परिचय
विश्व में तिलहन वाली प्रमुख फसलें मूंगफली, सरसों, सोयाबीन एवं सूरजमुखी हैं। अमेरिका, ब्राजील, अर्जेन्टीना, चीन व भारत प्रमुख तिलहन उत्पादक देश हैं। भारत में तिलहनी फसलों के रूप में मुख्य रूप से मूंगफली, सोयाबीन, सरसों, सूरजमुखी, कुसुम, अरण्डी, तिल एवं अलसी उगाई जाती हैं। सरसों उत्पादन एवं क्षेत्रफल की दृष्टि से विश्व में चीन एवं कनाडा के बाद भारत का तीसरा स्थान है। भारत में सरसों प्रमुख रूप से राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में उगाई जाती है। खाद्य तेलों के आयात हेतु भारत सरकार को बहुत बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ती है। अतः खाद्य तेलों पर आयात की निर्भरता कम करने के लिए तिलहनी फसलों का उत्पादन बढ़ाने पर अधिक जोर दिया जा रहा है।
सरसों की फसल किसानों में बहुत ही लोकप्रिय है, क्योंकि यह फसल कम सिंचाई एवं लागत में दूसरी अन्य फसलों की अपेक्षा अधिक लाभ प्रदान करती है। सरसों के तेल में न्यूनतम संतृप्त वसा अम्ल तथा लिनोलेनिक एवं लिनोलिक अम्ल की मौजूदगी इसके लाभकारी गुणों को प्रदर्शित करती है। परंतु इसके तेल में इरूसिक अम्ल की अधिक मात्रा (35-50 प्रतिशत) अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप नहीं है। इसलिए इरूसिक अम्ल की 2 प्रतिशत से कम मात्रा वाली किस्मों का विकास किया जा रहा है, जिन्हें 0 जीरो किस्म कहा जाता है। सरसों की खली जिसमें प्रोटीन 38-40 प्रतिशत तक होती है, एक अच्छा पशु आहार है। सरसों की खली में पाया जाने वाला ग्लुकोसिनोलेट यौगिक अधिक मात्रा में होने पर कुक्कुट व सुअर के लिए यह हानिकारक माना जाता है। इस प्रकार सरसों की ऐसी किस्में विकसित की गईं जिनके तेल में इरूसिक अम्ल व खली में ग्लुकोसिनोलेट की मात्रा कम है। इस तरह की किस्मों को काउन्सिल ऑफ कनाडा ने एक ट्रेडमार्क नाम कनोला दिया है। वैज्ञानिक तौर पर कनोला 00 (डबल जीरो क्वालिटी) ब्रेसिका नेपस या ब्रेसिका रापा का बीज है। सरसों की फसल में कम उत्पादन के कारणों का पता लगाने पर पाया गया कि अधिक बीज दर, उपयुक्त किस्मों का चयन न करना, असंतुलित उर्वरक प्रयोग, पादप रोग व कीटों की प्रर्याप्त रोकथाम न करना तथा नमी की सीमित मात्रा तथा खरपतवारों का अधिक प्रकोप आदि मुख्य हैं। सरसों की अच्छी पैदावार किसानों की आर्थिक स्थिति को काफी हद तक प्रभावित करती है। अतः सरसों की खेती में नवीनतम तकनीके अपनाकर भरपूर लाभ उठाया जाना चाहिए। किसान भाई निम्न बातों या तकनीकों को अपनाकर सरसों का उत्पादन बढ़ा सकते हैं:
भूमि की तैयारी
