परिचय
परवल, कद्दूवर्गीय महत्वपूर्ण सब्जी मानी जाती है। इसकी उपलब्धता फरवरी से प्रारंभ होकर दिसम्बर तक बाजार में होती है। निर्यात की दृष्टि से परवल एक महत्वपूर्ण सब्जी है। उत्तर प्रदेश एवं बिहार के मैदानी भागों में इसकी खेती सिंचित दशा में की जाती है, जबकि नदियों के किनारे बिहार, उत्तर प्रदेश आदि जगहों में की जाती है, जिसे रिवर बेड कल्टीवेशन के नामे से भी जाना जाता है। इस तरह की खेती दियारा जमीन पर की जाती है, जहां हर साल नयी मिट्टी नदियों द्वारा जमा होती है। परवल अत्यंत ही सुपाच्य, पौष्टिक, स्वास्थ्यवर्ध्दक एवं औषधीय गुणों से भरपूर एक लोकप्रिय सब्जी है। इसका फल अंडाकार, चिकना, 5-12 सेंमी. लंबा तथा 2-6 सेंमी. व्यास का होता है। फल पर कभी-कभी धारियां भी बनती हैं। इसके फल को पेपो कहा जाता है। इसका प्रयोग मुख्य रूप से सब्जी, आचार और मिठाई बनाने के लिए किया जाता है।
परवल को देश के विभिन्न भागों में अलग-अलग नाम से जाना जाता है, जैसे परवल, पलवल, पटल, परोरा या परमाल आदि। निर्यात की दृष्टि से परवल एक महत्वपूर्ण सब्जी है। इससे अच्छी विदेशी मुद्रा प्राप्त की जा सकती है। इसकी उपलब्धता फरवरी से प्रारंभी होकर दिसंबर तक बाजार में होती है।
पोषकीय महत्व
परवल औषधीय गुणों से भरपूर सब्जी है। यह अत्यंत ही सुपाच्य, स्वास्थ्यवर्ध्दक और पौष्टिक सब्जी है। इसका उपयोग ह्रदय एवं मूत्र संबंधी रोगों में किया जाता है। इसके कच्चे एवं मुलायम फलों को सब्जी के लिए प्रयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त इसकी मुलायम शाखाओं एवं पत्तियों का उपयोग सूप बनाने में किया जाता है। देश के कुछ भागों में इसके फलों से मिठाई तैयार की जाती है। इसमें पर्याप्त मात्र में खनिज एवं लौह पाया जाता है। इसमें पाए जाने वाले पोषक तत्व सारणी-1 में दिए गए हैं।
उदगम एवं वितरण
परवल भारतीय मूल का पौधा है और सभवत: बंगाल इसका उदगम स्थल है। इसकी खेती की जाने वाली किस्मों में विविधता असोम-बंगाल क्षेत्र में ज्यादा होती है। यह स्पष्ट करता है कि इसकी उत्पत्ति भारत में हुई है। इसको पश्चिम बंगाल, ओडिशा, असोम, बिहार, झारखंड एवं उत्तर प्रदेश में बहुतायत से उगाया जाता है। इसका सर्वाधिक उत्पादन बिहार में होता है।
वानस्पतिक वितरण
परवल का वंश ट्रायकोसेन्थस एवं प्रजाति डाइवोका है। परवल उष्णकटिबन्धीय, बहुवर्षीय एकलिंगगाश्रयी एवं लतादार शाकीय फसल है। पौधे की लंबाई 6-8 मीटर होती है। इसे एक बार लगाने के बाद यह उसी स्थान पर कई वर्षों तक पुष्पन एवं फलत करता है। इसकी पत्तियाँ ह्रदयाकार, लंबी एवं आधार पर संकरी होती है। पत्तियों के कक्ष से तंतु निकलते हैं। इसकी जड़ें कंदील एवं लंबी होती हैं। जड़ें एवं तना, दोनों में नये पौधे को जन्म देने की क्षमता होती है। इसकी लताएं पेन्सिल के आकार की गहरी हरी होती है। यह एकलिंगाश्रयी पौधा है अर्थात नर एवं मादा पुष्प अलग-अलग पौधे पर आते हैं। पत्तियों के कक्ष से नर एवं मादा पुष्प विकसित होते हैं। नर पुष्प शीघ्र आना प्रारंभि होते हैं, जबकि मादा पुष्प देर से आते हैं। अच्छी फलत के लिए नर एवं मादा पौधों का अनुपात 1:10 रखा जाता है। मादा पुष्प में 1-5 अंडज (सामान्यत: 3 तक) विकसित होते हैं। इसके पुष्प नलिकाकार एवं सफेद रंग के होते हैं। इसमें प्रथम पुष्पन कलिका निकलने से 16-20 घंटे बाद होता है, जबकि मादा पुष्प 10-15 घंटे बाद निकलते हैं। अगर तापमान कम है तो पुष्पों का विकास 8-10 घंटे देर से होता है। परवल के नर व मादा पुष्प के खिलने का समय 7-9 बजे सुबह होता है। मादा पुष्प खिलने के 8-10 घंटे पूर्व से लेकर 48-50 घंटे पश्चता तक वर्तिकागत सुग्राह् बना रहता है।
