अमेरिका और कनाडा दोनों भारत से तो दूर पर आपस में पड़ोसी मुल्क हैं। दिलचस्प है कि भारत में खेती ने हरित क्रांति जैसा यश हासिल भले कर लिया है पर खेती को लेकर भारतीय समझ का आधार आज भी कमोबेश पारंपरिक ही है।
अमेरिका में हाल में राष्ट्रपति चुनाव संपन्न हुए हैं। इस चुनाव में चूंकि कांटे का मुकाबला था इसलिए समाज के हर छोटे-बड़े तबके को अपने पक्ष में करने के लिए आखिरी समय तक होड़ मची। इस लिहाज से वहां के खेतिहर समाज के बारे में दुनिया नए सिरे से अवगत हुई। वहां
करीब दो फीसद आबादी ही खेती-पशुपालन से जुड़ी है। मीट, सोयाबीन और मक्का में आगे होकर भी इस देश की कमाई में सिर्फ एक फीसद ही इसका हिस्सा जाता है। पर वहां खेती का मौजूदा स्वरूप पूरी तरह से औद्योगिक बनावट लिए हुए है। कम पूंजी और छोटी जमीन पर जोत जैसी बात से अमेरिका काफी आगे निकल चुका है।
दुनिया भर के कई अव्वल देशों में वहां के आदिवासियों की हकीकत को छिपा कर रखा जाता है जबकि जल-जंगल-जमीन सहित अब जमीर के रखवाले भी सिर्फ वहीं बचे रह गए हैं। इस लिहाज से भारत की स्थिति बिल्कुल अलग है। अपने देश के सकल घरेलू उत्पाद में 15-16 फीसद की भागीदारी वाली खेती में करीब 55 फीसद आबादी लगी है लेकिन खेती फायदे का सौदा अब शायद यहां पहले की तरह नहीं रह गया है।
अलबत्ता इस स्थिति के बीच कुछ चमकदार परिवर्तन भी दिखरहे हैं। भारत में ऐसे किसानों की कमी नहीं जो जोखिम लेने की अपनी सहज काबिलियत का इस्तेमाल कर दुनिया भर की अच्छी सीख लेकर मसालों, दालों और जैविक उपज के बाजार का हिस्सा बन रहे हैं। एक तरफ राजस्थान के गांवों में मिनी-इजराइल कहे जाने वाले गांव हैं तो वहीं उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और दक्षिण के राज्यों में ‘स्मार्ट फार्मिंग’ अपनाकर छोटे खेतों में कई फसलें एक साथ लेकर कुदरत से तालमेल बिठाने वाले किसान भी।
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