सरसों की अच्छी पैदावार हेतु बलुई दोमट मिट्टी, जिसमें जल निकास की सुविधा हो तथा अत्यधिक अम्लीय व क्षारीय न हो, उपयुक्त कही जा सकती है। हालांकि क्षारीय भूमि में सरसों की सही किस्म के चुनाव से अच्छी पैदावार ली जा सकती है। जहां जमीन क्षारीय हो, वहां प्रति तीसरे वर्ष जिप्सम 50 क्विंटल प्रति हेक्टयर की दर से प्रयोग करना चाहिए। जिप्सम को मई या जून में जमीन में मिला देना चाहिए। सिंचित क्षेत्र में पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से कर तीन-चार जुताइयां हैरो से करके पाटा लगाएं ताकि खेत में ढेले न बन सके। असिंचित या बारानी दशा में प्रत्येक वर्षा के बाद हैरो से जुताई कर नमी संरक्षित करें तथा प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य लगाए ताकि भूमि में नमी बनी रहे।
बुआई का समय
बुआई का समय विभिन्न स्थानों पर तापमान, मानसून की स्थिति या समाप्ति तिथि एवं पूर्व में खेत में खड़ी फसल (फसल चक्र) के अनुसार भिन्न हो सकता है। बुआई का उचित समय किस्म के अनुसार सितंबर मध्य से लेकर अक्टूबर अंत तक का होता है। सरसों में अंकुरण अच्छा हो इसके लिए बुआई के समय दिन का अधिकतम तापमान 33 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा नहीं होना चाहिए। सरसों की बुआई नवंबर में करनी हो तो देरी से बुआई के लिए उपयुक्त किस्मों का उपयोग करने से तुलनात्मक रूप से अधिक पैदावार प्राप्त की जा सकती है।
उन्नत किस्में
सरसों की किस्मों को अलग-अलग परिस्थितियों में अच्छी पैदावार देने की क्षमता के अनुसार वर्णित किया गया है। किसान भाई अपनी मिट्टी की किस्म, सिंचाई की उपलब्धता और बुआई के समय के आधार पर उपयुक्त किस्म का चुनाव कर सकते हैं। टेक व खाली की गुणवत्ता के आधार पर भी किसान भाई क़िस्मों का चयन कर सकते हैं। क़िस्मों किऔसत उपज, तेल की मात्रा, परिपक्वता अवधि आदि प्रपट करने के लिए उन्नत तकनीकों को अपनाना आवशयक है।
बीज दर
बीज दर बुआई के समय, मिट्टी में नमी की मात्रा एवं प्रयुक्त किस्म पर निर्भर करती है। पंक्ति में बोई गई सिंचित फसल के लिए बीज दर 4 कि.ग्रा. प्रति हेक्टयर पर्याप्त है।
बीज उपचार
सरसों में तना गलन रोग से बचाव हेतु बीजों के कार्बेणडजीम एक ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करें। यदि यह रसायन उपलब्ध न हो तो 2 प्रतिशत लहसुन के सत से उपचारित करें। लहसुन का 2 प्रतिशत सत बनाने के लिए 20 ग्राम लहसुन को मिक्सी या पत्थर पर बारीक पीसकर कपड़े से अच्छी तरह छानकर एक लीटर पानी में मिलाकर घोल तैयार किया जाता हैं। यह मात्रा 5-7 कि.ग्रा. बीज के उपचार के लिए प्रर्याप्त है। जिन क्षेत्रों में सफेद रोली रोग की समस्या है वहां पर एप्रोन 35 एसडी की 6 ग्राम मात्रा प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से बीज उपचार करें।
बुआई की विधि