फल गोलाकार या अंडाकार, चिकने 5.0-12.0 सेंमी. लंबे तथा 2-6 सेंमी. व्यास के होते हैं। इसका फल पेपो कहलाता है। फल का गूदा सफेद या क्रीमी सफेद होता है। यह पकने पर पीले रंग का हो जाता है। फल पर कभी-कभी धारियां बनती हैं। इसका खाने वाला भाग पेरिकार्प तथा मिजोकार्प का संयुक्त भाग होता है। इसके गूदे में सख्त बीज बनते हैं और बीज गोलाकार होते हैं, जिसे ग्लोबोज कहा जाता है। बीज काले रंग के होते हैं।
जलवायु
परवल की खेती के लिए आर्द्र एवं गर्म जलवायु की आवश्यकता होती है। इसकी खेती सामान्यत: उन स्थानों पर होती है, जहां औसतन तापमान 25-350 सेल्सियस तथा औसतन वार्षिक वर्षा 1500-2000 मिली. होती है। पौधे की अच्छी पैदावार के लिए 21-270 सेल्सियस था फलत के लिए 21-240 सेल्सियस तापमान उपयुक्त माना जाता है। अगर तापमान 50 सेल्सियस से नीचे आ जाता है, तो पौधों का विकास प्रभावित होता है। इसलिए ज्यादा ठंडक पड़ने पर पौधों का ऊपरी भाग सूख जाता है और सुसुप्तावस्था में चला जाता है। जब तापमान मध्य फरवरी में बढ़ने लगता है, तो पौधे में वृद्धि होने लगती है। पौधे में फलत फरवरी-मार्च से लेकर अक्टूबर-नवंबर तक चलता है। इसकी वृद्धि के लिए कम पानी की आवश्यकता होती है, परन्तु जलमग्न अवस्था में यह सड़कर समाप्त हो जाता है।
भूमि की तैयारी
यह बहुवर्षीय सब्जी है। इसे एक बार लगाने पर 3-4 वर्षों तक लगातार उपज मिलती रहती है। अत: मृदा संरचना एवं उर्वरता का प्रभाव इसकी उपज पर पड़ता है। ऐसी मृदा जिसकी संरचना बलुई दोमट तथा जिसमें कार्बनिक पदार्थ पर्याप्त मात्रा में हो, इसकी खेती के लिए उत्तम होती है। मृदा का पी-एच मान 6.0-6.5 तक उत्तम है। इसकी खेती नदियों के किनारे अधिक मात्रा में की जाती है, क्योंकि वहां मृदा की उर्वरता ज्यादा होती है।
खेत तैयार करने के लिए मई-जून के महीने में 2-3 बार गहरी जुताई कर पाटा चलाना चाहिए। पुन: जून-जुलाई में 2-3 बार गहरी जुताई हैरो या कल्टीवेटर से करनी चाहिए। खेत की अंतिम जुताई के समय 20-25 टन प्रति हैक्टर गोबर की सड़ी खाद या वर्मीकम्पोस्ट मिलाना चाहिए।
पौध प्रसारण
परवल का प्रसारण बीज एवं वानस्पतिक, दोनों विधियों द्वारा किया जाता है:
बीज द्वारा प्रसारण: सामान्यतया बीज द्वारा प्रसारण किया जाता है, क्योंकि इसमें 50 प्रतिशत पौधे नर होते है तथा पुष्पन एवं फलत की क्रिया देर से आरंभ होती है। अगर बीज द्वारा प्रसारण किया जाता है तो बीज की बुआई जून-जुलाई में की जाती है तथा एक हैक्टर के लिए 20-25 किग्रा. बीज की आवश्यकता होती है।
वानस्पतिक विधियां
- जड़ कर्तन द्वारा प्रसारण: इस विधि को अधिकतर किसानों द्वारा अपनाया जाता है। इस विधि में एक वर्ष पुरानी तने की लताओं से विकसित जड़ें खेत में जगह-जगह स्वत: तैयार होती है, जिसे किसान वहां से हटाकार वांछित दूरी पर खेत में लगाते है।
