात्रा घटने लगती है।
देर से कटाई करने पर पंत्तियां गिर जाती हैं। मेन्था में कुल तेल का लगभग 85 प्रतिशत भाग पत्तियों में पाया जाता है। अतः पत्तियां गिरने से तेल का उत्पादन स्वतः ही कम हो जाता है। पहली कटाई बुआई के लगभग 100-110 दिन में करें । दूसरी कटाई प्रथम कटाई के लगभग 70-80 दिन के अंतराल पर करें। इस समय फूल आने की अवस्था होती है। कटाई करने से लगभग 15 दिन पहले सिंचाई हो तो कटाई नहीं करें । कटाई धारदार हंसिए या दरांती से करें । पौधे को भूमि से लगभग 8-10 सें.मी. उपर से काटें। कटाई के बाद फसल को 3-4 घंटे के लिए खेत में छोड़ दें। कटाई के बाद शाक को काटकर अधिक समय के लिए संग्रह नहीं करें अन्यथा पत्तियां सड़नी शुरू हो जायेंगी, जिससे तेल की गुणवत्ता प्रभावित होगी। कटाई से पहले खेत को खरपतवार रहित करें।
उपज
मेन्था के उत्पादन पर मृदा, जलवायु, उन्नत किस्म और वातावरण का विशेष प्रभाव पड़ता है। इसके उत्पादन की उन्नत कृषि तकनीक अपनाने परएक हैक्टर में लगभग 250-300 क्विंटल ताजा शाक तथा लगभग 200-250 लीटर तेल प्राप्त होता है। मेन्था आयल की कीमत में काफी उतार-चढ़ाव है। गत मौसम में तेल की दर 600/- से 1700/किलोग्राम तक रही है।
स्रोत- बिहार राज्य बागवानी मिशन, बिहार सरकार
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