बीज को पौधों से पौधों के बीच की दूरी 10 सें.मी. रखते हुए 4-5 सें.मी. गहरा बोयें। पंक्ति की दूरी 30 सें.मी. रखें। असिंचित क्षेत्रों में बीज की गहराई, नमी के अनुसार रखें। उर्वरकों का संतुलित प्रयोग करने हेतु मृदा परीक्षण जरूरी है। सिंचित फसल के लिए 60 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 30-40 कि.ग्रा. फॉस्फोरस डी.ए.पी. से देना हो तो 250 कि.ग्रा. जिप्सम या 40 कि.ग्रा. गंधक चूर्ण दें। फॉस्फोरस सिंगल सुपर फॉस्फेट से देना हो तो 80 कि.ग्रा. जिप्सम प्रति हेक्टयर अंतिम जुताई के समय बिखेरकर दें। नाइट्रोजन की आधी मात्रा का पहली सिंचाई के साथ छिड़काव करें। असिंचित क्षेत्रों में उर्वरकों की आधी मात्रा (30 कि.ग्रा. नाइट्रोजन एवं 15 कि.ग्रा. फॉस्फोरस) बुआई के समय काम में लेनी चाहिए। सिंचित व कम पानी की स्थिति में सरसों की अधिक उपज लेने हेतु 500 पीपीएम थायोयूरिया (5.0 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी) या 100 पीपीएम थायोग्लाइकोलिक एसिड (1.0 मि.ली. प्रति 10 लीटर पानी) का घोल बनाकर दो छिड़काव 50 प्रतिशत फूल अवस्था पर (बुआई के लगभग 40 दिनों बाद) तथा दूसरा छिड़काव उसके 20 दिनों बाद करना चाहिए।
जिंक की कमी होने पर भूमि में बुआई से पहले 25 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हेक्टयर अकेले या जैविक खाद के साथ प्रयोग किया जा सकता है। अन्यथा खड़ी फसल में जिंक की कमी के लक्षण दिखाई देने पर लेब ग्रेड का जिंक सल्फेट 0.5 प्रतिशत (200 लीटर पानी में एक कि.ग्रा. जिंक सल्फेट) का घोल बनाकर सरसों के फूल आने तथा फलियां बनते समय छिड़काव करना चाहिए। बोरॉन की कमी वाली मृदाओं में 10 कि.ग्रा. बोरेक्स प्रति हेक्टयर की दर से खेत में बआई से पूर्व मिला दिया जाए तो पैदावार में बढ़ोतरी होती है।
खरपतवार नियंत्रण
खरपतवार नियंत्रण व खेत में नमी संरक्षण के लिए पहली सिंचाई से पूर्व ही निराई-गुड़ाई करनी चाहिए। सरसों में खरपतवार प्रबंधन हेतु पेण्डीमिथेलीन 30 ई.सी. 750 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टयर (लगभग 3 लीटर दवा) शाकनाशी का बुआई के बाद किंतु बीज उगने से पूर्व 500-700 लीटर पानी में घोल बनाकर छिडकाव करना चाहिए। पहली सिंचाई के बाद दो पहिए वाली हस्तचालित-हो के द्वारा निराई-गुड़ाई करने से खरपतवार नियंत्रण के साथ फसल की वद्धि भी अच्छी होती है।
सिंचाई
प्रथम सिंचाई 28-35 दिनों बाद फूल आने से पहले करें तथा आवश्यकतानुसार दूसरी सिंचाई 70-80 दिनों बाद फलियां बनते समय करनी चाहिए। जहां पानी की कमी हो या खारा पानी हो वहां सिर्फ एक ही सिंचाई करना अच्छा रहता है। यदि सिंचाई का पानी क्षारीय है तो पानी की जांच करवाकर उचित मात्रा में जिप्सम और गोबर की खाद का प्रयोग करें।
ओरोबैंकी प्रबंधन
ओरोबैंकी की रोकथाम हेतु फसल चक्र अपनाएं, खासतौर पर गेहूं, जौ या चना। गर्मियों में खेत की गहरी जुताई मिटटी पलटने वाले हल से करें। ओरोबैंकी खरपतवार के बीज बनने से पहले ही उखाड़कर नष्ट करें। कृषि उपकरणों को सफाई के बाद ही काम में लें।