- तना कर्तन द्वारा प्रसारण: परवल के प्रसारण के लिए इस विधि का प्रयोग व्यावसायिक रूप से किया जाता है । इस विधि से प्रसारण करने के लिए 60-90 सेंमी. लंबे तने, जिसमें 10-15 गांठें हों, उत्तम माने जाते हैं। इस प्रकार पौध प्रसारण अक्टूबर में बड़े पैमाने पर किया जाता है। शीतोष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों में एकवर्षीय पूर्णतया पके तने को लेकर पौधे तैयार करके मुख्य खेत में लगाते हैं।
- पौधशाला में परवल की पौध तैयार करना: कभी-कभी परवल की पौध को पौधशाला में तैयार किया जाता है। इसके लिए पोलीथिन इ 15 x 10 सेंमी. आकार की 100 गेज मोटी थैलियों का उपयोग किया जाता है। इन थैलियों में मिट्टी, बालू एवं सड़ी हुई गोबर की खाद 1:1:1 के अनुपात में मिलाकर मिश्रण को इनमें भरा जाता है। इसमें मात्र 15 सेंमी. लंबे तने ही लगाए जाते है, जिनमें 4-5 गांठें हों। पौधों में जमाव 30 दिनों के अंदर आरंभ हो जाता है और 45 दिनों के अंदर जड़ें विकसित हो जाती हैं। थैली भरते समय ध्यान रखना चाहिए कि उसमें 4-5 छिद्र थैली के नीचे एवं बाहरी दीवारों पर करने चाहिए, जिससे अतिरिक्त पानी देने पर आसानी से बाहर निकल जाए। इस प्रकार 2-3 महीनों में लगाने योग्य पौधे तैयार हो जाते हैं। इस विधि द्वारा तैयार पौधे का रोपण करने से मुख्य खेत में शत-प्रतिशत पौध स्थापित की जा सकती है।
पौध रोपण का समय
परवल लगाने का उत्तम समय मध्य नक्षत्र है, जो अगस्त के आसपास होता है। नदियों के किनारे परवल को अक्टूबर-नवंबर में लगाया जाता है। दियारा क्षेत्र में प्रत्येक वर्ष नई फसल लगानी पड़ती है, क्योंकि बाढ़ में फसल नष्ट हो जाती है।
रोपण विधि एवं अंतराल
परवल को दो विधियों द्वारा लगाया जाता है:
सीधी लता विधि: इस विधि में 30 सेंमी. गहरी नालियां बनाई जाती हैं और नाली में पर्याप्त मात्रा में खाद मिलाई जाती है। इन्हीं नालियों में 2 मीटर के अंतराल पर भूमि की सतह से 15 सेंमी. की गहराई पर लंबाई में फैलाकर कलमें रोप दी जाती हैं। इस विधि में एक हैक्टर क्षेत्रफल में 2500 कलमें लगती हैं।
थाला विधि: इस विधि से रोपाई के लिए 2-2 मीटर के अंतराल पर ऊंचे उठे हुए थाले बनाए जाते हैं। कलमों की लच्छी बनाकर इन्हीं थालों में लगाई जाती है।
नर व मादा पुष्प का अनुपात
एकलिंगी पौधा होने के कारण परवल का अनुपात सही होना आवश्यक है। जब खेत में नर व मादा पौधे का अनुपात सही नहीं होता तो मादा पुष्प बिना परागण के हल्के पीले अंत में भूरे रंग के होकर गिर जाते हैं। इससे उपज प्रभावित होती है। हम सब जानते हैं कि नर पौधों से उपज प्राप्त नहीं होती है, परन्तु ये परागण के लिए आवश्यक होते हैं और बिना परागण के मादा से उपज लेना असंभव है। अत: खेत में नर व मादा पौधों का अनुपात 1:10 का होना चाहिए।
खाद एवं उर्वरक
खेत की तैयारी के समय 10-15 टन सड़ी हुई गोबर की खाद मिला दी जाती है। मेड़ों पर गड्ढे 40 x 40 x 40 सेंमी. आकार के बनाते हैं। प्रत्येक गड्ढे में 4-6 किग्रा. गोबर की सड़ी खाद, 50 ग्राम यूरिया, 100 ग्राम डीएपी तथा 80 ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश, 100 ग्राम नीम की खली मिलाकर भर देते है। पुन: मई व जुलाई में गुड़ाई करने के बाद प्रत्येक पौधे को 80 ग्राम यूरिया देते हैं तथा मिट्टी चढ़ा देते हैं। इसी मात्रा में खाद व उर्वरक दूसरे व तीसरे वर्ष में फलत लेने के लिए देते हैं।
सिंचाई व अन्य सस्य क्रियाएं
