
न्यूज डेस्क, अमर उजाला, धर्मशाला
Updated Sun, 17 Nov 2019 05:38 PM IST
हिमाचल में केवल पीला रतुआ (येलोरस्ट) का प्रकोप इस फसल में अधिक देखा गया है, बाकी क्षेत्रों की अपेक्षा हिमाचल के निचले एवं गर्म क्षेत्रों में यह अधिक पाया जाता है। जनवरी और फरवरी में गेहूं की फसल में पीला रतुआ (येलोरस्ट) रोग लगने की संभावना रहती है। तापमान में वृद्धि के साथ गेहूं में यह रोग बढ़ जाता है। हाथ से छूने पर धारियों से फंफूद के पीले रंग के बीजाणु हाथ में लगते हैं।फसल के इस रोग की चपेट में आने से कोई पैदावार नहीं होती है। किसानों को फसल से हाथ धोना पड़ता है। इस बीमारी के लक्षण ठंडे व नमी वाले क्षेत्रों में ज्यादा देखने को मिलते हैं। साथ ही पापुलर व सफेदे के पेड़ों के आसपास उगाई गई फसलों में यह बीमारी सबसे पहले आती है। पत्तों का पीला होना ही पीला रतुआ नहीं है, पीला पत्ता होने के कारण फसल में पोषक तत्वों की कमी, जमीन में नमक की मात्रा ज्यादा होना व पानी का ठहराव भी हो सकता है।
पीला रतुआ बीमारी में गेहूं के पत्तों पर पीले रंग का पाउडर बनता है, जिसे हाथ से छूने पर हाथ पीला हो जाता है। ऐसे खेतों में जाने से कपड़े भी पीले हो जाते हैं। रोग नियंत्रण के लिए सही समय पर रोग प्रतिरोधी किस्मों के बीज का उपयोग कर रोग पर नियंत्रण पाया जा सकता है। किसी भी दवाई की अपेक्षा रोग प्रतिरोधी किस्मों के बीजों का उपयोग इस रोग के निदान का सरल उपाय है।
रोग प्रतिरोधी किस्मों का बीज लगाने पर पीला रतुआ रोग नहीं आएगा, किंतु यदि रोग के लक्षण दिखाई दें तो उसका निदान रासायनिक अथवा जैविक किसी भी उपचार से किया जा सकता है। रासायनिक उपचार में किसान जहां दवाई का छिड़काव कर सकता है, वहीं जैविक उपचार में किसान एक किलोग्राम तंबाकू की पत्तियों का पाउडर 20 किग्रा लकड़ी की राख के साथ मिला कर बीज बुआई या पौध रोपण से पहले खेत में छिड़काव कर सकते हैं। इसके अलावा गोमूत्र नीम का तेल मिलाकर अच्छी तरह मिश्रण तैयार कर भी इसका छिड़काव किया जा सकता है।
विशेषज्ञ का प्रोफाइल:
डॉ दीपिका सूद हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय में सेवाएं दे रही हैं। वह विषयवाद विशेषज्ञ के रूप में कांगड़ा और बरठीं में भी सेवाएं दे चुकी हैं। डा. दीपिका 2009 से कृषि विवि के साथ जुड़ी हैं, जबकि इससे पहले भी उन्होंने कई प्रोजेक्टों पर कार्य किया है।