हमेशा स्वस्थ एवं प्रमाणित बीज, जो परजीवी बीजों से मुक्त हों, बुआई के काम में लें। सिंचित फसल की अवस्था में अंकुरण के 25 दिनों बाद 25 ग्राम व 50 दिनों बाद 50 ग्राम ग्लाइफोसेट का जड़ों की तरफ निर्देशित छिड़काव करने पर इस खरपतवार का नियंत्रण किया जा सकता है।
कटाई
जब 75 प्रतिशत फलियां पीली पड़ जायें तो फसल की कटाई कर लेनी चाहिए।
गहाई
जब बीजों में नमी 12-20 प्रतिशत हो तो गहाई करनी चाहिए।
उपरोक्त तकनीकों को अपनाकर किसान भाई सरसों की पैदावार में अपेक्षित बढ़ोतरी कर सकते हैं।
सारणी 1. सरसों की विभिन्न उत्पादन परिस्थितियों हेतु मुख्य किस्में
विभिन्न उत्पादन परिस्थितियां | किस्में |
1. समय पर बुआई वाली सिंचित क्षेत्र की किस्में |
एन.आर.सी.डी.आर.-2, बायो-902, पूसा बोल्ड, आर.एच. -30, लक्ष्मी, वसुंधरा, जगन्नाथ, रोहिणी, आर.जी.एन.-73, पूसा मस्टर्ड-21, पूसा मस्टर्ड-22, एन.आर.सी.डी.आर.-601, एन.आर.सी.एच.बी.-101, एन.आर.सी.वाई.एस.-05-02 (पीली सरसों), गिरिराज (आई.जे.-31), आर.एच.-749 |
2. संकर किस्में |
एन.आर.सी. एच.बी.-506, डी.एम.एच.-1, पी.ए.सी.-432 (कोरल), पी.ए.सी.-437 (कोरल) |
3. असिंचित क्षेत्र की किस्में |
अरावली, गीता, आर.जी.एन.-48 |
4. अगेती बुआई के लिए |
पूसा अग्रणी (सेग-2) |
5. देर से बोई जाने वाली किस्में |
एन.आर.सी.एच.बी.-101, स्वर्ण ज्योति, आशीर्वाद, आर.आर. एन.-505, आर.जी.एन.-145 |
6. लवणीय मृदा की किस्में |
सी.एस.-54, सी.एस.-52, नरेन्द्र राई-1 |
7. उच्च गुणवत्ता या कनोला किस्में |
पूसा मस्टर्ड-22, पूसा मस्टर्ड-29, पूसा मस्टर्ड-30 |
सरसों के प्रमुख रोग एवं उनका प्रबंधन
सफेद रोली
रोग से ग्रसित पौधों की पत्तियों की निचली सतह में सफेद रंग के छोटे-छोटे फफोले बनते हैं। इन फफोलों के ठीक ऊपर पत्ती की ऊपरी सतह पर गहरे भूरे/कत्थई रंग के धब्बे दिखाई देते हैं। फसल पर रोग के लक्षण दिखाई देते ही मैन्कोजेब या रिडोमिल एमजेड-72 डब्ल्यूपी फफूदनाशक के 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें तथा आवश्यकता पड़ने पर 15 दिनों के अंतराल पर छिड़काव को पुनः दोहराएं।
मृदुरोमिल आसिता
इस रोग में सर्वप्रथम नई पत्तियों पर मटमैले रंग के धब्बे दिखाई देते हैं। ये धब्बे पत्तियों की निचली सतह पर फफूद की वृद्धि के कारण बनते हैं। इस रोग के नियंत्रण हेतु बीज को मेटालेक्सिल 2.0 ग्राम सक्रिय तत्व (एप्रोन 35 एस.डी. 6.0 ग्राम) प्रति कि.ग्रा. की दर से उपचारित कर बुआई करनी चाहिए। खड़ी फसल में रोग के लक्षण दिखाई देते ही रिडोमिल एमजेड 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें। आवश्यकता पड़ने पर 10-15 दिनों के अंतराल पर इस छिड़काव को पुनः दोहराएं।
छाछ्या