रोपण के पश्चात हल्की सिंचाई की आवश्यकता होती है। इससे कलम सूखने से बची रहती है एवं अच्छी तरह से स्थापित हो जाती है। बरसात के मौसम में नियमित बरसात होने से सिंचाई रोक देते हैं। प्रारंभिक अवस्था में पौधों की लताओं के सुचारू रूप से बढ़ने के लिए आवश्यक है कि खेत की निराई-गुड़ाई की जाए।
सहारा देना
परवल की लताओं को बांस, लकड़ी या मचान पर चढ़ाने से फलत अच्छी होती है। इससे फलों की तुड़ाई में भी काफी सुविधा मिलती है। इसके लिए जब बेलें 30 सेंमी. बढ़वार की हो जाएं, उस समय रस्सी के सहारे मचान पर इन्हें चढ़ा देना चाहिए।
कटाई-छंटाई
जाड़े में परवल की बेलें सूखने लगती हैं और पौधे सुसुप्तावस्था में चले जाते हैं। इसलिए लताओं की कटाई अक्टूबर-नवंबर में मुख्य तने के पास 10-15 सेंमी. भाग को छोड़कर की जाती है। तने के पास गोबर की सड़ी हुई खाद डालकर पुआल से ढक देते हैं।
फल की तुड़ाई एवं उपज
परवल के पौधे जो पहली बार अक्टूबर-नवंबर में लगाए जाते हैं, वे अप्रैल-मई में फलते हैं और सितंबर-अक्टूबर तक फलते रहते हैं। नदियों के किनारे दियारा में लगाए गए पौधों पर फल फरवरी में ही आने लगते हैं। पौधों पर फल लगने के 15 दिनों बाद पूर्ण विकसित फलों की तुड़ाई करनी चाहिए। समय से फलों की तुड़ाई करते रहने से फल अधिक संख्या में लगते रहते हैं। पहले वर्ष औसत उपज 10-12.5 टन तथा दूसरे वर्ष 22-25 टन प्रति हैक्टर प्राप्त होती है।
प्रमुख रोग एवं उनका प्रबंधन एन्थ्रेक्नोज
यह एक फफूंदजनित रोग है। प्रारंभ में रोग से प्रभावित पौधों की पत्तियों पर छोटे-छोटे पीले धब्बे दिखाई देते हैं। इस रोग से बचाव के लिए मैंकोजेब की 2.5-3.0 ग्राम मात्रा प्रति लीटर की दर से पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
चूर्णिल असिता
यह भी एक फफूंदजनित रोग है। रोग से प्रभावित पौधे की पत्तियों की सतह पर गोल सफेद पाउडर जैसे धब्बे बनते हैं। ये आकार व संख्या में तेजी से बढ़ते हैं और कभी-कभी पूर्ण रूप से पट्टी को ढक लेते हैं। रोग से बचाव के लिए 0.06 प्रतिशत केराथेन नामक दवा का छिड़काव करना चाहिए। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि छिड़काव से पहले खाने योग्य फलों की तुड़ाई कर लें।
फल का पीला पड़ना
प्राय: ऐसा देखा जाता है कि परवल का फल लगते ही पीला हो जाता है, जो पका जैसा दिखाई देता है और बाद में पौधे से टूट कर गिर जाता है। इसके दो प्रमुख कारण हैं:
- नर फूल की कमी के कारण परागण व गर्भाधान क्रिया का न होना। ऐसी दशा में नर व मादा पौधों को 1:10 अनुपात में लगाकर फल का पीला होना रोका जा सकता है। इसके अलावा यह सावधानी रखनी चाहिए कि फूल आने के समय किसी प्रकार की कीटनाशी दवा का प्रयोग दिन के समय न करें। अन्यथा परागण करने वाली मधुमक्खियों के मरने का डर रहता है। इसी कारण कीटनाशकों का प्रयोग सायंकाल करना चाहिए।
- फल मक्खी द्वारा विकसित हो रहे कोमल फलों के क्षतिग्रस्त होने से फल पीले पड़ जाते हैं। इसके लिए फल मक्खी का नियंत्रण करें। नियंत्रण के लिए मेलाथियान की 15 मिली. मात्रा के साथ 200 ग्राम गुड़ को 20 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करने से कीट आकर्षित होते है और खाकर मर जाते हैं। इस दवा का छिड़काव एक हैक्टर में 200-300 पौधों पर किया जा सकता है। स्त्रोत: कृषि, सहकारिता एवं किसान कल्याण विभाग, भारत सरकार