इस रोग में सर्वप्रथम पुरानी पत्तियों में दोनों तरफ फफोले दिखाई देते हैं। अनुकूल वातावरण की स्थिति में ये फफोले तेजी से फैलकर पूरी पत्ती को घेर लेते हैं, जिससे पत्ती की भोजन बनाने की क्षमता कम हो जाती है। इस रोग के नियंत्रण हेतु घुलनशील सल्फर2.0 ग्राम या डाइनोकेप एक मि.ली. प्रति लीटर की मात्रा का घोल बनाकर छिड़काव करें तथा आवश्यकता पड़ने पर इस घोल को 15 दिनों के अंतराल पर दोहराएं।
तना गलन
इस रोग में तने के निचले भाग पर फफोलेनुमा संरचना दिखाई देती है। प्रायः ये फफोले रुई जैसे कवक जाल से ढके रहते हैं। कुछ समय बाद तने को चीरकर देखने पर काली-काली चूहे की मेंगनी जैसी संरचना पाई जाती है। इस रोग की रोकथाम हेतु कार्बण्डाजिम एक ग्राम प्रति लीटर फफूदीनाशक का छिड़काव बुआई के 50 एवं 70 दिनों बाद करने से रोग से बचाव किया जा सकता है। जिन क्षेत्रों में अक्सर यह रोग दिखाई देता है, वहां पर ट्राइकोडर्मा जैविक नियंत्रक 2.5 कि.ग्रा. प्रति हेक्टयर की दर से गोबर की खाद में मिलाकर 10-15 दिनों तक इसकी बढ़वार करवाई जाती है।
सरसों के कीट व प्रबंधन
आरा मक्खी
इस कीट की लटें पत्तियों को तेजी से खाती हैं, जिससे पत्तियों में अनेक छेद हो जाते हैं। तीव्र प्रकोप होने पर पत्तियों के स्थान पर शिराओं का जाल ही शेष रह जाता है। इस कीट की रोकथाम हेतु मेलाथियान 50 ई.सी. की 500 मि.ली. मात्रा को 500 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टयर छिड़काव करें।
पेन्टेड बग या चितकबरा कीट
यह एक रस चूसने वाला कीट है, जिसके वयस्क एवं शिशु दोनों ही समूह में एकत्र होकर पौधों से रस चूसकर उसको, नुकसान पहुंचाते हैं। इस कीट की रोकथाम हेतु मेलाथियान 5 प्रतिशत या कार्बारिल 5 प्रतिशत चूर्ण 25 कि.ग्रा. प्रति हेक्टयर की दर से प्रातः या सायं भुरके।
चेपा या माहूं उर्वरकों का प्रयोग
ये कीट झुंड में रहते हैं तथा तीव्र गति से वंश वृद्धि करते हैं तथा फूलों की टहनियों से शुरू होकर पूरे पौधे पर फैल जाते हैं, जिससे पौधों की बढ़वार रुक जाती है। जब फसल में कम से कम 10 प्रतिशत पौधों की संख्या चेपाग्रस्त हो अथवा 26-28 चेपा कीट प्रति पौधा हो तो रोकथाम के उपाय करना आवश्यक हो जाता है। चेपा की रोकथाम हेतु डाइमेथोएट 30 ई.सी. या मोनोक्रोटोफॉस 36 घुलनशील द्रव्य की एक लीटर मात्रा को 600-800 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टयर छिड़काव करें। छिड़काव सायंकाल के समय में करने पर परागण करने वाले कीटों पर प्रतिकूल प्रभाव कम पड़ता है। यदि चेपा के प्राकृतिक शत्रु जैसे लेडीबर्ड बीटल, सिरफिड तथा ग्रीन लेसविंग पर्याप्त मात्रा में मौजूद हो तो छिड़काव करने की जरूरत नहीं होती है।
लेखन: बी.एल. जाट और आर.एल. मीना
स्त्रोत: कृषि, सहकारिता एवं किसान कल्याण विभाग, भारत सरकार
Source